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मैं क्यों लिखती हूँ?

सृजन-प्रक्रिया का सम्बन्ध अंतःचेतना से है। इसे जानने के लिए अपने अंतर में उतरने की ज़रूरत है। उन क्षणों एवं परिस्थितयों को स्मरण करने तथा बारीक़ियों को पकड़ने की आवश्यकता है, जिसके दौरान मेरी रचनाओं का जन्म हुआ है और हो रहा है। 

मेरे सृजन का क्षेत्र कथा-लेखन रहा है। मुख्य रूप से मैंने कहानी, लेख, बाल कथा, बाल नाटक आदि की रचनाएँ की है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा लेखन प्रतिशोधात्मक है—शोषण, अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए मैं लिख रही हूँ। हालाँकि बाद में जैसे-जैसे स्थिति बदलती गई और मेरा अनुभव विस्तृत होता गया, वैसे-वैसे मेरे लेखन का स्वर भी परिवर्तित होता गया जिसमें केवल विरोध और विद्रोह का ही नहीं सृजन और निर्माण का भी समावेश हुआ। तब मैंने अनुभव किया कि मेरे जीवन के यथार्थ का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव ही मेरी सृजन-प्रक्रिया को परिचालित करती है। 

एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं नियमित कभी नहीं लिखती। क्योंकि मात्र लिखने के लिए मुझे लिखना नहीं आता है। स्थितियों, घटनाओं और पात्रों के द्वारा बाध्य किए जाने पर ही मैं लिखती हूँ। बिना भीतर से बाध्य हुए अगर कभी लिखने बैठी भी तो क़लम आगे बढ़ी ही नहीं। ज़बरदस्ती लिखने की कोशिश की तो मनमुताबिक रचना बनी नहीं। 

कभी-कभार एक साथ दो तीन रचनाओं के विषय मिल जाते हैं। पर एक बार में एक ही रचना पर क़लम चल सकती है। तब शेष विषय, स्थान, घटना, पात्र और समय के साथ कहीं नोट बनाकर रख लेती हूँ। जिन पर बाद में काम करती हूँ। पर मेरा अनुभव रहा है कि प्रबल आवेग के समय न लिखकर बाद में लिखने से वह बहुत अच्छी रचना नहीं होती है। उसमें वह पहले वाली ताज़गी और वह स्वाभाविक जीवंतता नहीं आती। पर मेरे साथ ऐसा बहुत कम हुआ। 

मेरी कहानी “एक कलाकार की मौत” शीर्षक कहानी की चर्चा करना चाहती हूँ। “एक कलाकार की मौत” कहानी मेरे मन में उस समय आई जब मुझे मेरे पिता की मृत्यु का समाचार मिला। उस समय घर में वृद्ध, अस्वस्थ सास-ससुर थे, बच्चे छोटे थे। घर पर मेरी उपस्थिति अति आवश्यक थी। सभी को देखभाल की ज़रूरत थी। मेरे पिताजी पढ़ने में रूची रखते थे। उस समय पिताजी के पास समय पर मेरा पहुँचना भी सम्भव नहीं था। अतः मैंने श्रद्धांजलि स्वरूप यह कहानी उनको अर्पण किया। परिवार वालों से छुपकर, अपनी मज़बूती दिखाती हुई, आँसुओं को पोंछती हुई कहानी लिखी। 

सृजन-प्रक्रिया के प्रथम स्वाभाविक आवेग के दौरान अगर कहानी की रचना होती है तो कहानी अधिक सशक्त बनती है। कहानी “समकालीन भारतीय साहित्य” में छपी। वर्ष याद नहीं है। विषय का तीव्र उफान ही कहानी की सफलता का राज़ है। 

कहानी “एक कलाकार की मौत” को पढ़कर प्रतिष्ठित साहित्यकार ज्ञानरंजन जी का बहुत आशीर्वाद मिला था। उनके लिखे पत्र को मैंने अपने कहानी संग्रह “किसे पुकारूँ?” के कवर  पर छापा है। यह मेरे लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

अपनी रचनात्मकता पर जब कभी भी सोचती हूँ तो सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो विषय को लेकर उठती है। नए विषय हम कहाँ से लाएँ? मुझे ऐसा लगता है विषय नए नहीं होते। विषय को प्रस्तुत करने का लेखकीय ढंग नया होता है। मानव समाज के अधिकांश विषय—अमीरी-ग़रीबी, सुख-दुख, जय-पराजय, अन्याय–विद्रोह, ईर्षा-द्वेष, प्रेम-हत्या आदि जब से दुनिया चल रही है तब से है और अनन्त काल तक रहेंगे। परन्तु हर काल के लेखकों ने इसे अपनी तरह से देखा, समझा और प्रस्तुत किया। मेरे विचार से प्रश्न नए विषय की खोज का नहीं है प्रस्तुतिकरण का है। 

मुझे जैसे ही कोई विषय मिलता है, मेरे अंदर रचनात्मकता की लहर उठती है। रचना की गठन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। विषय आकृति लेने लगता है। यह समय सापेक्ष है। अगर मन को जँचता नहीं है तो कुछ हद तक विषय परिवर्तन तक की नौबत आ जाती है। 

जिन दिनों “अम्मा” कहानी की लेखन प्रक्रिया चल रही थी उन दिनों पूरा शहर बाढ़ की चपेट में था। लोग बेघर हो रहे थे। खाने, पीने और रहने के अभाव के कारण लोग मर रहे थे। बाहरी कष्ट और वेदना से मन में छटपटाहट सी होने लगी थी। कहीं मन नहीं लगता था। इतने में कहानी का पात्र, अम्मा का बेटा अपनी परेशानियों के साथ मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ। भीतर बनती कहानी को काग़ज़ पर लाना है अब। जैसे मैं ही भुगत रही हूँ। लगता है अम्मा की परेशानियाँ मेरी बन गईं। “मुखौटा” कहानी के वक़्त तो मुझे हर समय ऐसा लगता जैसे श्यामा के साथ होती हर परेशानी मेरी अपनी है; मैं ख़ुद एक दायरे में जीने के लिए मजबूर कर दी गई हूँ। 

“विग्रहाश्रय” की मणीमा की तकलीफ़ मेरे सामने घट रही है। मैं उनके साथ हूँ। उनकी संसारिक तकलीफ़ों को मैं भी झेल रही हूँ। मणीमा के आँसू मेरे आँसू बन गए और बहने लगे। उनका आघात तन और मन दोनों स्तर पर महसूस करती रही हूँ। और इस स्थिति में अधिकांश स्तर पर मेरी रचनाएँ काग़ज़ पर उतरी। 

मैं लिखती इसलिए भी रही कि विचार पक्ष मेरा काफ़ी सशक्त रहा। विचारों के माध्यम से ही मैं अपनी कहानियों, रचनाओं में प्राण फूँकती हूँ। उन्हें उद्देश्य पूर्ण बनाने की कोशिश करती हूँ। विचार ही कहानियों को वैशिष्टय प्रदान करते हैं। उन्हें गरिमा और ओज से पूर्ण बनाते हैं। वैचारिकता से पूर्ण रचनाओं से ही पाठक वर्ग में जागरूकता पनपती है और वे प्रशिक्षित होते हैं। अगर स्पष्ट रूप से कहूँ तो विचार ही रचनात्मकता का मेरूदंड है। विचारों के माध्यम से ही रचनाएँ सशक्त होती हैं। 

विचार भी मन में दो प्रकार से आते हैं। पहला तो पठन-मनन के माध्यम से और दूसरा अनुभव के माध्यम से। मेरे लेखन में अनुभव प्राप्त विचार ही सृजन में अधिक महत्त्व रखते हैं। साहित्य का उद्देश्य किसी बनी बनाई विचारधारा का प्रचार मात्र नहीं होता है। विषयानुसार नए-नए विचार प्रस्तुत करना भी होता है। 

लेखन में मेरी कोशिश यह रहती है कि मेरे अनुभव को मेरे पाठक अंतर्मन से आत्मसात कर सकें। इसे मैंने बड़ी शिद्दत से अनुभव किया। ‘हँस’ में प्रकाशित मेरी कहानी “तुम कितने दूर हो” कहानी को पढ़ कर गोवा के एक जेल से एक क़ैदी ने कहानी पर अपना प्रतिक्रिया भरा पत्र लिखा “इस कहानी के साथ-साथ मैंने भी एक यात्रा की। मेरी यह यात्रा बहुत सुखद रही।” अपनी प्रारंभिक लेखकीय यात्रा में मिला यह बहुत बड़ा पुरस्कार था। इस क़ैदी के द्वारा लिखे अनुभव भरे पत्र आज भी मैंने सँजोकर रखे हैं। इस कहानी पर आदरणीय राजेन्द्र यादव जी की प्रतिक्रिया ने भी मुझे प्रोत्साहित किया। समय-समय पर उनके मार्ग दर्शन के कारण मेरे लेखन में काफ़ी सुधार आया। 

2000 में पहला कहानी संग्रह “किसे पुकारूँ?” प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को न केवल हिन्दी साहित्य अकादमी, गुजरात द्वारा पुरस्कृत किया गया अपितु ‘केन्द्रीय हिन्दी निर्देशालय’ द्वारा अहिन्दी भाषी लेखकों की हिन्दी कृति के अंतर्गत तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी के हाथों पचास हज़ार रुपये की धन राशि, शाल, प्रशस्ति पत्र द्वारा मुझे सम्मानित किया गया। 

इसके बाद 2001 में दूसरा कहानी संग्रह ‘मोड़ पर’ प्रकाशित हुआ। यह भी पुरस्कृत हुआ। 2004 में तीसरा कहानी संग्रह ‘अबके बिछड़े ना मिले’ के साथ-साथ कहानियों में एक अलग मोड़ आ जाता है। नारी मन के विविध आयामों के साथ-साथ इन कहानियों में समाज में आ रहे बदलाव की कहानियाँ हैं, वह बदलाव जो आ रहा है और वह भी जो आना चाहिए, जो अपेक्षित है इन विषयों पर भी मैंने दृष्टि डाली है। चौथा कहानी संग्रह ‘बाहर वाला चेहरा’ इसकी अधिकांश कहानियाँ अधिकारों के लिए संघर्ष करती नारियों की कथा है। 2001 में ‘नारी चेतना’ शीर्षक से एक आलोचनात्मक पुस्तक भी प्रकाशित हुई। 

इसके साथ-साथ समय समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख कहानियाँ भी हैं। 

छह मौलिक पुस्तकों के साथ-साथ चार अनूदित पुस्तकें भी हैं। इसमें बाँग्ला, गुजराती कहानियों का हिन्दी अनुवाद के साथ “विख्यात नाट्य व्यक्तित्व लेखक, निर्देशक, अभिनेता ग़ज़ल गुरु विशेषण” से जाने जाते आदरणीय चीनु मोदी जी के दो नाटकों का अनुवाद भी है। महाभारत के विषय पर आधारित नाटक “स्वप्न-दुस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” जो कि 2017 में प्रकाशित हुआ। इसके साथ “बाणभट्ट आख्यान” का भी हिन्दी में अनुवाद किया। “सुरभि” बाँग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद संग्रह है। जिसमें रवीन्द्रनाथ से लेकर अभी तक काल के लेखक की कहानियों का हिन्दी अनुवाद है। ”महक” गुजराती कहानियों का हिन्दी अनुवाद संग्रह है। जिसमें धूमकेतु से लेकर किरीट दूधात तक के लेखकों की कहानियों का संग्रह है। 

अक़्सर पाठक मेरी अब तक की लेखन-यात्रा को “सोनार बाँग्ला से गरवी गुजरात तक की यात्रा” के नाम से पुकारते हैं। लेखन तो जल का बहाव है यह बह रहा  है; जब तक क़लम हाथ में है, बहता रहेगा। 

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