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भाषा: मानवीय अस्मिता की परिचायक (गुजरात के परिप्रेक्ष्य में) 

भाषा मनुष्य के विचार विनिमय का साधन है तथा संप्रेषण व्यवस्था का अंग है। एक तरफ़ संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था है तो दूसरी ओर सोचने-विचारने का माध्यम, तीसरी ओर भाषा है साहित्यिक, साहित्यिक सर्जना का कलात्मक साधन। 

महादेवी वर्मा ने हिन्दी के प्रति अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कहा है, “किसी दूसरी भाषा को जानना सम्मान की बात है लेकिन दूसरी भाषा को राष्ट्रभाषा के बराबर का दर्जा देना शर्म की बात है।” 

डॉ. सीताकान्त महापात्र ने “शब्द और संस्कृति” के माध्यम से एक कविता में कहा है:

“मेरे शब्द में अनन्तकाल से मिली रहती है अनगिनत कामना। 
और दुख के तीव्र कोलाहल में मेरी भाषा में पड़ी रहती हैं 
 सभी छोटी आशाएँ और आकांक्षाएँ।”

यही सम्बन्ध है मनुष्य का अपनी भाषा से, जहाँ वह केवल शब्दों से जुड़कर अपने अस्तित्व को खोने नहीं देता है। निःसंदेह प्रत्येक भाषा-विज्ञानी जानते हैं कि प्रत्येक शब्द किसी भाषा के निर्माण और उसके विकास की प्रक्रिया में कितना महत्त्व रखता है। संसार की नई पुरानी समस्त भाषाओं और बोलियों का निर्माण इसी प्रकार हुआ है। यह सर्वविदित है कि अपने बाह्य रूप से अत्यंत तथ्यपरक अनुभूत होने वाला भाषा-विज्ञान, चेतना की गहराइयों में मानव अस्तित्व और उसके विचारों के विकसित एवं परिपक्व रूप की अन्तर्कथा कहता है। 

हर शब्द स्वयं में एक कथा है और जब वह किसी प्रयोग में लाया जाता है तब उसका भाव व्यक्ति विशेष के द्वारा किस रूप में किया जाता है उसका अर्थ अलग होता है, अतः तब शब्द की सत्ता सर्वप्रमुख होती है। उसकी चेतना की अपनी कथाएँ होती है। वास्तव में शब्दों की भावप्रवणता को जीवित रखते हुए हम अपनी उन चेतना को जीते हैं जिन्हें कभी हमारे पूर्वजों ने भी अनुभूत किया होगा। 

वैसे हम कह सकते हैं कि भाषा में होने वाले परिवर्तन भाषा-विकास का ही पर्याय हैं। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार, “सारे परिवर्तनों को विकास कहना चाहिए—आदित्यवार विकसित होकर इतवार बना और एकादश ग्यारह बना। विकास में अवनति का सवाल नहीं उठता है वह तो अश्वयंभाविता का परिचायक है।” हमें इस अश्वयंभाविता को समझना होगा। उदाहरण के लिए जैसे बिंदु से बूँद हो गया, कर्म से काम हो गया, उष्ट्र का ऊँट में बदल जाना स्वाभाविक उदार हिन्दी शब्दावली है जो कि अन्य भाषाओं यथा अरबी, फारसी, उर्दू, पुर्तगाली, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी बोली के शब्दों को स्थान दे रही है। हमारी हिन्दी भाषा का विकास इतिहास के बंद किवाड़ों के अंदर नहीं, साहित्य की खुली हवा, मुक्त थपेड़ों के बीच हुआ। 

संस्कृत से चलकर हिन्दी तक आनेवाला प्रत्येक मुहावरा और लोकोक्ति अपने आप में एक बड़ी कथा से युक्त है। जिनको हम अपनी भाषा के माध्यम से जान जाते हैं और उसे अपनाते हैं। कोई भी भाषा बहुत देर तक सरकारी अनुदानों अथवा मौखिक आत्म प्रशंसाओं द्वारा जीवित नहीं रहती उसकी संजीवनी शक्ति का बहाव ऊपर से नहीं नीचे से आता है उन अथाह गहराइयों से जहाँ उस समाज के संस्कार और स्मृतियाँ वास करती हैं। 

भाषा हमें वह भूमि देती है जिसके माध्यम से हम अपने यथार्थ का आकलन करते हैं। 

भाषा का प्रवाह एक ऐसी नदी की तरह होता है जो हमेशा अविरल बहती रहती है। 

वर्तमान हिन्दी का उद्भव संस्कृत भाषा से हुआ और कालानुक्रमानुसार पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के पश्चात अपने वर्तमान स्वरूप पर पहुँची है। अपने भाषा के प्रति सम्मान न रखने वाला निश्चय ही—हिन्दी संस्कृत साहित्य विहिनः साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:। 

गुजरात संत सूफ़ियों, महाजनों, राजाओं, महाराजाओं, सुल्तानों, व्यापारियों, उद्योगकारों, महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, टाटा रतन जी, डॉ. विक्रम साराभाई, झवेरचंद मेघाणी, नरसिंह मेहता और सयाजीराव का गुजरात ही नहीं बल्कि जो इस धारा का अमृत पीकर यहाँ बसा, फला-फूला उन सबका गुजरात है। यहाँ विश्व के तो प्रवासी मिलेंगे ही पर भारत का एक भी राज्य छूटा नहीं है जिसके निवासी सदाकाल से आज तक उद्योग, रोज़ी-रोटी, कला-कौशल बताने आते रहे और समृद्ध गुजरात की विविध संपदा से समृद्ध होकर यहाँ बस भी गए। विविधता में एकता का सुन्दर उदाहरण है गुजरात। 

गुजरात की दूसरी विशेषता है जो चकित करती है वह यह कि गुजरात समुद्र किनारे की संपदा से समृद्ध है। अनेक बड़ी-बड़ी बंदरगाहों में आदिकाल से विदेशियों के आवागमन ने गुजरात की संस्कृति, रहन-सहन पर प्रभाव डाला है। भुज, भावनगर, खंभात, सूरत ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है। व्यापार आदि के लिए विदेश गमन के कारण सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यिक विचारों का आदान-प्रदान लगातार होता रहा। इन सभी व्यापार में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 

गुजरात में मात्र हिन्दी भाषियों की संख्या इतनी अधिक है मानों गुजराती बड़ी बहन बन गई हो और हिन्दी अनुजा की तरह अपनी संपूर्ण कलाओं विद्याओं में खुलकर विकसित है। अपना ओजस संपूर्ण भारत में फैलाने में सफल हो गई है। 

आश्चर्य की बात तो तब लगती है जब गुजराती भाषी प्रदेश में रहकर हिन्दी में साहित्य सर्जन करते हैं। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि बन जाती है। यहाँ की यूनिवर्सिटी-कॉलेज में हिन्दी विषय को लेकर बी.ए., एम.ए. के साथ हज़ारों विद्यार्थी पीएच. डी. की उपाधी के लिए प्रयासरत हैं। गुजरात के अनेक शहरों में आधे दर्जन से भी अधिक हिन्दी की पत्रिकाएँ विशेषत: साहित्यिक पत्रिकाएँ निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। 

गुजरात के हर शहर में दो-चार हिन्दी संस्थाएँ हैं जिनका हिन्दी भाषा के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ, हिन्दी साहित्य परिषद, हिन्दी साहित्य अकादमी, गाँधीनगर, गुजरात में हिन्दी के फलने-फूलने में बहुत बड़ा काम कर रही हैं। अकादमी की पत्रिका ‘नूतन भाषा सेतु’ जिसके संस्थापक आदरणीय डॉ. अंबाशंकर नागर जी थे। आपने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं और कर भी रहे हैं। इसके साथ ही आदरणीय डॉ. रामकुमार गुप्त जी, किशोर काबरा जी, मालती जोशी जी जैसे और अनेक हिन्दी के प्रति समर्पित महानुभाव हैं जिन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अथक प्रयास किया है, कुछ विद्वान कर रहे हैं। 

प्रांतीय राष्ट्र भाषा प्रचार केंद्र से प्रकाशित ‘नूतन राष्ट्रवीणा’ हिन्दी के लेखकों को सतत प्रोत्साहित करती रहती है। हिन्दी साहित्य अकादमी, गाँधीनगर, तो हिन्दी के नवोदित रचनाकारों को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनकी रचनाशीलता को आधार दिलाती है। जेठालाल जोशी, आचार्य रघुनाथ भट, मालती दुबे आदि इनके लौह स्तम्भ हैं। इन सभी का हिन्दी के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। ये हिन्दी में सतत रचना करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहें हैं। 

कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला का उल्लेख नहीं करें तो कहना असंपूर्ण ही रहेगा। 

इसने गुजरात में हिन्दी की पैठ को मज़बूत बनाया। यहाँ के लोगों की विशेषता यह रही कि हर प्रकार की भाषा और संस्कृति को अपने अंदर इस प्रकार से सँजो लेते हैं कि जैसे—ये भी यहाँ के लोगों की जीवन प्रणाली का एक अंग है। 

यह बात सहयोग की है अवरोध की नहीं। यह हमारे संपूर्ण सहयोग की अपेक्षा करता है। बाज़ारवाद के कारण भाषा की सार्वजनिकता आवश्यक हो गयी है। पर साधारण जनता जहाँ मातृभाषा को आधार बनाकर हर क्षेत्र में अपना क़दम रखती है वहाँ हिन्दी को अपना साम्राज्य स्थापिति करना हो तो संघर्ष आवश्यक है। जनसाधारण मातृभाषा को ही समझती है और उसी भाषा को अपनाने वालों को अपना समझती है। अतः यह एक प्राकृतिक प्रेम भाव है जो प्रादेशिक भाषा के प्रति औदार्य की भावना से ओतप्रोत रहता है। 

यहाँ सरकारी कामों में गुजराती भाषा का प्रभुत्व देखा जाता है। जैसे इलेक्ट्रिक बिल, विभिन्न टैक्स के नोटिस, किसी भी प्रकार के सरकारी काग़ज़ात, कोर्ट के काग़ज़ात, कोर्ट की भाषा आदि मूल रूप से गुजराती में ही उपलब्ध रहते हैं। 

जिससे कि इतर प्रदेश से आने वालों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर किसी दुभाषिए की आवश्यकता एक सामान्य सी बात है। 

भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के इस युग में अपनी प्रादेशिक भाषा के प्रति लगाव या इतर भाषा भाषी प्रदेश के लोगों के प्रति विद्वेष की भावना जगाता है। ऐसे में लोग हिन्दी समझ न पाते हों ऐसा नहीं है, इसलिए प्रयोग विधियों के प्रति रसहीनता का आभास होता है। बाज़ार एक ऐसी जगह है जहाँ सामान के साथ-साथ धैर्य, सहनशीलता, संस्कार, लेन-देन की भाषा आदि की प्रधानता होती है। इस बोलचाल की भाषा में मूल रूप से स्थानीय भाषा का आधिपत्य देखने को मिलता है। 

पर गुजरात के लोग संस्कारी और सहयोगी होने के कारण, वे बड़े धैर्य के साथ धीरे-धीरे हिन्दी को अपने दैनिक जीवन में घुला-मिला रहे हैं। साधारण जनता जीवन में इसकी ज़रूरत को देखते हुए इसे अपने जीवन में शामिल कर रहे हैं। गुजरात में नई-नई संस्थाएँ उभरकर आ रही हैं जो विश्व स्तर पर लगातार हिन्दी के प्रचार प्रसार में रत है और लोगों में हिन्दी के प्रति प्रीति को जगा रहे हैं कुछ प्रमुख उदाहरण है:

“पश्चिमांचल हिन्दी प्रचार समिति”, “संवेदना”, “विश्वामित्र”, “वैचारिकी”, “महिला साहित्यिक मंच”, “अस्मिता साहित्यिक मंच”, “साहित्य मैत्री मंच” जैसे अनेक मंच हैं जो हिन्दी में पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करने के साथ-साथ पुस्तक प्रकाशित करने का कार्य भी करते हैं। 

आजकल ऑन-लाईन का ज़माना है। देश में वेब पत्रिकाओं भी बाढ़-सी आ गई है। इसके माध्यम से हिन्दी के कार्यक्रम आदि होने के साथ-साथ रचनाएँ भी प्रकाशित हो रही हैं। वेब पत्रिकाओं के माध्यम से कथा, उपन्यास आदि धारावाहिक रूप में भी प्रकाशित हो रहे हैं। हस्ताक्षर, प्रतिलिपि आदि वेब पत्रिकाओं का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ा योगदान है। इनमे निरंतर विस्तार हो रहा है। 

इसमें और प्रगति की आशा के साथ नमस्कार। 

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