प्रेमचंद रचित लघुकथाओं का वैशिष्ट्य
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. रानू मुखर्जी1 Aug 2022 (अंक: 210, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
प्रेमचंद पराधीन भारत के एक ऐसे वैश्विक रचनाकार हैं जिनका साहित्य हमेशा से पाठकों को प्रेरणा देता रहा है। उनके विचार हमेशा से प्रासंगिक रहे। प्रेमचंद भारत की ग़रीब जनता के रचनाकार थे। क्योंकि वे गरिबों के संघर्ष को भली-भाँति जानते थे। शोषण, अत्याचार, के प्रतिरोध में उन्होंने बड़ी तेज़ी से क़लम चलाई। अत: उनकी क़लम इसके आसपास ही चलती थी। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ की।
उर्दू और हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानीकार, उपन्यासकार, अनुवादक एवं विचारक प्रेमचंद ने आमजन की तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ उनके जीवन की विविध समस्याओं पर उनके चरित्र के प्रत्येक पक्ष पर निष्पक्ष बात की। वे चाहते थे कि सामाजिक बंधन एवं स्वीकृत प्रथाओं के कारण स्त्रियाँ जिस आर्थिक सामाजिक धार्मिक और नैतिक जकड़न की शिकार बनी हैं उन्हें इस जकड़न से मुक्ति मिले। प्रेमचंद ने ग़रीबी को नज़दीक से देखा व भोगा था इस कारण उनके साहित्य के पात्र उनके आसपास ही रहते थे।
एक बार लाहौर की उर्दू पत्रिका “नैरंगे ख़्याल” के संपादक ने पूछा कि आप कहानी कैसे लिखते हैं तो इसके उत्तर मेंं प्रेमचंद ने कहा, “मेरे क़िस्से प्राय: किसी न किसी प्रेरणा और अनुभव पर आधारित होते हैं उसमें मैं नाटक का रंग भरने की कोशिश करता हूँ। . . . जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी क़लम नहीं उठती है। आधार मिल जाने पर मैं पात्रों का निर्माण करता हूँ। कई बार इतिहास के अध्ययन से भी प्लाॅट मिल जाते हैं लेकिन कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे। मैं जब तक कोई कहानी अदि से अंत तक ज़ेहन में न समा लूँ लिखने नहीं बैठता . . . कभी-कभी सुनी-सुनाई घटनाएँ ऐसी होती हैं कि उन पर आसानी से कहानी की नींव रखी जा सकती है . . . मैं कम भी लिखता हूँ। कई बार तो महीनों कोई कहानी लिख नहीं पाता। घटनाएँ और पात्र तो मिल जाते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक आधार कठिनता से मिलता है। यह समस्या हल हो जाने पर कहानी लिखते देर नहीं लगती।” इस प्रकार से प्रेमचंद ने हमें अपनी लेखन प्रक्रिया के सम्बन्ध में विस्तृत मनोवैज्ञानिक कारण बताएँ हैं जो किसी भी लेखक के आधार स्तंभ हो सकते हैं। कथाकारों के लिए प्रेमचंद की यह उक्ति अनमोल है इसलिए जब उनके इन विचारों से मैं रूबरू हुई तो इसे मैंने यहाँ विषय से सम्बन्धित न होने पर भी, ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया।
उन्होंने सदैव अपने लेखन में इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि जो भी साहित्य लिखा जाय उससे भारत की ग़रीब जनता प्रेरणा ले व देश के प्रति अपना रवैया सकारत्मक रखे। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास आदि तो ख़ूब लिखा परन्तु लघुकथाओं के माध्यम से भी अपनी बात रखी। प्रेमचंद के लघुकथा साहित्य की चर्चा करें तो प्रेमचंद ने लघु आकार की विभिन्न कथा-कहानियाँ रची हैं। इनमें से कुछ, लघुकथा के मानक पर खरी उतरती है। दस बारह पंक्तियों में लघुकथाएँ लिखकर अपने विचार प्रस्तुत किए जो कि पठनीय और ग्रहणीय है।
प्रेमचंद के समग्र लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने समाज के सभी पक्षों को अपने लेखन में समाहित किया है। प्रेमचंद के लगभग सभी पात्र कहानियों से निकल कर उपन्यासों से बाहर आकर एक अलग संसार रचते हैं और इन चरित्रों की छाप इतनी गहरी उतरती है कि यह हमारे अवचेतन का हिस्सा हो जाती है। काल्पनिक पात्र सजीव हो जाते हैं क़िस्से किंवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं और कथानकों के मामूली चरित्र रोज़मर्रे में लोगों की ज़ुबान पर नायक और महानायक की तरह चढ़ जाते हैं।
प्रेमचंद ने अपनी कहानी के पात्रों के बारे में एक बार कहा था, “हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी ग़रीबों का ख़ून चूसते हुए दिखेंगे और ग़रीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है।”
प्रेमचंद की लघुकथाओं में “कश्मीरी सेब”, “राष्ट्र का सेवक”, “देवी”, “बंद दरवाज़ा”, “बाबाजी का भोग”, “यह भी नशा, वह भी नशा” आदि प्रसिद्ध हैं।
उनकी पहली लघुकथा जनवरी 1917 में उर्दू साहित्य पत्रिका “अलनाजिर” में प्रकाशित “दरवाज़ा” के रूप में प्राप्त होती है। इस लघुकथा मेंं प्रेमचंद ने एक निर्जीव वस्तु दरवाज़े को अपनी कहानी का मुख्य पात्र बनाया है। कहानी में दरवाज़ा, उसके पीछे रहनेवाले सदस्यों के विषय में रोचक वर्णन है। उनके सुख-दु:ख, उनके क्रिया-कलापों का विवरण, बच्चों की उछलकूद व मौज-मस्ती का जीवंत वर्णन प्रस्तुत करता है।
वर्ष 1920 में उर्दू मासिक पत्रिका “कहकशां” में प्रकाशित “बाँसुरी” मात्र सात लाईन की कहानी है। इसमें रात के समय किसी खेत के रखवाले की बाँसुरी की आवाज़ के प्रभाव का चित्र खींचा गया है।
1926 में रचित “बाबाजी का भोग” के अंतर्गत साधुओं के द्वारा होनेवाले शोषणों को चित्रित करती है। कहानी केवल इतनी है कि कहानी का प्रमुख पात्र रामधन एक किसान है जो अपनी पत्नी के साथ रहता था एक दिन उसके घर पर एक साधु भिक्षा माँगने आते हैं और फिर भोजन की माँग करते हैं। अतिथि भगवान है
इस बात को ध्यान में रखते हुए रामधन साधु महाराज के भोजन की व्यवस्था करता है जबकी उसके घर में भोजन नहीं के बराबर होता है। साधु महाराज भोजन करके तृप्त होकर रामधन को आशीर्वाद आदि देकर लम्बी तानकर सो जाते हैं। परन्तु उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जलता है वह अपनी पत्नी के साथ भूखा रहता है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ब्राह्मण और साधुओं द्वारा ग़रीबों पर हो रहे अत्याचार और शोषण का जीवंत वर्णन किया है। ये छोटी सी कहानी समाज का एक विकृत चेहरा प्रस्तुत करती है।
“मतवाला” में प्रकाशित कहानी “ग़मी” के अंतर्गत परिवार नियोजन की समस्या को हास्य-व्यंग्य्य के माध्यम से उठाया गया है। कहानी में दो बच्चों के बाद जन्म लेने वाले बच्चे को लेखक मुसीबत समझता है और इसलिए इस जन्म को लेखक “ग़मी” कहते हैं। लघुकथा के माध्यम से एक तीखा व्यंग्य्य है जो आज भी प्रासंगिक है। आज भी देश बढ़ती हुई आबादी से लड़ रहा है।
“प्रेमचालिसी–1” में संकलित कहानी “देवी” लघु रचना के माध्यम से एक नारी की मानसिकता को दर्शाया है। कहानी अति साधारण है वह इस तरह है कि एक स्री को दस का नोट पड़ा मिलता है जिसे वह एक भिखारी को दे देती है। इससे लेखक के मन में उस स्त्री के प्रति सम्मान उत्पन्न होता है और वह उसे “देवी” कहकर उसके सामने अपना सर झुकाते हैं।
1932 में “कुमार” पत्रिका में “बीमार बहन” नामक सोलह लाईन की एक कहानी लिखी जिसमें भाई-बहन के प्रेम को दर्शाया गया है। दोनोंं अनाथ हैं और दोनों का एक दूसरे के प्रति अथाह प्रेम है। बहन के बीमार पड़ने पर भाई मंदिर जाकर प्रार्थना करता है और बहन की बहुत सेवा करता है। इस प्रकार से अति सरल सहज कथा के माध्यम से प्रेमचंद मन के कोमल भाव को दर्शाते हैं।
वर्ष 1936 में मासिक पत्रिका हंस के अक्तूबर अंक में प्रकाशित कहानी “कश्मीरी सेब” उनकी अति प्रतिष्ठित लघुकथा के अंतर्गत आती है। इस कहानी में लेखक अपने ठगे जाने की कहानी कहते हैं। कथा के अनुसार लेखक बाज़ार में कश्मीरी सेब ख़रीदने जाते हैं। दुकानदार सेब की तारीफ़ कर-कर के उन्हें सड़े-गले सेब पकड़ा देता है। घर आने पर लेखक को पता चलता है कि दुकानदार ने उन्हें ठग लिया है। सड़े-गले सेब पकड़ा दिए हैं। सभी सेब ख़राब निकलते हैं। दुखी होकर लेखक सलाह देते हैं कि बाज़ार से कोई भी चीज़ खरीदें तो देख-परख कर खरीदें नहीं तो सभी को मेरी तरह “कश्मीरी सेब” मिलेंगे।
उपर्युक्त कहानियों के अतिरिक्त और भी कुछ कहानियाँ हैं जो लघुकथा होने के बावजूद भी लघुकथा की श्रेणी में नहीं आती हैं ऐसी कहानियों में—“ दूसरी शादी”, ” गुरु मंत्र”, “शादी की वजह”, “स्वप्न”, “जादू”, “यह भी नशा वह भी नशा”, “आत्म संगीत”, “मैकू”, “कड़वा सच”, “जुर्माना”, “नादान दोस्त”, “कौशल” आदि हैं। इन कहानियों को लघुकथा माना जा सकता है परन्तु ये सभी कहानियों के अधिक निकट हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद 16/17 पंक्तियों में भी लघुकथा की रचना कर अपनी बात कहने में माहिर थे यही सब बातों के कारण उनको कहानी सम्राट कहा जाता है। यह निश्चित है कि प्रेमचंद लघुकथाओं के माध्यम से गहरी छाप छोड़ने में सफल हुए हैं।
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मधु 2022/08/14 09:41 PM
मुंशी प्रेमचंद जी की लघुकथाओं का इतनी गहराई से संशोधन कर पाठकों तक पहुँचाने के लिए लेखिका निश्चय ही बधाई की पात्र हैं।