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बांग्ला मंच की प्रतिष्ठित नाट्यकार शांओली मित्र का अपने नाट्य विषयक संस्मरण

अनुवाद: डॉ. रानू मुखर्जी

 

नाट्यदंपत्ति आदरणीय शंभू मित्र—तृप्ति मित्र की एक मात्र पुत्री शांओली मित्र का जन्म (1948–2022) कोलकाता में हुआ था। शांओलि मित्र उनके सृष्टि की यथार्थ वाहक हैं, अगर कहा जाए तो वह मंच की ही संतान हैं। केवल नाट्याभिनय से ही वह संतुष्ट नहीं रहीं उन्होंने नाटक लिखे तथा नाट्य विषयक प्रवन्धों पर भी क़लम चलाई। इसके साथ ही कहानियाँ भी लिखीं। 

उन्होंने महाभारत को आधार बनाकर दो नाटक लिखे। ‘नाथवती अनाथवत’ (1983) और ‘कथा अमृतसमान’ (2013)। इन नाटकों की विशेषता यह है कि यह एकल नाटक हैं और आंगिक हैं। वही कथक हैं जो संपूर्ण कथा को, कभी वही याज्ञसेनी द्रौपदी बनकर, कभी दुर्योधन बनकर तो कभी शकुनी बनकर अपनी अंग-भंगिमाओं के माध्यम से मंच पर प्रदर्शन करती हैं। नाटककार ही मंच पर कथक बन जाती है—कथा कहने लगती है, “बाबूमोशाय” कहकर दर्शकगण को संबोधित करती हैं। 

शांओली मित्र की इन नाटकों की दो विशेषताएँ हैं। प्रथमतः, महाभारत के अन्यतम नारी चरित्र द्रौपदी को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखना और विश्लेषण करना और द्वितीयतः बाँग्ला नाट्यमंच पर पहली बार एक कथक ठाकुरानी को लाना। अपने संस्मरण में शांओली मित्र ने नाटक के निर्माण में अपनी भावनाओं को दर्शाया है। इस प्रक्रिया में उन्हें अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अनुवाद के माध्यम से मैंने (डाॅ. रानू मुखर्जी) विषय और चरित्र दोनों को न्याय देने का प्रयास किया है। 

अनुवाद:

अभिनय के लिए ही नाटक लिखना हुआ। 1979 से मैंने (शांओली मित्र) अभिनय करना छोड़ दिया था। चार साल तक थियेटर से मैं दूर रही। उस समय के दौरान मैंने अपने कंठ स्वर का प्रयोग किया। क्रमशः मुझे लगने लगा मैं अपने संपूर्ण शरीर का प्रयोग कर सकती हूँ—अपनी आँखें, भौंहें, होंठ, हाथ, पैर—सब कुछ। मैं क्यों इनकी अवहेलना कर रही हूँ। पर क्या किया जा सकता है? 

इसी सोच पर बाबा (पिता) श्रीशंभु मित्र से आलोचना हुई। (श्री शंभु मित्र एक भारतीय फ़िल्म और मंच अभिनेता, निर्देशक, नाटककार, वाचक और एक भारतीय रंगमंच के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे। नाट्य सिद्धांत के लिए उन्होंने एक नई भूमि तैयार की। पचास साल तक उन्होंनें रंगमंच को जो दिया वह बंगाल की ही नहीं भारतीय रंगमंच की अमूल्य थाती है। नाटकों को औपनिवेशिक कवल से महाराष्ट्र से निकालकर देशीय मंच अवधारणा को स्थापित किया) बाबा ने तब महाराष्ट्र की माननीय व्यक्तित्व श्रीमती ईरावती कार्भे की पुस्तक ‘युगांत’ पढ़ने के लिए दी। उस पुस्तक को पढ़ने के बाद से ही मेरे मन में अनेक भावनाओं ने घर करना आरंभ कर दिया। मैंने महाभारत पढ़ना शुरू किया। यह 1982 की बात है। फिर विविध परिस्थितियों से गुज़रने के कारण वही भावनाएँ एक तरफ़ रह गईं। परन्तु बार-बार माँ की चेतावनी के कारण फिर से उस पर विचार किया। और फिर 1983 के फरवरी के अंत से मैंने (नाथबती अनाथवत) लिखना शुरू किया और अप्रैल के प्रथम सप्ताह में ही नाटक का लिखना समाप्त हो गया। उसी वर्ष के अगस्त में नाटक का मंचन हुआ। 

इस नाटक में कथक, एक चरित्र है—मेरे जैसा कोई—जो कुछ कहना चाहता है। अपने इस ‘चाहत’ से ही मैंने द्रौपदी की कथा को चुना। 

युग युगांतर से समाज में द्रौपदी की तरह लोगों को कष्ट सहन करना पड़ा या नहीं, या अब भी सहन करना पड़ रहा है या नहीं, इसका विचार करेंगे पाठक। 

इससे पूर्व कभी भी मैंने नाटक, कहानी या गीत नहीं लिखा था। 

परन्तु ज्यों ही मैंने इसे लिखना शुरू किया मेरी लेखनी से गीत निकालने लगा, “कुछ कहना चाहता है रे मन”  और इसके साथ ही मुझे लगा यह कथक के अकेले का काम नहीं है—कथक के साथ, मंच पर, एक गायन वादन के दल (जिन्हे बांग्ला में‘जूडीर दल’ कहते हैं) का होना ज़रूरी है। गंभीरता से सोच-विचार करने के पश्चात नहीं—स्वतः ही ये भाव मेरे मन में आए। 

‘नाथवती अनाथवत’ के मंचन होने के पश्चात 1985 में वर्णनात्मकता को लेकर गवेषणा करते वक़्त मैंने विभिन्न प्रदेशों में जाकर देखा कि उनकी वर्णना में सर्वत्र ही गायन की प्रचुरता है और सहयोगी दल के रूप में गायन-वादकों का एक दल (जूडिर दल) रहता ही है। तिजनबाई, राजाराम भऊ क़दम, या फिर पूनाराम जैसे गुणी लोकशिल्पियों से उन्हीं दिनों साक्षात्‌ हुआ। जब मैंने 1983 में इस नाटक को लिखा तब मुझे इन विषयों की कोई जानकारी नहीं थी। किसने कैसे मुझे यह सब करने की शक्ति दी पता नहीं। हमारे ऐतिह्य की जड़ें क्या इसी तरह हमारे अंदर काम करती हैं? 

अगर थोड़ा ध्यान दिया जाए तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कथक, इन दोनों नाटकों की कथा से जुड़ी हुई नहीं है। वह किस अवस्था से आई है, क्यों वह महाभारत की कथा कहती है, उसकी व्यक्तिगत सुख दुख— कुछ भी इस नाटक में नहीं कहा गया है। यहाँ तक कि कथक का नाम भी हमें पता नहीं है। वह केवल मात्र एक ‘कथक’ है—बस यहाँ पर यही उसका परिचय है। इसलिए समाज से संबंधित अपने अनुभव अपने इच्छानुसार व्यक्त भी कर सकती है, रसिकता भी कर सकती है, टिप्पणी भी कर सकती है। आग के दृश्य में आग नहीं होती। वस्त्रहरण के दृश्य में वस्त्र को नष्ट किए बिना ही घटना की भयंकरता को बताया जा सकता है। अतः एक कथक (मेरे जैसा) के होने पर रचना में परिपाटी आती है। अच्छा अब बताइए, अगर द्वापर युग के चरित्रों को यहाँ पर उपस्थित करना होता तब हम अपने कल्पित चेहरों को इस बांग्ला थियेटर में कहाँ से लाते? भीम? अर्जुन? या फिर दुर्योधन? अथवा द्रौपदी—दरअसल इस आंगिक (अंगों के द्वारा संकेत) के द्वारा दर्शकों की कल्पना का पथ प्रशस्त हो जाता है। प्रासाद अथवा अरण्य, पासा खेलने की सभा या फिर इन्द्रप्रस्थ का प्रासाद, हस्तिनापुर नगरी या फिर कुरूक्षेत्र का प्रांतर सब कुछ। 

और एक सुविधा कथक बनकर मैंने इस पाला में अभिनय करते हुए अनुभव किया वह यह कि अभिनय करते समय एक ही साथ दो तीन स्तर प्रकट होते हैं। जैसे वनगमन के समय द्रौपदी का अलंकार खोलने का अभिनय मुद्राओं की सहायता से दर्शाती है। इसके साथ ही गायन में द्रौपदी तृतीय व्यक्ति है। उस समय कथक द्रौपदी के अनुभव को अपनी तरह से सुनाती है। इसके साथ ही जूडीर के दल जब पंच पाण्डव के साथ द्रौपदी के वनगमन की कथा का वर्णन कर रहा होता है तब उसके साथ एक तीसरा स्तर जुड़ जाता है। 

इसी प्रकार की आंगिक प्रक्रिया ‘कथा अमृतसमान’ में भी कथक बनकर वर्णन के माध्यम से युधिष्ठिर और भीम बनकर उनकी भंगिमाएँ और वार्तालाप को एक ही साथ वर्णन करती जाती हैं। अग्निकांड के दृश्य में
केवल मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम से ही अग्नि की भयंकरता को दर्शाया जा सकता है। वर्षों से मैं देखती आ रही हूँ दर्शकगण को इसे आत्मसात करने में कोई असुविधा नहीं हो रही है। 

मेरी कल्पना की वह कथक, महाभारत की असमान्य नारी द्रौपदी की नज़रों से महाभारत कालीन समाज को देखती है। उसके अनुसार वह अपनी कहानी को सजाती है। विशाल महाभारत से वह केवल द्रौपदी—संश्लिष्ट समय को चुनती है। वह केवल कहानी ही नहीं कहती, अपितु उस समय के साथ-साथ अपने इस समय की तुलना भी करती जाती है। और यह तुलना-प्रति तुलना संपूर्ण नाटक में चलता रहता है। अतः आज की कोई भी साधारण नारी महाभारत की उस अतुलनीय नारी के साथ, अपने अपमान से भरे जीवन के साथ, स्वयं की समानता कर सकती है। इस एकात्मबोध को समाज में घटते हुए, कम से कम 30 वर्ष से मैं देखती आ रही हूँ। 

महाभारत में जैसे दुर्योधनगण हैं उसी प्रकार भीष्म और व्यासदेव के जैसे लोग भी हैं। इस समाज में अनेक साधारण पुरुष भी हैं जो स्वभावतः शुभबोधसंपन्न हैं। जो निजस्व विवेचनशक्ति के आधार पर घटनाओं का मूल्यांकन करते हैं। कोई विशेष घटना, विशेष साहित्य, कोई नाट्याभिनय, कोई चलचित्र उनके उस शुभबोध के साथ विचारों का संयोजन कर देता हैं। अपने स्वयं के सम्मुख उन्हें खड़ा करने में सक्षम होता हैं। तब उनकी अनुभूतियाँ जागृत होती है। 

इसके साथ ही इस—कथा में संलग्न है व्यक्ति—मानव की उच्चांकक्षाएँ; चाहे वह नारी-पुरुष कोई भी हो। 

जहाँ तक मुझे याद आता है 1980 से लेकर 1982 के बीच घटी दो-तीन सामाजिक घटनाओं ने मुझे मानसिक रूप से विध्वस्त किया था।

पहली है—

काम ख़त्म करके हमारा एक सह अभिनेता सियालदा से ट्रेन से घर लौट रहे थे। चलती ट्रेन से उन्होंने देखा साथ-साथ में जो मालगाड़ी चल रही है उसकी दो बोगी के बीच एक प्राणहीन नग्न नारी देह झूलती हुई साथ में चल रही है। उसके लम्बे केश से ही उसके शरीर को बाँधा गया था। शरीर सूखे ख़ून की दागों से भरा हुआ था। परवर्ती स्टेशन में ट्रेन के रुकने पर रेल पुलिस को बताते ही मालगाड़ी को रोककर मृतदेह का उद्धार किया गया। यह ख़बर दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी। मुझे स्पष्ट याद है, दूसरे दिन हमारे मित्र रिकार्डिंग के लिए आकर स्वाभाविक हो नहीं पा रहे थे। 

दूसरा है—

शहर में रहनेवाली मेरी एक घनिष्ठ सहेली ने एक दिन आर्त्त चीत्कार सुनकर अपन कमरे की खिड़की खोलकर झाँक कर देखा कि पड़ोस की गृहवधु अपने घर के छत पर “बचाओ! बचाओ” चीत्कार करती हुई छत के इस छोर से उस छोर तक भाग रही है। जब मेरी सहेली ने उसकी मदद करने के लिए उस तक पहुँचना चाहा तब उसके पति ने रास्ता रोकते हुए कहा, “तुम कहीं नहीं जाओगी—वह मकान विशेष शक्तिशाली राजनैतिक दल के अधिकारी का है।” इतना कहकर कुछ समय तक वह निथर बन बैठी रही। 

तीसरा है—

इस घटना की जानकारी समाचार पत्र के माध्यम से मिली। इस घटना का स्थल भी शहर ही है। एक सुश्री तथा मेधावी लड़की कोलकाता के काॅलेज में पढ़ने जाती थी। यातायात ट्रेन से करती थी। चाय की दुकान पर खड़े होकर कुछ बदतमीज़ बेकार युवक उसे परेशान करते थे। लड़की निर्विकार रहती थी, जिससे उन युवकों का ‘पौरूष’ आहत होता था। अतः एक दिन दोस्तों ने आपस में शर्त रखी। ट्रेन के लिए इंतज़ार करती हुई लड़की के कुछ आभास होने के पहले ही उन्होंने लड़की की साड़ी को खींचकर उसके सर पर उठा दिया। अचानक हुए इस हादसे के कारण लड़की बेहोश हो जाती है। खचाखच भरा हुआ स्टेशन पर किसी ने भी प्रतिवाद नहीं किया। बाद में उस लड़की का कोई अता पता नहीं मिला। 

इन घटनाओं को याद करते हुए आज भी मेरा मन खिन्न हो उठता है। इन्हीं घटनाओं ने शायद मुझे बेचैन कर दिया होगा। क्या मैंने इसलिए द्रौपदी का चयन किया? क्या पता! इसे कौन बता सकता है। 

इस पर इस बात को जानना ज़रूरी है कि ‘कथा अमृतसमान’ का बीज वपन 1985 में ही हो गया था। श्री धृतिमान चट्टोपाध्याय, उन दिनों दूरदर्शन पर महाभारत की स्रियों पर एक धारावाहिक तैयार करने के इच्छुक थे। इसलिए उन पर आधारित कथा, उन्होंने मुझसे लिखवाई थी। सरकारी नियमों का समर्थन करते हुए मैंने इसे 13 पर्व में लिखा। किसी अज्ञात कारणवश यह फलीभूत नहीं हुआ। कुछ वर्षों के पश्चात जब इसे डाॅ. बारीन राय और अन्य श्रोताओं के आग्रह से उनके समक्ष मैंने पढ़ा तब सभी ने इसे मंचस्थ करने का आग्रह दिखाया। 

मंच के लिए जब मैंने इस नाटक को फिर से लिखा तब यह कहानी केवल स्त्रियों की कहानी नहीं रही। उसका स्वरूप बदल गया था। उसका रंग-रूप—सब बदल गया था। जिस अन्वेषण का उल्लेख इससे पूर्व मैंने किया था वही मुझ पर हावी हो गया। फिर तो मंचस्थ होने बाद भी उसमें अनेक छोटे-मोटे बदलाव किए जाते रहे। यह अपनी जानकरी के आधार पर निर्भर करता है, दर्शकों की प्रतिक्रिया पर भी निर्भर करता है—लगातार स्वयं के साथ संघर्ष करते रहना पड़ता है। नाटक जब नाट्य बन जाता है तब लगातार यह बदलाव घटित होता रहता है। परन्तु एक ढाँचा जो तैयार हो जाता है नाटक के रूप में वही प्रस्तुत किया जाता है। विशेषतः अभिनय करते समय जब अभिनेता दर्शकों के सम्मुख खड़े होते हैं तब एक रासायनिक परिवर्तन घटित होने लगता है। संपूर्ण अभिनय में यह लेन-देन परस्पर चलता रहता है। अतः एक अभिनय के साथ अपर अभिनय का पार्थक्य होना अनिवार्य है। उस अनुभव की तुलना पाठक के पाठ के साथ नहीं किया जा सकता है। 

केवल मात्र अभिनय के लिए ही इन दोनों नाटकों को रचा है मैंने, केवल मात्र एक ही अभिनेता दोनों नाटकों के मूल में है—अतः कथक (मेरे लिए) के लिए यह आवश्यक हो गया कि लिखित पाठ में नाटक की प्रगति के विषय में बताया जाय। इसलिए शायद इन दोनों नाटकों में निर्देश अधिक है। क्योंकि मुझे (कथक) लगा था मेरी कल्पना को समझना उन लोगों के लिए आसान होगा जिन्होंने अभिनय नहीं देखा। इसलिए गायन की स्वरलिपि को इसके पाठ के साथ जोड़ा गया। 

तडित भट्टाचार्य ने इसकी स्वरलिपि तैयार की। आज से लेकर प्रायः 30 वर्ष तक वे इस जूडी के दल के मूल गायक हैं। ‘कथा अमृतसमान’ नाटक के 99 पर्सेन्ट गीतों की स्वरलिपि उनकी ही है। एक बार फिर से इस अवसर पर उनके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। 

‘नाथवती अनाथवत’ का असमान्य प्रथम आबाह के रचनाकार हैं मेरे संगीत के गुरु श्री धीरेन्द्र दास। इस नाटक के अधिकांश गीतों के संगीतकार वही हैं। आज पुनः इस नवीन प्रकाशन के अवसर पर उनको प्रणाम करती हूँ। उस समय उन्होंने इस—नाटक के निर्माण करने में मुझे विभिन्न रूप से उत्साहित किया था। 

और एक जन, जिन्होंने ‘नाथवती अनाथवत’ नाटक को लिखने तथा मंचन करने के लिए लगातार मुझे तकादा देकर मुझे उत्साहित करती रही वह हैं मेरी मातृदेवी, तृप्ति मित्र। (शांओली मित्र की माँ तृप्ति मित्र रंगमंच और सिनेमा की एक प्रतिष्ठित कलाकार रहीं। उन्होंने न सिर्फ़ बांग्ला बल्कि हिन्दी रंगमंच और सिनेमा को भी रौशन किया। इप्टा, (इन्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) से जुड़कर नाटक को एक ऊँचे मुक़ाम पर पहुँचाया। उन्होंने ‘चार अध्याय’, ‘ रक्त करबी’, ‘बिसर्जन ’, बादल सरकार के नाटक ‘बाक़ी इतिहास’, विजय तेंदुलकर का ‘सन्नाटा ’, ‘कोर्ट चालू आने’ जैसे अनेक नाटकों में दक्षता के साथ अभिनय किया)  

मेरी परिकल्पना को सुनकर उन्हें लगने लगा, इस नाटक को न लिखकर मैं बहुत ही गर्हित अन्याय कर रही हूँ। नाटक को सुनकर उनका फूट-फूटकर रोना, मुझे आज भी याद है। ‘कथा अमृतसमान’ नाटक लिखते तक उनका अवसान हो चुका था। 

इन दोनों नाटक के क्षेत्र में मैं अपने पिता के प्रति बेहद ऋणी हूँ। 

जो लोग उनको जानते हैं उनको पता होगा वो कभी भी किसी बात को सीधे तरीक़े से नहीं कहते थे। चाहे वह रचना के क्षेत्र में हो या फिर अभिनय के क्षेत्र में। सोचने पर मजबूर करते। विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से, घुमा फिराकर भटकने पर मजबूर करते ताकि वह सटीक सोच सके सही रूप से अभिनय कर सके। जिसे काम करने की इच्छा होती, वह सोच-समझकर अपना सही रास्ता ढूँढ़ निकालता और आगे बढ़ जाता। यही काम उन्होंने इन दोनों रचनाओं के क्षेत्र में और निर्देशन के क्षेत्र में किया—अपने बहुमूल्य समय को नष्ट करके बारंबार मदद की है। उस समय इसका मूल उद्देश्य समझ न पाने के कारण मुझे सब असह्य लगता था। स्वाभाविक रूप से कभी-कभी अभिमान भी होता, सीधे तरीक़े से कह क्यों नहीं देते। बाद में उनके प्रति इन सब के लिए कृतज्ञता से भर उठती हूँ। मन ही मन में उनके उद्देश्य में न जाने कितनी बार उनको प्रणाम करती हूँ। आज भी करती हूँ। उनके अनुसार ये दो नाटक दो प्रकार के हैं। इन दोनों की तुलना नहीं हो सकती है। करना अर्थहीन है। आज जब इन नाटकों के बारे में लिखने बैठी हूँ, प्रस्तुति के वे दिन आँखों के सामने जीवंत हो उठे हैं। 

क्रमशः अभिनय करते हुए मुझे अनुभव हुआ—इन दोनों नाटकों के कथक दो भिन्न मानव हैं। उनका चरित्र भी पृथक है। उनके ज्ञान का स्तर भी अलग है। उनकी भावनाएँ और दृष्टिभंगी भी एक जैसी नहीं है। एक ही कथक ये दो कथाओं को नहीं कहते। आरंभ में मुझे यह बात समझ में नहीं आई। 

रचना करते समय स्पष्टतः सब कुछ समझ में नहीं आता है। जिनके साथ ऐसा घटित हुआ है वो मेरे उस समय की असहाय अवस्था को अवश्य समझेंगें। विशेषतः तब जब ख़ुद को ही लिखना होता है, निर्माण करना होता है और अभिनय भी स्वयं को ही करना होता है। 

क्रमशः ‘कथा अमृतसमान’ का कथक मेरे सामने स्पष्ट हुआ। मुझे लगा यह कथक इससे पूर्व के कथक से अधिक परिपक्व है। जीवन को इसने बड़े क़रीब से और बड़ी गहराई से अनुभव किया है। वह युद्ध का, हत्या का, अस्त्र निर्माण का प्रतिवाद करता है। अनैतिक षड्यंत्रों का विरोध करता है। उसे अमानविय और अन्याय आचरण असह्य हैं। कायरता से उसे घृणा है। 

और जब मानव परिस्थिति का शिकार होता है, जिसे हम स्थिति जन्य विवशता (Situational compulsion) कहते हैं—और जब उसी के लिए वह काम करने के लिए बाध्य होता है, तब उन लोगों के लिए उसके मन में असीम करुणा जागृत होती है। वह एक ऐसी निर्मल, ग्लानिमुक्त पृथ्वी के लिए प्रार्थना करता है—जहाँ हम न सही—हमारे संतानसंतति किंचित निश्चिंत होकर जीवित रह सकें। 

इससे पूर्व मित्र-घोष प्रकाशन ने मेरे अनेक निबंध, कहानियों की पुस्तकों को प्रकाशित किया है। इस बार भी उन्होंने मेरी दोनों नाटकों की पुस्तकों को आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया। विख्यात संवादिक और साहित्यकार गौरीकिशोर घोष ने इन दोनों नाटक की प्रस्तावना लिखी। उनको शत शत नमन। 

अगर पाठक वर्ग इस पुस्तक को पसंद करें, या यह पुस्तक संग्रहणीय लगे तो मेरा श्रम सार्थक होगा। मैं चिरकृतज्ञ रहूँगी। 

नमस्कार—
शांओली मित्र 
फरवरी, 2012

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