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व्यक्त होना सीखें: प्यार हो या बात, व्यक्त नहीं होगी तो मूर्ख मानी जाएँगी

हम सुनते आए हैं कि न बोलने में नौ गुण। बात तो सही है। अमुक समय पर शब्दों को हज़म कर जाना ही चतुराई है। पर जहाँ सचमुच बोलने की ज़रूरत है, वहाँ भी मौनव्रत धारण करके बेठे रहने वाले को या तो मूर्ख माना जाएगा या फिर यह मान लिया जाएगा कि बेकार है। जिस तरह न बोलने में नौ गुण वाली कहावत प्रचलित है, उसी तरह जो बोले उसी का बेर बिकता है, यह कहावत भी ख़ूब प्रचलित है। सामने वाले व्यक्ति के सामने कब व्यक्त हुआ जाए, जिसके पास इसका ज्ञान है, उस इंसान का मन भाग्य से ही कभी दुखी होगा। बात यह है कि कब नहीं बोलना है और कब व्यक्त होना है, इसके बीच की पतली रेखा को समझना बहुत ज़रूरी है। जिसके पास इसकी समझ होगी, वह तमाम जंग चुटकी बजा कर जीत लेगा। 

एक सीधा-सादा उदाहरण है। आप का विवाह हुए एक साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है। आप अपनी सास के साथ मिल कर रसोई सँभाल रही हैं, पर आप को लगता है कि आप सास के साथ किसी काम को जिस तरह कर रही हैं, आप उसी काम को किसी दूसरी तरह से और अच्छा कर सकती हैं। आप उस काम को जिस तरह करना चाहती हैं, वह आप के लिए आसान और सार्थक रहेगा। सास को यह बात शान्ति से बताएँ। यहाँ अपनी बात न बता कर मन में यह सोच लेना कि सास से कहूँगी तो उन्हें बुरा लगेगा तो? बेकार में झगड़ा होगा तो? इस तरह की अनेक बातें मन ही मन सोच कर काम के प्रति असहजता अनुभव करने से अच्छा है अपनी बात कह देना। एक बार कह देने से मन का बोझ हलका हो जाएगा। सामने वाला भी समझ जाएगा कि आपको इस तरह नहीं, दूसरी तरह काम करने में मज़ा आता है। व्यक्त होने से किसी को बुरा लगेगा, यह सोच लेने के बजाय यह सोचना चाहिए कि अपने मन की बात कह देंगी तो सामने वाले व्यक्ति को आप को समझने में आसानी रहेगी। इसी तरह घर के झगड़े का भी है। दूसरी बात, घर में किसी तरह की कहा-सुनी हुई हो तो शब्दों को किस तरह क़ाबू में रखा जाए, इस बात का भान होना चाहिए। तमाम लोग ग़ुस्से में सामने वाला व्यक्ति अत्यंत दुखी हो जाए, इस हद तक खरी-खोटी सुना देते हैं। ऐसा करने के बजाय शान्ति से समस्या को हल करना चाहिए। ऐसा करने से दोनों पक्षों का सम्मान बना रहेगा। 

कहने का ढ़ंग

आप अपने मन की बात किस तरह कहती हैं, इसके ऊपर बहुत कुछ निर्भर होता है। अपने मन की बात कहनी है, पर किस भाषा में कहनी है, इसकी समझ होना बहुत ज़रूरी है। किसी को बुरा लग जाए, इस टोन में ऐसी भाषा में अपने मन की बात कहने के बजाय ऋजुता अपनाएँ। जहाँ तक हो सके शांत और सरल भाषा में दिल की बात कहें। याद रखिए, कोई व्यक्ति आप से मोटी आवाज़ में बात कर रहा है तो आप भी उसी की तरह उबल कर बात करेंगी तो अंततः बात का बतंगड़ ही बनेगा। पर अगर आप शान्ति से बात करेंगी तो सामने वाला व्यक्ति ज़ोर-ज़ोर से बोलने में शर्मिद॔गी का अनुभव करेगा और वह धीरे-धीरे शांत हो कर बात करने लगेगा। इसी तरह आप सामने वाले व्यक्ति से किसी बात का बुरा लगा हो, तो उससे चिल्ला कर कहने के बजाय शान्ति से दिल की बात कहें। ऐसा करने से बिना मतलब के बवाल से बच सकती हैं। बेकार में शामिल ऊर्जा ख़र्च नहीं होगी, मानसिक संताप का अनुभव नहीं होगा और किसी का मन भी दुखी नहीं होगा। 

ख़ुद को व्यक्त करें

स्त्री हो या पुरुष, अगर वह अपने मन की बात मन में रख कर घूमेगा तो उस व्यथा का निराकरण कभी नहीं होगा। आप कोई बात मन में रख कर घूमती रहेंगी और सोचें कि सामने वाला व्यक्ति आपकी व्यथा समझ लेगा तो ऐसा कभी नहीं होगा। याद रखिए, बिना माँगे माँ भी खाना नहीं देती। इसलिए मन में जो हो, उसे कहना सीखें। कहेंगी तभी सामने वाला व्यक्ति समझेगा कि आप के अंदर क्या चल रहा है? आप कैसी परिस्थिति से गुज़र रही हैं? प्यार हो या संताप, मन में क्या चल रहा है, यह बताना ज़रूरी है। अक़्सर ऐसा होता है कि आप को अपने पार्टनर के प्रति बहुत लगाव होता है, पर यह बात आप उसे बता नहीं सकतीं तो वह कैसे जानेगा कि तुम सचमुच उससे प्यार करती हो। इसलिए बताना ज़रूरी है। इसी तरह तुम सच्ची हो और बिना कारण तुम्हारे साथ कुछ ग़लत हो रहा है, अन्याय हो रहा है तो उस समय भी बोलना ज़रूरी है। अगर नहीं बोलोगी तो लोग तुम्हें मूर्ख समझेंगे और सही होने पर भी तुम्हारे साथ बार-बार अन्याय करेंगे। लोग समझ जाएँगे कि चाहे जो भी कहो, इसके साथ जो भी अन्याय करो, चाहे जैसा व्यवहार करो, यह बोलेगी तो है नहीं। जब लोग तुम्हारे लिए ऐसा समझ बैठेंगे, तब वे आप के साथ अधिक से अधिक उस तरह का व्यवहार करने लगेंगे। इसलिए जहाँ ज़रूरी हो, वहाँ बोलना ज़रूरी है। एक हद से अधिक किसी की हाँ में हाँ मिलाना भी ठीक नहीं है। हर जगह बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन ज़रूरी नहीं है, पर जहाँ ज़रूरत हो वहाँ करना चाहिए। कोई आप को मूर्ख, ग़ैर समझदार या कमज़ोर मान बैठे, इस हद तक अव्यक्त रहना उचित नहीं है। 

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