आदिवासी कला का गौरव भैरवीबेन मोदी
आलेख | ललित कला वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
भैरवीबेन मोदी
1980 में जन्मी भैरवीबेन मोदी ने 2022 ने अहमदाबाद के शेठ सीएन कॉलेज ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स से चित्रकला में डिप्लोमा किया। उसके बाद बड़ौदा की एमएस यूनीवर्सिटी से कला की शिक्षा प्राप्त की। गाव में बिताए बचपन की यादों में खोई भैरवी मोदी, ग्रामीण जीवन की सादगी को दर्शाने वाले दृश्य रचने का प्रयास करती हैं। मासूमियत की खोज में रुचि रखने वाली भैरवीबेन अक्सर बच्चों के चित्र बनाती हैं। उनकी आँखों और उनके अंगों की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करती हैं। वह अपने काम में विविध प्रकार की बनावट, रंगों और दृष्टिकोणों का प्रयोग करती हैं।
भैरवीबेन की कलाकृतियाँ दुनिया भर की कई प्रदर्शनियों में प्रदर्शित की जा चुकी हैं और इब्राहीम अलकाजी और टोरेंट पॉवर लिमिटेड सहित कई सहित कई संग्रहों का हिस्सा रही हैं। इस समय वह अहमदाबाद में रह कर अपना काम कर रही हैं।
जिस क्षण कलाकार के मनोजगत में रसिक प्रवेश करता है, उसी क्षण कला झंकृत हो उठती है। मानना पड़ेगा कि कला संदर्भ में ऐसी घटनाएँ मील का पत्थर साबित होती हैं। आदिवासी कला का अर्थ है आदिवासियों द्वारा की गई-रची गई कलाकृतियाँ, यही न? पर यहाँ कला की बुनियाद में प्राण फूँकने वाली ऐसी घटना है कि आदिवासियों के जीवन के घटनाक्रमों को ध्यान में रख कर जन्मी चित्रकला यानी डांगी जनजाति के रोज़मर्रा के जीवन में रोचक और अर्थपूर्ण झाँक कर, विविध अवसरों, त्योहारों, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों, धार्मिक विधानों, खेती, प्रकृति के अनोखे रूपों, उत्सवों, भाषा, समाज की तासीर आदि का बारीक़ अवलोकन कर के सृजित अद्वितीय, अनुपम चित्रकला।
यहाँ तक कि मूल डांगी कला को हृदय में धारण कर, उसे नए वस्त्र पहना कर सृजित की गई एकदम नई, मौलिक चित्रकला का अद्भुत अवतरण। इन नवीन चित्रों में साँस लेता है डांगी आदिवासियों का संपूर्ण जीवन। रोचक बात यह है कि डांग ज़िले की प्रसिद्ध चित्रकला का इसमें कोई प्रतिध्वनि या अनुकरण नहीं है, बल्कि अन्य कलाओं, नृत्य, गीत, संगीत, साहित्य, विधि-विधान, प्रकृति आदि के विविध प्रसंगों को समेटता हुआ यह अनुपम, अमूल्य चित्रात्मक दस्तावेज़ है।
वैसे तो भैरवीबेन ने हेरिटेज सिटी अहमदाबाद की पारंपरिक स्थापत्य-कला को कैनवस और काग़ज़ पर उतार कर बहुत मान प्राप्त किया है। उन्होंने प्राकृतिक चित्रों (लैंडस्केप) में भी गहरी रुचि ली है। उन्हें रूपचित्र (पोर्ट्रेट्स) भी बहुत प्रिय हैं, लेकिन डांग-आधारित चित्रों में वह सचमुच खिली हैं—खुल गई हैं। प्रत्येक चित्र में वह उमड़ी हैं और अहमदाबाद की आर्चर आर्ट गैलरी, गुफा आर्ट गैलरी आदि ने उन्हें आमंत्रित कर सहयोग दिया है।
डांग के चार प्रमुख त्योहार: डुंगरदेव, भवाड़ा, बेलपोड़ा और होली
डांग ज़िले के अनेक त्योहारों में उपर्युक्त चार मुख्य त्योहार अत्यधिक प्रख्यात हैं। इन्हीं त्योहारों को ध्यान में रख कर युवा कलाकार भैरवीबेन ने असंख्य विराट चित्र बनाए हैं, जिनमें ‘कोलाज’ की झलक दिखाई देती है। प्रत्येक चित्र में पात्र-वैभव तो है ही। साथ ही मोरों (महोरां) की भी बड़ी भूमिका है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक वातावरण, वाद्य-यंत्र, औज़ार, गोफण (गुलेल), शस्त्र, औषधियाँ, नृत्य, कथा–वार्ता आदि का महत्त्व भी प्रकट होता है। प्रस्तुत कलाकार के चित्रों से बात करने, कथन करने और कुछ बाँटने की प्रवृत्ति झलकती है। प्रसंगानुसार चित्रों में आदिवासियों की सृजनात्मकता, कल्पना और विचारशक्ति से उपजे सृजन के भी संकेत मिलते हैं। अबाल–वृद्ध, सबके जीवन को स्पर्श करते प्रसंगों की यहाँ माला गुँथी हुई है। उस समुदाय के साथ के अनुभव बाँटते हुए भैरवीबेन ने अद्भुत कलाकृतियाँ रची हैं। वहाँ के पारंपरिक मोर (महोरां) प्रतीकात्मक हैं। वे जाति, प्रसंग, स्वभाव और वातावरण के अनुरूप होते हैं। इसी का निरीक्षण कर इस सृजनशील कलाकार ने तवे, बाँस और अन्य माध्यमों की मदद से एक बहुत ही सुंदर मोर-शृंखला बनाई है।
पौराणिक पात्र यहाँ मुखरित हो कर बोलते प्रतीत होते हैं। गहरे और घने रंग, ज्यामितीय रेखाएँ और बड़े आकार उनकी कला की विशेषताएँ हैं। कैनवस पर तैलरंग से बने चित्रों के साथ मोर का संयोजन कर उन्होंने एक नया ही कलाकर्म किया है। डांग ज़िले के आदिवासियों के जीवन के अंतरंग प्रसंगों और अनुभवों को उन्होंने सटीकता से प्रस्तुत किया है। आदिवासियों के वाद्य-निर्माण में ढोर की खाल, गाय–भैंस और बकरे के सींग, दूधी, कद्दू, बीज-छिलके, गाजर, गोंद, लाख और मोम का व्यापक प्रयोग भी उन्होंने दर्शाया है।
सचेत अवलोकन, जीवन को स्पर्श करती कला, बोलता कैनवस
डांग के अनेक वाद्यों में बाँसुरी जैसी 'पॉवरी’ उनका दैवी संगीत वाद्य है। इसके अलावा ताडपु, ढोलक, मँजीरा, पदारी, बाँसुरी, थाली, कहानीया, किरया, तुंबड़ी, मादल, नगाड़ा, घांघरी, झाँझ (कास की जोड़ी), शहनाई भी हैं। आइए इन वाद्यों के नाद पर उनके एक त्योहार ‘डुंगर देव’ का अद्भुत चित्रण भैरवीबेन के चित्र में उल्लासपूर्वक अनुभव करें। अधिकतर विवरणों की झलक बड़े आकार के चित्र में उत्सवी रंगों के माध्यम से होती है। अनेक मानव पात्र विभिन्न मुद्राओं में, अलग-अलग प्रसंगों में दिखाई देते हैं।
डुंगरदेव त्योहार पर होने वाले नृत्य को ‘भाया नृत्य’ भी कहा जाता है। लोकनृत्य का यह स्वरूप पहाड़ियों के सान्निध्य में देखने को मिलता है। डुंगरदेव की पूजा-प्रसंग पर समूहों में आदिवासी इकट्ठे होते हैं। नागली, चावल, उड़द आदि की खोज में ‘भाया’ अर्थात् पुरुष निकलते हैं। रास्ते में पॉवरी या घांघरी पर सहनृत्य करते हैं। बीच-बीच में उद्घोष सुनाई पड़ता है . . . ‘बिलो . . . री . . . शो . . .!’ ‘बिलोरी’ का अर्थ है सीमारेखा, जहाँ पत्थर से सरहद खींची जाती है। हर पहाड़ी के अनुसार देव होते हैं—गावलिया देव, कंसारिया देव, दिवालिया देव . . . आदि का आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है।
इस त्योहार में केवल पुरुष जाते हैं, स्त्रियाँ नहीं। उन्हें आरती की अनुमति भी नहीं होती, बल्कि गाने-नाचने पर भी रोक है। इस प्रसंग में भैरवीबेन के एक ऊर्ध्व (वर्टिकल) चित्र में पुरुष एक-दूसरे पर खड़े दिखाई देते हैं। साथ ही बाँस के तने और छोटी-बड़ी डालियाँ झलकती हैं। ख़ाली जगह से पूजा-पाठ करते बैठे पुरुषों की छोटी आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं। लाल, पीले, भूरे, काले, हरे रंगों में मनुष्य विभिन्न परिधानों में कहीं कार्यरत दिखाई देते हैं तो कहीं संयोजन में बड़ी तीक्ष्ण आँखें हमें निहारती हैं। अन्य त्योहार भी हम अवश्य देखेंगे, है न?
टिप्पणियाँ:
मोरों की कला का अर्थ है निर्जीव में जीवन भर कर उसे सजीव बना देने की कला।
समर्पित कलाकार के लिए कला ही जीवन है।
जब चित्र-जगत में भ्रमण-विहार होता है, तब कलाकार के साथ-साथ समानांतर हम भी रसिक या भावुक बन कर उसी कलाकार की अदा से उन चित्रों को देखें, समझें, आनंद लें और आत्मसात करें, तो मन की गहराई में हम स्वयं भी कलाकार का रूप धारण कर लेते हैं। शायद कला की सफलता इसी में है और कलाकार की सिद्धि भी तभी सर्वोच्च शिखर पर बैठी उद्घोष करती है।
दैनिक जीवन की घटनाओं से बाहर निकल कर कला की शरण में जाने से दिव्य अनुभूति होती है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है। उसमें भी जब अपनी संस्कृति और परंपरा को उजागर करती कला के संपर्क में आने का अवसर मिलता है तो भाई वाह! मन मोर बन कर थिरक उठता है। हमें आदिवासियों की कला के बारे में कई प्राथमिक जानकारियाँ हैं। उनके जीवन-क्रम के बारे में भी हम बहुत कुछ जानते हैं। उनके चित्र, शिल्प, गीत, संगीत, धर्म, रीति-रिवाज़, परंपरा, भाषा एकदम अलग और अनोखे होते हैं-यह जानने वाले हम उन्हें ख़ूब आनंद से देखते हैं . . . परन्तु क्या उसके बाद कभी हम उनकी उन विशेषताओं को दिल से स्मरण कर, उनके संदर्भ में कोई विचार, कर्म या कलाकर्म को जीवन से जोड़ते हैं? हाँ, हम क्लिक की हुई तस्वीरें रिश्तेदारों में बाँटकर संतोष और गर्व से साँस लेते हैं . . . और बस कहानी पूरी!
अहमदाबाद की साधारण सी कलाकार भैरवीबेन मोदी की बात अलग है। उनके चित्रों का जन्म और विकास भी असाधारण है, बिलकुल नया और अनोखा। क्योंकि गुजरात के सबसे छोटे ज़िले डांग की एक छोटी-सी यात्रा ने उन्हें और उनकी कला को जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया, वह एक अद्भुत आश्चर्य है।
आदिवासी कला का गौरव भैरवीबेन मोदी
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