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नारीमनस्तत्व का सार्थक सिनेमा—स्वामी

भारतीय साहित्य, समाज और संस्कृति की बात करता है और समाज वही है जिसमें संवाद है। भारतीय साहित्य लगातार अपने पाठकवर्ग से संवाद करता रहता है और अपनी परंपरा और संस्कृति को बचाए रखता है। सजल, सरल प्राणवंत साहित्य में ही देश-काल और ऐतिहासिकता जीवित रहती है। साहित्य में कुछ ऐसे विरल व्यक्तित्व हैं जिनकी लेखनी हमें मानवता, सहृदयता और जीवन पथ में आने वाले अनेक घटनाओं, पात्रों, परिवेश से हमारा परिचय कराते हैं जो हमारे लिए प्रेरणा स्वरूप बनते हैं। कृति के पात्रों को हम अपने चारों ओर चलते-फिरते घूमते अपने चरित्रों को निभाते हुए पाते हैं, अपने प्रभावशाली पात्रों को समाज में एक विशिष्ट अंदाज़ में प्रस्तुत करने वाले लेखक हैं—शरदचंद्र चट्टोपाध्याय। शरतचन्द्र बाँग्ला के उन श्रेष्ठ साहित्यकारों में से है जिन्होंने बाँग्ला साहित्य की धारा को एक नई दिशा दी। बाँग्ला साहित्य में जितनी जल्दी शरतचन्द्र को प्रसिद्धि मिली उतनी जल्दी शायद ही किसी साहित्यकार को मिली हो। 

आजीवन लेखनी के साथ उनका रक्त का सम्बन्ध रहा। उन्होंने अपने साहित्य में नारी के हर रूप को प्राथमिकता दी। समाज के निम्नवर्ग की नारी को उन्होंने लेखनी के माध्यम से सम्मान दिया और तत्कालीन समाजिक मूल्यों के समक्ष प्रश्न चिह्न बनाए। यथार्थवाद उन रचना का मूलमंत्र रहा। तत्कालीन बाँग्ला साहित्य में यह एक नई चीज़ थी। उन्होंने अपने लोकप्रिय उपन्यास कहानियों में सामाजिक रूढ़ियों पर आक्षेप लगाए। शरतचन्द्र की रचनाओं में मध्यवर्गीय समाज का यथार्थ चित्रण मिलता है। पल्ली समाज उभरकर आया है। 

उन्नीसवीं सदी में भारतीय नवजागरण ने सामाजिक महत्त्व के कई प्रश्नों को उठाया था जिनमें स्री-शिक्षा और उनके जीवन और अधिकारों से जुड़े कई प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम के रूप में हमारे समक्ष रहे। शरत ने नारी जीवन और उनके अधिकारों को लेकर सबसे पहले मुखरता दिखाई। उन्होंने नारी मुक्ति की परिकल्पना को विस्तृत रूप प्रदान किया। शरतचन्द्र की लोकप्रियता उनकी कलात्मक रचना और नपे तुले शब्दों या जीवन से ओतप्रोत घटनाओं के कारण नहीं था बल्कि अपने उपन्यास में नारी जिस प्रकार परंपरागत बंधनों से छटपटाती नज़र आती है, जिस प्रकार पुरुष और नारी के सम्बन्ध को एक नया आधार पर स्थापित करने के लिए पक्ष प्रस्तुत किया गया है उसी से शरतचन्द्र को लोकप्रियता मिली। 

शरत साहित्य में हृदय के सारे तत्व होने पर भी उसमें समाज के संघर्ष, शोषण का भी थोड़ा बहुत प्रभाव मिलता है। तत्कालीन पल्ली-समाज का चित्र झलकता है। “महेश” आदि कहानियों में शोषण का प्रश्न उभरकर आता है। शरतचन्द्र के की कई उपन्यासों के आधार पर हिन्दी फ़िल्में भी बनी। उनके उपन्यास “चरित्रहीन” को आधार बनाकर 1974 में इसी नाम से फ़िल्म बनी। उसके बाद “देवदास” उपन्यास को आधार बनाकर इसी नाम से तीन बार फ़िल्म “देवदास” बन चुकी है। फ़िल्म “परिणीता” भी दो बार बनी। “बड़ी दीदी” और “मँझली बहन” पर भी फ़िल्में बनायी गयीं। 

शरतचन्द्र पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर और बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की लेखनी का गहरा असर पड़ा। क़रीब 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने “बासा” (घर) नामक एक उपन्यास लिखा लेकिन वह उपन्यास प्रकाशित नहीं हुआ। शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे परन्तु आर्थिक तंगी के कारण इस क्षेत्र आगे नहीं बढ़ सके। रोज़गार की तलाश में शरत वर्मा गए और वहाँ लोक निर्माण विभाग में क्लार्क के रूप में काम किया। कुछ समय के पश्चात कोलकाता लौटकर गंभीरता से लेखन कार्य में जुट गए। 

शरतचन्द्र की कहानियों में प्रेम एवं स्री पुरुष सम्बन्ध का सशक्त चित्रण हुआ है। शरतचन्द्र प्रेम के कुशल चितेरे थे। इनकी कुछ कहानियाँ कला की दृष्टि से बहुत मार्मिक हैं। ये कहानियाँ शरत के हृदय की संपूर्ण भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास, अपने बचपन के संस्मरण और अपने संपर्क में आने वाले मित्र व अन्य जन के जीवन से उठाए हैं। 

शरतचन्द्र के मन में नारियों के प्रति सम्मान की भावना थी। वे नारी हृदय के सच्चे पारखी थे। उनकी रचनाओं में नारी का रहस्यमय चरित्र, उसकी कोमल भावनाओं, दमित इच्छाओं, अपूर्ण आशाओं, अतृप्त आकांक्षाओं, उनके छोटे-छोटे सपने, छोटी–बड़ी मन की उलझनें और महत्त्वाकांक्षाओं का जैसा सूक्ष्म सच्चा मनोवैज्ञानिक चित्रण विश्लेषण हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है। 

“स्वामी” नामक कहानी में शरतचन्द्र ने अपनी पूरी दक्षता के साथ नारी मन के कमोबेश सभी भावों को चित्रित किया है। कथा की नायिका “सौदामिनी” में शरत ने नारी के सभी गुणों को दर्शाया है। पूरी कथा स्वगोक्ति में है। अपने कमरे में अपने सुहाग के सेज पर बैठकर, जहाँ पति के प्रति प्रेम भाव न रखने के कारण वह पहले नहीं बैठी थी, वहीं बैठकर अपने बीते जीवन के उतार-चढ़ाव, आशा-निराशा, ख़ुशी और दर्द को पाठकों के साथ सौदामिनी बाँटती है। प्यार, स्नेह, मान-मनुहार, विरोध और अवरोध सभी भाव इसमें शामिल है। सौदामिनी कभी मिनी बन जाती है और कभी सदु। अपने पति की मृत्यु के पश्चात सौदामिनी को लेकर उसकी माँ अपने भाई के घर आ जाती है और वहाँ मामा के लाड़ प्यार और देख-रेख में मिनी बड़ी होने लगती है। जो छोटी-छोटी घटनाएँ मिनी को घेरकर घटने लगती हैं उससे कथा को गति मिलती है। 

विख्यात निर्देशक बासु चटर्जी ने शरतचन्द्र की इस कथा पर फ़िल्म 1977 में बनाई। इसकी पटकथा को हिन्दी जगत की विख्यात लेखिका मन्नू भंडारी जी ने लिखी। एक कुशल निर्देशक के रूप में बासु चटर्जी जी ने “स्वामी” के फ़िल्मांकन में जान डाल दी। सौदामिनी की स्वगोक्ति से ही फ़िल्म का आरंभ होता है। शरतचन्द्र तथा बासु चटर्जी दोनों ने ही मिनी को कथावाचक के रूप में दर्शाया है जिससे कि उसकी मनस्थिति को सटीक चित्रित किया जा सके। दोनों ही इस मामले में सफल हुए हैं। मामा के किरदार को उत्पल दत्त ने निभाया है जिन्होंने एक स्नेही और दायित्वशील व्यक्ति के किरदार को बख़ूबी उभारा है। विधवा बहन से और उसकी बेटी से अथाह स्नेह रखते हैं मामा। मिनी के दोस्त, सलाहकार और सहयोगी हैं मामा। मामा पढ़ने के शौक़ीन हैं। स्वयं तो पढ़ते ही हैं मिनी को पढ़ने-लिखने का चस्का लगा दिया है। मिनी पढ़-लिखकर ग्रेजुएट बन गई है, अँग्रेज़ी कहानी उपन्यासों की शौक़ीन है। मामा के साथ बैठकर अँग्रेज़ी उपन्यासों पर चर्चा भी करती है और ऐसे में उनके साथ होता है नरेन, गाँव के ज़मींदार का इकलौता बेटा। जिसका घर में आना, मिनी का उसके साथ बहसबाज़ी करना हँसी-ठट्ठा करना माँ को फूटे आँख नहीं सुहाता है। 

माँ इस बात को भली भाँति जानती है कि ज़मीनदार का बेटा नरेश के परिवार की कोई बराबरी उनके साथ नहीं है। इस बात को मिनी भी जानती है क्योंकि माँ के साथ ज़मींदार के घर वो बहुत बार जा चुकी है। बासु चटर्जी ने यहाँ पर ज़मींदार के महल का एक भव्य वातावरण प्रस्तुत किया है। बचपन में जब माँ के साथ ज़मींदार बाड़ी जाती थी तब वहाँ के क़ीमती असबाब, गहनों से लदी-सजी सँवरी नरेन की माँ के समक्ष सौदामिनी को अपना सब कुछ फीका-फीका लगता था। माँ का पूरा समय पूजा पाठ में बीतता था जबकि मामा पूरे नास्तिक थे और बहन के इस पूजा-पाठ को लेकर अक़्सर हँसी-ठट्ठा करते थे। इन मौक़ों पर उत्पल दत्त जी का हो हो कर हँसने की कला की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। 

शबाना आज़मी ने भी सौदामिनी के चरित्र में जान डाल दी है। एक सुन्दर, नटखट, अल्हड़ पर सौम्य युवती के चरित्र में उसने अपने आप को बख़ूबी ढाल दिया है। अपने विचारों को स्वतन्त्र रूप से धड़ल्ले के साथ नरेन से बहस करती है, नरेन्द्र जो कि कोलकाता में पढ़ाई करता था और मामा को कोलकाता से उनकी पसंदीदा पुस्तकें लाकर देता था, उसके और मामा के समक्ष रखने वाली तार्किक अदा में मिनी का कोई जोड़ नहीं। किसी भी विषय पर अपने तरीक़े से तर्क करके सामने वाले को आसानी से मात दे देती थी। विवाह के पश्चात के अनैतिक संबंधों के बारे में वह अपना तर्क नरेन के समक्ष रखती है। नरेन्द्र का कहना था कि अगर पुरुष अपनी सीमाएँ लाँघ सकता है तो नारी क्यों नहीं? तब सलज्ज नयनों को झुका कर मिनी जवाब देती है, “संसार धर्म निभाने के लिए किसी का भी अपनी सीमा का उल्लंघन करना उचित नहीं है।” शरत ने अपने गाँव में औरतों की दुर्दशा को देखा था। माँ की दुर्दशा को देखा था। उन पर राजा राम मोहन राय और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के विचारों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। नारी का शिक्षित होना परिवार और समाज के लिए अति आवश्यक है, यह उन्होंने समझ लिया था। सही और अर्थपूर्ण विचार और समझ के लिए शिक्षित होना आवश्यक है। शायद इसलिए सौदामिनी को उन्होंने एक शिक्षित युवती के रूप में उभारा था। 

यह शरतचन्द्र के क़लम का ही कमाल है कि उस ज़माने में, घर में विवाह योग्य लड़की के रहते हुए, बाहर का नौजवान बेधड़क घर के अंदर आकर बैठ जाता है और सभी के साथ बतियाने लगता है। शरतचन्द्र ने गाँव की लड़कियों को मन मारकर घर में बैठे रहते हुए देखा था। बाहर निकलने की इजाज़त भी नहीं थी। ऐसे में स्वाधीनता, स्वच्छंदतावाद और उन्मुक्त मानसिकता से ओत-प्रोत मिनी शरत के कल्पनालोक की बाला ही लगती है। 

शरत ने सौदामिनी के मन में नरेश के प्रति आसक्ति का माध्यम, उस बहते हुए नाले के उस पार के बकुल के पेड़ के नीचे बीछे बकुल के फूलों को बनाया। माँ के मना करने पर भी, जिसे बीनकर आँचल में भर लाने के लिए, मिनी गहराते बादलों को अनदेखा करके उस पार दौड़ गई थी। अचानक बादल बरस पड़ते हैं और मिनी बरसात से स्वयं को बचाने के लिए पास बने एक छज्जे के नीचे दौड़ जाती है। टपकती बूँदों का आनंद उठा रही थी कि नरेन वहाँ आ टपकता है। 

बासु चटर्जी ने दोनों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण को बड़ी दक्षता से फ़िल्माया है। लजाती, बालों को झटकती, चंचल नेत्रों से देखती, चेहरे पर एक बाल सुलभ मुस्कान चढ़ाए बड़ी ही कलात्मकता से मिनी के चरित्र को शबाना आज़मी ने निभाया है। नाले को पार कर घर जाती मिनी की आना-कानी करने का अंदाज़ भी बड़ा सहज सरल लगता है। नाले को पार करते नरेन का मिनी को दोनों हाथों से उठा लेना है और इस मुठभेड़ का फ़ायदा उठाते नरेन का मिनी के चेहरे पर चुम्बन जड़ देना स्वाभाविक ही लगता है। उस समय की समाज व्यवस्था को देखते हुए यह साहस केवल शरत ही कर सकते हैं। मिनी के मन में प्यार के बीज को रोपकर शरत ने उसकी छटपटाहट को और बढ़ा दी। अक़्सर वो नरेन के ख़्यालों में गुम रहने लगी। 

विवाह योग्य बेटी को देख देख माँ की चिंता भी बढ़ती जा रही थी। बेटी के लिए योग्य वर की तलाश के लिए भाई से अनुनय-विनय करने लगी। ऐसे में मिनी के लिए एक रिश्ता आता है और मामा को लड़का देखने जाना पड़ता है। बासु भट्टाचार्य की मिनी को मामा पर पूरा विश्वास था कि मामा उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेंगे। जहाँ माँ चाहेगी वहाँ उसके विवाह की बात तय नहीं होने देंगे। परन्तु शरत की मिनी को मामा पर इतना भरोसा नहीं था। मिनी नरेन के प्रेम में डूबी हुई थी। वह नरेन की दी साड़ी को पहनकर स्वयं को नरेन की दुलहन के रूप में कल्पना करती रहती थी अतः मामा जिस दूल्हे को देखने जाने वाले थे उसके प्रति उसकी कोई रुचि नहीं थी। हँसी-मज़ाक करते हुए मामा रवाना हो गए। इस परिस्थिति में उत्पल दत्त की अदाकारी देखते ही बनती है। एक तरफ़ दीदी को आश्वासन देते रहते हैं और दूसरी ओर मिनी का स्वयं पर के भरोसे को भी क़ायम रखतें हैं। 

बासु चटर्जी ने मिनी के दुर्भर प्रेम को बड़ी कलात्मकता से फ़िल्माया है। अनमनी होकर खिड़की के पलड़े को पकड़ कर मुस्कुराते रहना, रसोईघर में माँ का हाथ बँटाते हुए भी बैठक में मामा और नरेन की बातों में कान को लगाए रखना, चाय के लिए मामा के हाँक लगाते ही बड़ी तत्परता से चाय लेकर जाना, छत पर जाकर इशारे करना आदि आदि के माध्यम से नरेन के प्रति उसका प्रेम झलकता है। 

मामा के मधुपुर चले जाते ही मिनी नाले के उस पार बकुलतला चली जाती है। उसके आशा विपरीत उसे वहाँ नरेन मिल जाता है जो मिनी के प्रति अपने प्यार को दर्शाता है और वादा करता है की अमीरी-ग़रीबी का जो डर मिनी के मन में बैठा हुआ है उसे अपने मिलन में वह इसे आड़े नहीं आने देगा। मिनी के मन में नरेन की बातें घर कर जाती हैं और भोले मन से वह उसकी बातों को मान लेती है। 

इधर मामा को घनश्याम बहुत पसंद आता हैं। घनश्याम का भोलापन, निश्छल व्यवहार, आंतरिकता, घर के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना, बड़ों के प्रति सम्मान की भावना से मामा अत्यंत प्रभावित होते हैं और मिनी के लिए घनश्याम ही उपयुक्त पात्र है ऐसा निर्णय कर लेते हैं। पर दुर्भाग्यवश घर लौटते वक़्त दिल का दौरा पड़ने के कारण अस्वस्थ होकर घर लौटते हैं पर अपनी बहन को अपने दिल की बात कह देते हैं कि घनश्याम ही मिनी के लिए योग्य वर है। मिनी को बुलाकर उसे समझाते हुए कहते हैं कि तेरे मन की बात को मैं समझ सकता हूँ। नरेन प्यार कर सकता है पर घनश्याम निभाएगा और तुझे सुखी रखेगा। मिनी अवाक्‌ रह जाती है और मामा चल बसते हैं। कुछ दिन तक परिवार में शोक का वातावरण छाया रहता है। माँ अकेली हो जाती है। बेटी के शादी की चिंता में माँ परेशान हो जाती है। फिर चिंतातुर माँ भाई के मौत के शोक से उबरकर कमर कसकर बेटी की शादी का मन बना लेती है। 

भाई की सहमति का सम्मान करते हुए मिनी की माँ शादी की तैयारी बड़े ज़ोर-शोर से शुरू कर देती है। बारात के दरवाज़े पर पहुँचते तक मिनी नरेन की राह देखती रहती है कि अभी नरेन आएगा और उसे अपने साथ लेकर जाएगा। पर व्यर्थ मिनी घनश्याम की दुलहन बनकर उसके साथ ससुराल पहुँच जाती है। जहाँ घनश्याम अपनी सौतेली माँ, एक छोटी बहन एक शादी-शुदा सौतेले भाई के साथ रहता है। इन सभी का और पूरे परिवार का भार एक अकेला घनश्याम के कंधों पर ही था जिसे वह अपने स्वभावानुसार हँसते हुए उठाता रहता है। नौकरी करने वाला भाई अपनी पूरी तनख़्वाह अपने पर ही ख़र्च करता है। परिवार का पूरा बोझ घनश्याम ही उठाता है। 

शरदचन्द्र ने घनश्याम के परिवार में बहन को अपनी रचना में विधवा बताया है। शरत संयुक्त परिवार में बड़े हुए थे। परिवार में विधवा बहनें थीं। कुछ उनकी अपनी और कुछ चचेरी ममेरी विधवा बहनें थीं। बंगाल के विधवाओं के जीवन का करुण चित्र उनके सभी उपन्यासों में कमोबेश दिखता है। उन सभी के जीवन को, दुःख को शरत ने बहुत क़रीब से देखा था। अपने उपन्यासों और कहानियों में विधवाओं के जीवन का चित्रण बहुत बारीक़ी से किया है। परन्तु वासु चटर्जी ने घनश्याम की बहन को अविवाहित बताकर उसके द्वारा कुछेक हास्यास्पद घटनाओं के माध्यम से फ़िल्म में जगह-जगह हास्य बिखेरा है। रूपा गांगुली ने इस पात्र को बख़ूबी निभाया है। हर चीज़ के लिए बच्चों की तरह मचलना, लड़के वालों का उसको देखने आने पर और उनका गाना सुनाने के लिए कहने पर बड़े फूहड़ ढंग से “क्या करूँ सजनी आए न बालम” गाना, जैसे अंशों को बड़े सुन्दर ढंग से फ़िल्माया है। इस सीन में रूपा गांगुली की अभिनय कला उभरकर आई है। 

मिनी अपने सुहागरात के दिन अपने कमरे में ज़मीन पर चटाई बिछा सोती है। और घनश्याम के पूछने पर, “मुझे ऐसे सोना अच्छा लगता है” कहकर मुँह फेरे सोए रहती है। एक नौकरानी के माध्यम से ससुराल में उसका ज़मीन पर सोना सबको पता चल जाता है पर इससे उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। यहीं से ससुराल वालों के साथ मिनी की जंग शुरू होती है। दहेज़ को लेकर सास का ताना, “दहेज़ में तो इतना कुछ दिया भी नहीं” उसके मन को कचोटते रहते हैं। स्वभाव से घनश्याम बहुत ही सुशील, भद्र और कोमल होने के कारण उसकी भलमानसी का फ़ायदा पूरा परिवार उठाता हैं और परिवार का पूरा भार उठाने पर भी, सारा दिन व्यवसाय में व्यस्त रहने पर भी अक़्सर घरवाले उसका कोई ध्यान नहीं रखते हैं। इस बात को मिनी बहुत जल्दी ही समझ गई थी। निखिल के ऑफ़िस से लौटने पर नौकर-चाकर से लेकर परिवार के सभी लोग उसकी तीमारदारी में लग जाते हैं जबकि घनश्याम के काम पर से लौटने पर हाथ-मुँह धोने के लिए एक लोटा पानी के लिए इंतज़ार करता रहता है। हाँक पुकार करने पर भी सब अपनी अपनी व्यस्तता जताते हुए मुकर जाते हैं। सौदामिनी के मन में अब भी नरेन बसा हुआ था इसलिए घनश्याम को परेशान देखने पर भी उस पर कोई असर नहीं होता। घनश्याम को पानी के लिए नौकर का इंतज़ार करते देख, भोजन करते बैठने पर दाल-चावल से ही खाना खाते हुए देखती रहती है पर आगे बढ़कर उसकी मदद करने की इच्छा उसकी नहीं होती है। ऐसे में देवरानी उसे अपना वैभव दिखाने अपने कमरे में ले जाती है और अपना और अपने पति के प्रगाढ़ सम्बन्धों की ओर भी इशारा करती है। देवरानी का इशारा उसके पति से अलग ज़मीन पर सोने को लेकर ही था जिसे समझकर मिनी कमरे से निकल आती है। 

पर घनश्याम के अंतरंग स्वभाव और आत्मीय व्यवहार के कारण घनश्याम मिनी के दिल मेंं धीरे-धीरे सेंध लगा रहा था। परिवार में सास का झुकाव केवल अपने जायों पर ही था। इसे मिनी समझ गई थी। परिवार में सास का यह अन्याय उसे खुली आँखों से दिख रहा था। सास का उसके गहनों के प्रति आकर्षण स्पष्ट था। सास के स्पष्ट रूप से “गहने मुझे दे दो मेरे पास रहेगा तो सुरक्षित रहेगा।” कहने पर भी मिनी गहने देने से मना कर देती है। उसके पुस्तक पढ़ने को लेकर भी हँसी-ठट्ठा के साथ-साथ व्यंग्यात्मक बातें भी सुनने को मिलने लगीं। इस प्रकार की छोटी-मोटी घटनाओं के माध्यम से परिवार के लोगों के आपसी सम्बन्ध खुलकर सामने आए। 

सुबह सबेरे घनश्याम को भूखे पेट निकलते देख मिनी ने उस दिन पहली बार प्रतिवाद किया, “उनके लिए कुछ तो बनाकर दिया जा सकता था।” 

“बनाकर क्यों नहीं दिया जा सकता है बहू, तो तुम्हीं बना देती, घनश्याम को भी तो पता चले कि उसकी बहू आई है, सिर्फ़ किताब पढ़ने से तो नहीं चलता।”

और इस तरह से अपने पति के प्रति चाह और उन पर अपने अधिकार की भावना मिनी के मन में धीरे-धीरे उपजने लगती है। उस दिन दोपहर का भोजन न करके एक तरह से अपनी दृढ़ मानसिकता, हठधर्मिता का डंका बजा दिया था उसने। और बात नमक-मिर्च के साथ घनश्याम तक पहुँच ही गई। 

शरत ने परिवार के इस माहौल को जस का तस प्रस्तुत किया है। सास-बहू के सम्बन्ध, देवरानी-जेठानी के नोक-झोक, सौतेलेपन का स्पष्ट चित्र, गाँव के लोगों की छींटाकशी आदि को आँखों-देखा हाल की तरह चित्रवत प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के माहौल को शरत चन्द्र ने जीया था ऐसे माहौल में शरत बड़े हुए थे। अत: उनके लेखन से ऐसे वातावरण जीवंत हो उठते हैं। घनश्याम रात को अकेले रसोईघर में भोजन की थाली लेकर ख़ाली बर्तन-भाँड़े को खंगालना, दो मुट्ठी खाकर ही उठ जाना, परिवार में निखिल के मित्र के आने के उपलक्ष्य में भोज की तैयारी में सब व्यस्त और घनश्याम भूखे पेट व्यवसाय के लिए निकल जाते हैं। इस तरह की घटनाओं में से मिनी गुज़र रही थी। वह सब देखती रहती कि निखिल के आने पर कैसे सब तटस्थ हो उसकी सेवा टहल में जुट जाते, भोजन की थाली के चारों ओर सब्ज़ियों से भरी कटोरियाँ सजी रहती, बहन पंखा झेलती हुई वातावरण को हल्का बनाए रखती थी जबकी परिवार में उसका योगदान नहींवत था। और दरवाज़े की ओट से झाँकती मिनी का मन तैयार हो रहा था। ऐसे में नरेन उसके देवर का दोस्त बनकर आ जाता है। 

अब तक मिनी के मन में पति के प्रति प्रेम का उदय नहीं होने पर भी, एक भले मानस को दिन-ब-दिन परिवार वालों द्वारा अवहेलित होते देख उसके मन में विद्रोह पनपने लगा था। ऐसे में मिनी पति के भोजन को लेकर सास से मतविरोध का माहौल बना बैठी। मन ही मन मिनी चाहती भी थी कि घनश्याम को इस बात का पता चले कि उसने उसके भोजन को लेकर सास से विरोध किया है और दोपहर का भोजन भी नहीं किया है। माँ की शिकायत समाप्त होने पर घनश्याम के कमरे में आने पर मिनी तिलमिला कर कहती है, “और क्या-क्या कहा माँ ने मेंरे खिलाफ।”

घनश्याम शांत स्वर में कहते हैं, “तुम तो पढ़ी-लिखी हो छोटी छोटी-बातों को लेकर विरोध करना अच्छा लगता है क्या?” 

मिनी बिफरकर कहती है, “यही बात तो आप अपनी माँ से कह सकते हैं।” 

संयमित स्वर से घनश्याम जवाब देते हैं, “जिस पर अपना सबसे ज़्यादा अधिकार हो उसी से कहा जा सकता है।” और उसे थामकर खाना खिलाने ले जाते हैं। 

शरत चन्द्र एक ऐसे साहित्यकार थे जो अपने नारी पात्रों के मन को इतनी गहराई से समझ सकते थे और शिद्दत से पढ़ सकते थे और उतनी ही कुशलता से उसे अभिव्यक्त भी कर सकते थे। सौदामिनी का धीरे-धीरे मानसिक परिवर्तन होना और घनश्याम के प्रति आकृष्ट होना इस तथ्य का परिचायक है। 

सौदामिनी बंगाली पात्र होते हुए भी देश भर की स्त्रियों के मन को स्पर्श कर सकती है। शरत के पात्र संवेदनशील हैं और बंगाल के समाज की बारीक़ियों को खोजते हुए नए आयाम के धरातल पर समूचे स्री जगत की बात करते हैं। मिनी के मन में जब पति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना अंकुरित होती है तब वह हर छोटी-छोटी बातों के लिए सास से और परिवार के अन्य सदस्यों से अपने पति के प्रति होनेवाले अन्याय के प्रति विद्रोह कर उठती है। घनश्याम से अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहती सारा दिन मेहनत करने के बाद भी परिवार वालों की जली-भुनी बातों से वह अपमानित नहीं महसूस करते हैं? घनश्याम उसे समझाते हुए कहता है अपनों के कहने पर मान-अपमान की भावना दुख नहीं देती और उसे भी इन छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठना चाहिए वो एक वैष्णव की पत्नी जो ठहरी। मिनी घनश्याम की उदारता से बहुत प्रभावित होती है। अपना दिल खोलकर कहती है क्या वो किसी के बड़े से बड़े गुनाह को भी माफ़ कर सकता है? घनश्याम के कहने पर कि अगर सच्चे दिल से माफ़ी माँगी जाय तो फिर गुनाह गुनाह नहीं रह जाता है। 

घनश्याम के प्रति मिनी के मन में प्रेम के अंकुर फूट रहे थे। घनश्याम भी मिनी के पसंद की गुलाबी साड़ी लेकर आता है। उसके पसंद से घनश्याम अनजान नहीं जानकर मिनी तृप्त होती है। घनश्याम की छोटी-मोटी ज़रूरतों पर भी ध्यान रखने लगती है। घनश्याम द्वारा पसंद के रंग की वाली गुलाबी साड़ी लाकर देने पर मिनी साड़ी लेने से मना करते हुए कहती है, “आप क्यों साड़ी लाए मेरे पास बहुत हैं।” इस पर घनश्याम के जवाब से मिनी बहुत प्रभावित होती है—“जिसे अपना सब कुछ दे दिया हो उसे कुछ और देकर ही तो सुख मिलता है” शब्दों को सुनकर उसमें एक बदलाव आने लगता है। साड़ी लाने पर माँ विरोध करती है कि हमारे घर में ऐसा रिवाज़ पहले नहीं था, घनश्याम कहता है, “आज से पहले सौदामिनी भी तो यहाँ नहीं थी।” घनश्याम के मन की बात सबके सामने आ जाती है मिनी का मन खिल उठता है।

बासु चटर्जी ने मिनी के बदलते मनोभाव को बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्माया है। नरेन की दी साड़ी पर हाथ पड़ते ही मिनी उस साड़ी को अलमारी के अंदर अलग से रख देती है और घनश्याम की दी गुलाबी साड़ी को खींच कर कंधे पर डाल लेती है। उसे अपने देवरानी की बात याद आती कि हमारे जेठ जी ठहरे संन्यासी आदमी अगर वो नहीं आते तो तुम ही पास चली जाना। पर होता तो उलटा ही है उसे पलंग पर सोते देख घनश्याम ज़मीन पर चटाई बिछाकर सो जाता है। मिनी की आँखें भर आती हैं। 

अगर सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो सौदामिनी एक क्रांतिकारी नायिका है। उस समय की समाज व्यवस्था को देखते हुए पति की उपेक्षा, ससुराल वालों की अवहेलना—उनसे असहयोग का वातावरण बनाए रखना आदि आदि विद्रोह की श्रेणी में ही आता है। मिनी उनकी मानस कन्या है। नारी का परिवार में मान-सम्मान का होना शरत की नज़र में महत्त्वपूर्ण था। सबसे बड़ी बात तो तब होती है जब नरेन उसके देवर का दोस्त बनकर उसके घर आता है। 

मिनी की सास अपने बेटी के ब्याह को लेकर परेशान रहती है इसलिए नरेन के अविवाहित होने की ख़बर से वो उत्साहित होकर मिनी के पास आ धमकती है और नरेन के साथ अपनी बेटी चारू के विवाह की बात चलाने को कहती है। मिनी इस बात को टालने की बहुत कोशिश करती है पर निष्फल होती है। 

भागलपुर में शरतचंद्र का ननिहाल था। नाना केदारनाथ गांगुली का आदमपुर में अपना मकान था और उनके परिवार की गिनती खाते-पीते संभ्रांत बंगाली परिवार के रूप में होती थी। पिता मोतीलाल बेफ़िक्र स्वभाव के थे और किसी नौकरी में टिक पाना उनके बस की बात नहीं थी। परिणाम स्वरूप पूरा परिवार ग़रीबी के गर्त में चला गया और उन्हें बाल-बच्चों के साथ ससुराल में आकर रहना पड़ा। इस कारण उनका बचपन भागलपुर में ही गुज़रा और पढ़ाई-लिखाई भी यहीं हुई। उन्होंने जीवन में वैभव के साथ ग़रीबी भी देखी थी। वे अपने मामा और हम उम्रों के साथ ख़ूब शरारत किया करते थे। इसको हम उनके उपन्यासों के प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, सत्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्रों में देखते हैं। अपने निजी अनुभवों को लिखने के कारण ये सभी पात्र स्वाभाविक भी लगते हैं। इन सभी का प्रभाव शरत की लेखनी पर पड़ा। नाना के घर के माहौल को उनकी अधिकांश रचनाओं में देखा जाता है। जिस प्रकार से संभ्रांत घर के ठाठ-बाठ, अदब-क़ायदा, रहन-सहन को उन्होंने अपने चरित्रों में उकेरा है यह सब उनके अपने अनुभव के कारण स्वाभाविक लगते हैं उसी प्रकार से ग़रीबी का करुण और दर्दनाक चित्रों को उकेरने में भी वे सिद्धहस्त हैं। 

मिनी और नरेन को छुपकर एक दूसरे से बात करते हुए चारू देख लेती है और घर में कोहराम मच जाता है। उसका रसोई में प्रवेश कर घनश्याम के लिए चाय बनाना गुनाह की श्रेणी में आ जाता है। उसे कुलटा कह कर उसका अपमान किया जाता है जिसका मिनी डटकर विरोध करती है। घनश्याम माँ से तर्क करने के कारण मिनी को माँ से माफ़ी माँगने के लिए कहता है। इससे मिनी बिफर जाती है और माफ़ी माँगने से मना कर देती है। स्वयं को निर्दोष बताते हुए माफ़ी माँगने से इंकार कर देती है। पर घनश्याम अड़ जाता है। मिनी को समझाता है कि माँ से माफ़ी माँगना उसका कर्त्तव्य है। घनश्याम को माँ की तरफ़दारी करते देख उसका मन टूट जाता है और माँ को मिनी के गहनों को रख लेने की बात करते सुनकर उसे बहुत दुःख होता है अपने सब गहनों को अलमारी से निकालकर फेंक देती है और अपना बक्सा तैयार कर घर छोड़़कर जाने का फ़ैसला कर लेती। अंत तक घनश्याम उसे समझाता रहता है उसे कर्त्तव्य याद दिलाता है पर मिनी ज़िद पर अड़ जाती कि वह अपना कर्त्तव्य जानती हैं। वो माफ़ी न माँगने की और वहाँ पर न रहने की घोषणा कर देती है। घनश्याम कहता है अगर वह नहीं रहना चाहती है तो जाने की व्यवस्था कर ले। इसे सुनकर वह स्तब्ध रह जाती है। उसकी बड़बड़ाहट उसके मन की वेदना को दर्शा रहे थे। उसे कोई नहीं चाहता, सब कहते हैं माँ से माफ़ी माँगो उनको कोई कुछ नहीं कहता जैसे शब्दों के साथ वह रो भी रही थी। अपना बक्सा तैयार करके उसी समय घर से निकल जाती है नरेन भी स्टेशन के लिए निकल रहा होता है तो वह भी उसके संग निकल जाती है। 

अंत बहुत ही अच्छा दिखाया है बासु चटर्जी जी ने। नरेन जब उसे ले जाकर कलकत्ते में रखने की बात करता है तब उसे अपनी परिस्थिति का आभास होता है कि उसने घर छोड़कर अच्छा नहीं किया। नरेन बड़े विश्वास के साथ कहता कि ससुराल में उसके लिए अब कोई जगह नहीं है। उसके पति अब उसे स्वीकार नहीं करेंगे। अतः उसके साथ जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। अचम्भित होकर मिनी पूछती है, “स्वीकार नहीं करेंगे?” अब तक तो मिनी घनश्याम के ख़्यालों में ही खोई हुई थी। नरेन से कहती है, “दया, क्षमा, सहनशीलता जो अब तक मेरे लिए सिर्फ़ किताबी शब्द थे आज इतने दिन तक अपने पति के संग रहकर इनका असली अर्थ जाना है।”

इतने में गाड़ी आ जाती है और इधर घनश्याम भी आ जाता हैं। मिनी को अपने घर ले चलने के लिए। “एक औरत का स्थान उसके स्वामी के घर के अलावा और कहीं नहीं है।” घनश्याम मिनी को समझाते हुए कहता है मैंने माँ को नरेन के बारे समझा दिया है। मुझे सब कुछ मालूम था। मामा जी ने मुझे सब बताया था।” और मिनी घनश्याम के साथ अपने घर चली जाती है। फ़िल्म के माध्यम से एक सुन्दर शुरूआत का संदेश देते हैं बासु चटर्जी। जबकि शरतचंद्र ने अपनी मिनी को नरेन के साथ कोलकाता शहर जाने दिया जहाँ अपने घर में नरेन उसे बंदी बना करके रखता है। पछतावे की आग में जलती मिनी खाना-पीना सब छोड़ देती है। वही नौकरानी जो नरेन को मिनी की सारी ख़बरें देती थी घनश्याम को नरेन के कुकर्म का संदेश देती है और घनश्याम को नरेन के घर पर लाकर खड़ा कर देती है। घनश्याम अपनी पत्नी का उद्धार करने उसे घर ले आता है। शरतचंद्र ने नरेन की दुर्बुद्धि को विस्तार से लिखा है और मिनी को भी पछताने का मौक़ा दिया है। नरेन और घनश्याम के वैचारिक भेद को शरतचंद्र स्पष्ट करते हैं। समाज में हर प्रकार के लोग रहते हैं पर हमें अपने विवेक के अनुसार जीवन बिताना है। 

शरतचंद्र की रचना हृदय को अधिक स्पर्श करती है। परन्तु इनकी रचना में हृदय के सारे तत्व होने पर भी उसमें समाज के संघर्ष, शोषण आदि पर कम प्रकाश पड़ता है। मानवीय संबधों को ही प्रधानता दी गई है। 

इस फ़िल्म के संगीतकार राजेश रोशन जी हैं और लिरिक अमित खन्ना जी का है। 

गायक हैं लता मंगेशकर, यसुदास, किशोर कुमार और आशा भोसले। फ़िल्म “स्वामी” को 1978 में अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया। फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड पुरस्कार की शृंखला में “स्वामी” फ़िल्म को— 

  1. “बेस्ट डाइरेक्शन” के लिए बासु चटर्जी जी को सम्मानित किया गया। 

  2. शबाना आज़मी जी को “बेस्ट एक्टिंग” के लिए सम्मानित किया गया और 

  3. बेस्ट कहानी का सम्मान शरतचंद्र जी को घोषित किया गया

  4. बासु चटर्जी और जया चक्रवर्ती को “नेशनल अवार्ड फ़ॉर बेस्ट पोपुलर फ़िल्म” से सम्मानित किया गया।

कथा और फ़िल्म के क्षेत्र में इन दो महान विभूतियों ने एक अमर कृति की रचना की। उनके इस योगदान के लिए समाज उनका चिरकृतज्ञ है। उनके इस योगदान को नमन। 

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टिप्पणियाँ

गोवर्धन यादव 2022/12/15 08:40 PM

प्रेरक। बहुत धन्यवाद।

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