बेटी पराई नहीं, वह देश का उजाला है
आलेख | सामाजिक आलेख स्नेहा सिंह1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
बेटियों का मिट्टी से उठता संघर्ष, संकल्प और गौरव की गाथा
भारत की सांस्कृतिक स्मृतियों में बेटी हमेशा से शुभ मानी गई है, कोमल भी, लेकिन अडिग भी, नरम भी, लेकिन निर्भीक भी। लोकगीतों में उसे पराई कहा गया, पर हृदय के आँगन में वह हमेशा अपनी ही रही, घर की भी, मन की भी, देश की भी।
युग बदलते-बदलते एक और सत्य चमककर सामने आया, यह बेटी पराई नहीं, यह तो पूरे राष्ट्र का मान बढ़ाने वाली दीपशिला है।
आज भारत की बेटियाँ जिस ऊँचाई पर खड़ी हैं, वह कहानी न केवल संघर्ष की है, बल्कि उस प्रेम और विश्वास की भी है, जिसे परिवारों ने अपने सीने में सँजोकर रखा।
और इन सबके बीच उभरकर आया एक प्रेरक अध्याय, भारतीय महिला क्रिकेट, जिसने हर उस सोच को चुनौती दी जो कभी बेटियों के सपनों पर पहरा लगाने की कोशिश करती थी।
एक समय था जब बेटियाँ सपने देखने से पहले ही अपराधिन समझी जाती थीं
आज के समय में जब बेटियाँ विश्वस्तर पर पदक और पुरस्कार जीतकर लौटी हैं, यह याद करना ज़रूरी है कि यह रास्ता गुलाबों का नहीं था॥कुछ दशक पहले तक लड़की अगर बल्ला उठाती थी तो लोग हँसते थे। अगर सुबह पाँच बजे अभ्यास के लिए निकलती थी तो पड़ोसी आँखें तरेरते थे। अगर धूल में लिपटी गेंद पकड़ती थी तो रिश्तेदार पूछते थे, “लड़कियों का खेल है यह? क्या बनेगी इससे?”
पर सपनों का कोई लिंग नहीं होता।
और बेटियाँ यह बात जन्म से जानती हैं। उनके रास्ते में थी—साधनों की कमी, उपहास की चुभन, समाज की तिरछी दृष्टि, आर्थिक अभाव और अपने ही घर में अनकही आशंकाएँ।
लेकिन बेटियों के भीतर एक मौन-सी ज़िद थी कि जो भी बनना है, देश के लिए बनना है। वे चुपचाप मेहनत करती रहीं। पुरानी गेंदों से खेला, टूटे-फूटे बल्लों से अभ्यास किया और धूप-बारिश को अपना साथी बनाया।
दिखने में ये प्रयास छोटे लगे, पर इन्हीं में एक महान भविष्य का बीज छुपा था।
परिवार, जो बेटी के सपनों के लिए दीवार बनकर खड़ा रहा
हर खिलाड़ी की पीठ पर एक विश्वास होता है, घर का। माता-पिता के चेहरे पर भले चिंता की लकीरें हों, लेकिन आँखों में बेटी के लिए अनंत आशीर्वाद होते हैं। गाँवों और क़स्बों की हक़ीक़त बहुत सरल नहीं होती। सुबह चार बजे उठकर प्रैक्टिस पर जाना, दो बसें बदलकर मैदान पर पहुँचना, स्कूल और खेल दोनों सँभालना और समाज की ताने सुनना। लेकिन परिवार, माँ-बाप, दादा-दादी, भाई-बहन, इन कठिनाइयों को साझा करते गए।
किसी की माँ ने गैस का ख़र्च बचाकर बेटी के लिए स्पोर्ट्स शूज़ ख़रीदे।
किसी पिता ने खेत का छोटा टुकड़ा बेच दिया सिर्फ़ इसलिए कि बेटी का बल्ला नया हो सके। किसी भाई ने अपनी जेब ख़र्च रोककर बहन की किट दिलाई। किसी बहन ने कॉलेज की फ़ीस देर से जमा कराई, ताकि छोटी बहन की टूर्नामेंट फ़ी भरी जा सके। ये छोटी-छोटी कहानियाँ ही महिला क्रिकेट की जड़ें हैं। मौन त्याग की, अटूट प्रेम की और विश्वास की।
बेटी के स्पोर्ट्स बैग में सिर्फ़ ग्लव्स और पैड नहीं होते, उसमें पूरा परिवार आख़िर तक खड़ा रहता है।
महिला क्रिकेट, जहाँ संघर्ष ने इतिहास की रचना की
महिला क्रिकेट का शुरूआती सफ़र अनदेखा और अनसुना था। न मज़बूत अकादमियाँ, न सुविधाएँ, न प्रायोजक, न दर्शक। मैच होते भी थे तो छोटे मैदानों में बिना रोशनी, बिना कवरेज, बिना तालियों के। पर समय धीरे-धीरे बदलता गया। और बदलने का काम बेटियों ने ख़ुद किया अपने खेल से, अपने स्वभाव से, अपनी हिम्मत से। फिर एक-एक करके भारत ने वे खिलाड़ी देखे, जिनकी आँखों में आग भी थी और मिशन भी, देश के लिए जीतना।
2017 का वह वर्ष, जिसने पूरा भारत स्तब्ध कर दिया
महिला क्रिकेट का स्वर्णिम अध्याय यहीं से शुरू हुआ। 2017 विश्वकप, भले फ़ाइनल हम न जीत सके, लेकिन बेटियों ने पूरे देश का दिल जीत लिया। उस शाम टीवी स्क्रीन पर लाखों आँखें नम थीं—गर्व से, सम्मान से और विश्वास से। यह पहली बार था, जब लोगों ने समझा कि महिला क्रिकेट कोई छोटा खेल नहीं, यह भी भारत की धड़कन है।
उसी वर्ष से एक नया दौर शुरू हुआ-बेटियों के मैचों में भीड़ लगने लगी, टीवी और अख़बारों ने जगह दी, छोटे गाँवों से नई लड़कियाँ मैदानों में उतरने लगीं और माता-पिता ने भी कहना शुरू किया कि ‘मेरी बेटी भी खेल सकती है।’
2023–24 की विजय की वह सुबह, जिसने भारत को गर्व से भर दिया
महिला क्रिकेट का असली उत्कर्ष तब हुआ, जब भारतीय टीम ने अपनी कौशल, आक्रामकता और रणनीति से दुनिया को चौंका दिया-एशिया कप की जीत, टी-20 में लगातार बड़े स्कोर, विश्व स्तरीय गेंदबाजी और युवा खिलाड़ियों की शानदार मौजूदगी। यह दौर सिर्फ़ जीतों का नहीं था। यह वह क्षण था जब भारत ने कहा कि ‘बेटियाँ किसी मैदान में पीछे नहीं हैं।’
स्टेडियमों में गूँजता जयकारा, टीवी पर चमकता तिरंगा, और हाथों में थमी ट्राफी, यह तस्वीर सिर्फ़ जीत की नहीं, बल्कि पीढ़ियों के संघर्ष का उत्सव थी।
एक तस्वीर, जो हर भारतीय माँ-बाप की उम्मीदों को पंख देती है
जब राष्ट्रीय ध्वज के साथ ट्राफी उठाती बेटियाँ मुस्कुराती हैं तो वह मुस्कान किसी सामान्य जीत की नहीं होती। उसके भीतर वर्षों की तपस्या, हज़ारों प्रैक्टिस सत्र, अनगिनत क़ुर्बानियाँ और सपनों की थकान-रहित उड़ान, सब एक साथ झलकते हैं। वे सिर्फ़ खिलाड़ी नहीं, वे उन सभी लड़कियों की प्रतिनिधि हैं, जो अभी भी किसी मैदान में पुरानी गेंद से भविष्य टटोल रही हैं।
0 बेटियाँ अब केवल घर की नहीं, पूरा देश उनका घर है
आज भारत की बेटियाँ अंतरिक्ष में भारत का नाम रोशन कर रही हैं, विज्ञान में नए अध्याय लिख रही हैं, सेना में कंधे से कंधा मिलाकर देश की रक्षा कर रही हैं, प्रशासन, तकनीक, चिकित्सा, कला, साहित्य हर जगह धाक जमा रही हैं। उनकी उड़ान अब परंपराओं से नहीं, नई दृष्टि और नए आत्मविश्वास से संचालित है। समाज भी बदल रहा है कल तक पराई कही जाने वाली बेटी आज देश की शान कहला रही हैं। कल तक खेल को लड़कों का क्षेत्र माना जाता था। आज महिलाएँ रिकार्ड बना रही हैं। कल तक जिन पर शक होता था, आज उन्हीं पर गर्व हो रहा है। यह बदलाव किसी चमत्कार से कम नहीं।
स्त्रियाँ सिर्फ़ देखने की वस्तु नहीं, वे युग रचने की क्षमता रखती हैं
महिला क्रिकेट की कहानी यह सिखाती है कि अवसर मिला तो स्त्री पर्वत भी हिला सकती है। विश्वास मिला तो वह असम्भव को भी सम्भव कर देती है। और सम्मान मिला तो दुनिया उसकी शक्ति को नमन करती है। स्त्रियाँ केवल किसी की परिभाषा में बँधने के लिए पैदा नहीं होतीं, वे अपनी पहचान गढ़ने के लिए पैदा होती हैं।
बेटियों की उड़ान, अब कोई नहीं रोक सकता
आज की बेटी डरती नहीं, रुकती नहीं, मुड़कर देखती नहीं। वह आगे बढ़ती है साहस के साथ, समझदारी के साथ और स्वाभिमान के साथ।
उसे मालूम है कि उसके पंख मज़बूत हैं। उसकी ज़मीन उपजाऊ है और उसका आसमान अनंत है। अब वह किसी से पूछती नहीं कि ‘मैं उड़ सकती हूँ?’ अब वह केवल उड़ती है।
बेटियों के इस अद्भुत सफ़र का सार यही है कि बेटी को पराई कह देना आसान है, लेकिन उसकी उपलब्धियाँ यह सिद्ध कर देती हैं कि वह पूरे राष्ट्र की धरोहर है। महिला क्रिकेट सिर्फ़ खेल नहीं, यह एक युग का परिवर्तन है, जहाँ बेटियाँ पीछे नहीं, आगे चलकर रास्ता दिखा रही हैं। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि बेटियाँ देखने की नहीं, समय बदलने की ताक़त रखती हैं।
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