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रवीन्द्र नाथ टैगोर

सत्यजित रे

पोस्टमास्टर

मणीहारा

समाप्ति

सत्यजीत राय के सिनेमा में रवीन्द्र साहित्य का प्रभाव, ‘तीन कन्या’ के परिप्रेक्ष्य में 

 

सत्यजीत राय केवल भारत के ही नहीं, विश्व के चलचित्र जगत के एक उज्जवल नक्षत्र हैं। बीसवीं शताब्दी के विश्व की महानतम फ़िल्मी हस्तियों में से एक थे जिन्होंने यथार्थवादी धारा की फ़िल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य, चित्रकला जैसी अन्य विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। संपूर्ण उपमहाद्वीप में चलचित्र की धारणा के साथ-साथ संपूर्ण भारतीय सिनेमा के प्रेक्षापट में आमूल परिर्वतन ले आए। 

सत्यजीत राय के पिता सुकुमार राय एक प्रतिष्ठित बाल-साहित्यकार और चित्रकार थे और माता (सुप्रभ देवी) रविन्द्र संगीत की एक मंजी हुई गायिका थीं। सत्यजीत राय के दादाजी उपेन्द्रकिशोर राय एक लेखक और चित्रकार थे। इस परिवार का टैगोर घराने के साथ काफ़ी घनिष्ठ सम्बन्ध था। प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से स्नातक होने के बाद पेंटिंग के अध्ययन के लिए, जिसमें प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित रविन्द्र भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन चले गए। उस समय शांतिनिकेतन साहित्य और कला की नयी भारतीय चेतना के केन्द्र के रूप में न केवल देश में बल्कि विश्व भर में चर्चित था। रवीन्द्रनाथ टैगोर से आकर्षित होकर समूचे भारत से छात्र तथा अध्यापक यहाँ खिंचे चले आते थे। 

अन्य देशों के भी छात्र यहाँ आते थे और इस तरह एक ऐसी नयी भारतीय संस्कृति के विकास की परिस्थितियाँ निर्मित हो रहीं थीं जो अपनी स्वयं की परम्पराओं पर आधारित थीं। शांतिनिकेतन में सत्यजीत राय ने नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे प्रतिष्ठित कलाकारों से शिक्षा प्राप्त की, जिस पर बाद में उन्होंने “इनर आई” फ़िल्म भी बनाई। 

”बहु दिन धोरे, बहु कोश दुरे 
बहु व्यय कोरे, बहु देश घुरे 
देखते गिएछि पर्वत-माला, 
देखते गिएछि सिंधु
देखा होएनी चखु मेलिया 
घर होते शुधु दू पा फेलिया 
सारा देश घुरे, देखा 
हएनी एकटी घासेर उपरे 
एकटी शिशिर बिंदु।”

(मैं कई वर्षों तक हज़ारों मील घूमा, बहुत ख़र्च करके बहुत सारे देशों में घूमता रहा। पर्वतमालाएँ-सागर देखता रहा, लेकिन इन आँखों ने वह नहीं देखा जो मेरे घर से दो क़दम की दूरी पर ही था। पूरा देश घूमकर भी जो मुझे दिखाई नहीं दिया वह था, एक घास की नोक पर शिशिर की एक बूँद) 

यह कविता विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सत्यजीत राय की डायरी पर तब लिखी जब राय बचपन में उनसे ऑटोग्राफ लेने गए थे। इन दोनों महान प्रतिभाओं के सम्बन्ध का यह शैशवकाल एक बुज़ुर्ग और बच्चे के मध्य का सम्बन्ध जो राय के लिए ता उम्र प्रेरणास्रोत बना रहा। आगे चलकर सत्यजीत राय ने उस कविता में अंतर्निहित मर्म और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के योगदान से इस क़द्र प्रभावित रहे कि ख़ुद एक कवि कलाकार, कथाकार, चित्रकार और फ़िल्मकार के रूप में स्थापित हुए और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कई उपन्यासों, कहानियों और उनके जीवन पर फ़िल्में बनाई। 

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय ही नहीं विश्व साहित्य, संस्कृति और दर्शन को भी बहुत गहराई से प्रभावित किया। कवि का कला प्रेम शांतिनिकेतन की आबोहवा में समाहित है। जिसमें प्रकृति का महासाम्राज्य, दृष्टि और दर्शन है जिसमें प्रकृति की विराटता, सहज व्यापकता के साथ एकाकार होकर अभिव्यक्त होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर पूरी दुनिया में ‘विश्व कवि’, ‘गुरूदेव’ और ‘नोबेल पुरस्कार’ विजेता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की साहित्यिक प्रतिभा से सत्यजीत राय अत्यंत प्रभावित थे। 

शांतिनिकेतन के परिवेश को राय ने स्वयं महसूस किया और इसे अपने फ़िल्म जगत में समाहित किया। साहित्य और फ़िल्म दो भिन्न विधाएँ हैं। जब भी किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनती है, तो निर्देशक फ़िल्म विधा के माँग के अनुरूप उसमें परिवर्तन करते हैं। और साहित्य से जुड़े लोगों को यह पसंद नहीं आता है। ख़ासकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लेकर बंग समाज काफ़ी पोजेसिव रहा। वे उनकी कृति से कोई छेड़-छाड़ सहन नहीं कर पाते हैं। हालाँकि सत्यजीत राय स्वयं बंगाली समाज से आते हैं फिर भी ‘घरे-बाइरे’ को लेकर काफ़ी आलोचना हुई। वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास पर फ़िल्म बना रहे थे, लेकिन उपन्यास को काॅपी नहीं कर रहे थे। सत्यजीत राय ने रवीन्द्रनाथ के दो उपन्यास ‘घरे बाइरे’ और ‘नष्ट नीड़’ और तीन कहानियों ‘पोस्टमास्टर’, ‘मोनीहार’ और ‘समाप्ति’ पर फ़िल्मों का निर्माण किया। इसके साथ ही उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र भी बनाया जो रवीन्द्रनाथ के जीवन पर का अब तक का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज़ माना जाता है। 

सत्यजीत राय ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की तीन कहानियों पर उनकी जन्म शताब्दी पर एक फ़िल्म बनाकर कविगुरु को श्रद्धांजलि दी। फ़िल्म का नाम है ‘तीन कन्या’। कन्या का अर्थ लड़की, स्री और बेटी भी होता है। इंग्लिश में इसे ‘थ्री डाॅटार्स’ कहा गया है। ये तीन फ़िल्में हैं, ‘पोस्टमास्टर’, ‘मणिहारा’ और ‘समाप्ति’।  ’पोस्टमास्टर’ और ‘समाप्ति’ हमें एक अन्य लोक में ले जाती है। जबकी ‘मनिहारा’ एक अन्य मिज़ाज की कहानी और फ़िल्म है। 

पहली फ़िल्म में शहर कोलकाता से युवा पोस्टमास्टर नंदलाल (अनिल चैटर्जी) छोटे से गाँव उलापुर आता है। एक बालिका रतन (चंदना बैनर्जी) उनका काम करने—खाना बनाने, कपड़े धोने और घर-बरतन साफ़ करने के लिए है। आज चाइल्ड लेबर की बात होती है लेकिन कुछ समय पहले ऐसी बातें आम थी। रतन अनाथ है। पिछला पोस्टमास्टर उसे डाँटता मारता था। फ़िल्म में एक पागल को दिखाया गया है। जो अक़्सर पोस्टमास्टर के पास आता रहता है। पोस्टमास्टर उससे देखते ही डरता रहता है मगर रतन उसे सहज भाव से लेती है और उसे देखते ही उसे डाँट लगा कर जाने को कहती है। समय के साथ-साथ पोस्टमास्टर और रतन में एक बहुत ही प्यारा सम्बन्ध विकसित होता है, वह उसे छोटी बहन मानकर बड़े भाई की तरह उसे अक्षर ज्ञान कराता है। मन लगाकर रतन पढ़ाई करती है। उसे लगता है पढ़ाई सीख लेने पर वह पोस्टमास्टर बाबू के बहन की बराबर की हो जाएगी। ऐसे में नंदलाल को मलेरिया हो जाता है और रतन जी जान से उनकी सेवा करती है। 

उसके सेवा भाव को देखकर अनायास ही उसे माँ की संज्ञा देना उचित लगता है। 

वैसे बंगाल में लड़की को माँ पुकारने का रिवाज़ भी है। बाद में रवीन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं, “बालिका रतन अब बालिका न रही। उसी क्षण उसने जननी का स्थान ले लिया। वैद्य को बुला लाई वक़्त पर दवा की टिकिया खिला दी, रात भर सिरहाने जागती बैठी रही, ख़ुद ही जाकर पथ्य बना लाई, और बार-बार पूछती रही, ‘क्यों दादा कुछ आराम है?’” (काबुलीवाला तथा अन्य कहानियाँ, अनु: प्रबोध कुमार मजुमदार, हिन्द पाकेट बुक्स) रवीन्द्रनाथ केवल मात्र दो पात्र और गाँव के गहन परिवेश को लेकर एक अद्भुत माहौल की रचना करते हैं। एक अकल्पनीय दृश्य। सत्यजीत राय फ़िल्म को एक क़दम और आगे ले जाते हैं, जब पोस्टमास्टर कुनैन की गोली खाने से इन्कार कर देता है क्योंकि यह उसे कड़वी लगती है तो रतन स्वयं एक गोली उठाकर बिना पानी के चबा चबाकर खाकर दिखाती है। लगता है जैसे माँ अपने बच्चे को बहला-फुसलाकर दवा खिला रही हो। ज्वर से पीड़ित होकर नंदलाल रतन को पहचान नहीं पाते हैं और पूछते हैं, “तुम कौन हो?” रतन को आघात लगता है। जवाब देती है, “बाबू मैं रतन हूँ। आपके घर काम करती हूँ।” अर्थात्‌ सम्बन्ध की क्षणभंगुरता को रतन ने बहुत पहले ही से लिया था। ये दोनों दृश्य सत्यजीत राय की निजस्व सृष्टि है। सम्बन्धों की मार्मिकता को गहन बनाने के लिए उन्होंने इन दृश्यों की सृष्टि की। एक तो ऐसी संवेदनशील कहानी है और उसपर ऐसी मार्मिक फ़िल्म। एक अनाथ को अवलम्बन मिलता है और घर से दूर रहनेवाले पोस्टमास्टर को छोटी बहन। 

परन्तु स्वस्थ होने पर नंदलाल गाँव छोड़कर जाना निश्चित करते हैं। तबादले के ख़ारिज हो जाने पर वह नौकरी छोड़़कर जाना तय करते हैं। नए पोस्टमास्टर को चार्ज देकर चलने की तैयारी करते हैं। रतन पोस्टमास्टर के जाने की सारी तैयारियाँ छुपकर देखती रहती है। उसका कोमल मन नंदलाल के प्रति अभिमान से भर उठता है। पोस्टमास्टर जाते-जाते रतन को कुछ रक़म देना चाहते हैं जिसे वह नहीं लेती है। फ़िल्म यहीं समाप्त होती है लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं, “पथिक के उदास हृदय में इस सत्य का उदय हो रहा था, जीवन में बिछड़ने के ऐसे अवसर न जाने और कितनी बार आएँगे, कितनी ही मौतें आती रहेंगी, इसलिए लौटने से क्या फ़ायदा? दुनिया में कौन किसका है?” फ़िल्म नंद के मन की कचोट को दिखाती है और यह कचोट दर्शकों के मन की कचोट बन जाती है। फ़िल्म उस समय के बंगाल को साकार करती है। सेट्स, ड्रेस, भाषा, संवाद, अभिनय सब मिलकर फ़िल्म को सजीव बनाते हैं। 

सत्यजीत राय के रतन को हम अधिक दृढ़ और वास्तविक रूप में देखते हैं—जो कि अंदर से टूटने पर भी उसका बाह्य प्रदर्शन नहीं होता है। कहानी में ‘इस दुनिया में कोई भी किसीका नहीं है’ वाला भाव पोस्टमास्टर में दिखाई देता परन्तु फ़िल्म में इस बात का अनुभव रतन को होता है। इसलिए जब पोस्टमास्टर निकल रहे होते हैं तो अपने आँसुओं को पोस्टमास्टर को नहीं दिखाती है। उनकी ओर नहीं देखती है। परन्तु दूर से पोस्टमास्टर को उसका कंठस्वर सुनाई देता है, “नए बाबू जी, पानी लाई हूँ।” इस जगत में सम्बन्धों की अनित्यता से रतन को बार-बार जूझना पड़ता है जो हमें फ़िल्म के अंत में पता चलता है। रवीन्द्रनाथ अपनी कहानी में अंत की ओर दार्शनिक हो जाते हैं, फ़िल्म मार्मिकता पर समाप्त होती है। 

इस फ़िल्म त्रयी की तीनों कहानियाँ स्वतंत्र है। अगर कुछ साझा है तो यही कि ये स्रियों की कहानियाँ हैं। “तीन कन्या” की दूसरी फ़िल्म है “मणिहारा”। यह एक ऐसी नारी ‘मणिमलिका’ (कणिका मजूमदार) की कहानी है जिसे गहनों से बहुत मोह था। यहाँ तक कि मरने के बाद भी वह अपने आभूषणों का मोह नहीं छोड़ पाती है। उसका पति फणिभूषण साहा (काली बैनर्जी) एक बहुत बड़ा ज़मींदार है। 

विवाह के दस साल बाद भी दोनों के सम्बनधों में वह गहराई नहीं आई थी जो एक स्वस्थ पारिवारिक जीवन के लिए होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनके कोई बच्चा भी नहीं था। प्यार से फणीभूषण पत्नी को मणि कहकर भी पुकारते थे। मणि (पत्नी) हर समय शंकित और तनावग्रस्त रहती है कि कहीं पति, फणिभूषण उससे गहने न माँग ले। पर अचानक एक दिन वैसी ही घटना घट जाती है। फणिभूषण साहा के फ़ैक्टरी में आग लग जाती है और सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाता है। फणी ध्वस्त हो जाते हैं। फणी की हताशा को देखकर मणि उसे गहने देने की पेशकश करती है। 

पहले तो वह लेने में आनाकानी करते हैं मगर उसके गहने देने में उत्साहित देखकर, वह गहने लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। गहने लेने के लिए फणीभूषण की बदलती मनस्थिति को देखकर मणि हिस्टीरिकल हो जाती है। चिल्ला-चिल्ली शुरू कर देती है। 

पैसे का जुगाड़ करने के लिए फणी भाई कोलकाता चले जाते हैं। पति के कोलकाता चले जाने पर वह अपने दूर के भाई मधुसूदन (कुमार राय) को बुलाती है और उसके साथ मैके जाने की इच्छा व्यक्त करती है। उसे अपने सारे ज़ेवर दिखाती है। परन्तु मधुसूदन के हावभाव से वह शुरू से ही भरोसे के क़ाबिल नहीं लगता है। वह पहले भी मणिमलिका को ब्लैकमेल कर चुका है। वह कभी भी अपने मायके नहीं पहुँचती है। 

फणिभूषण अपनी पत्नी के लिए गहना लेकर लौट आते हैं बहुत ढूँढ़ने पर भी उनको मणिमलिका कहीं भी नहीं मिलती है। रात को हवा की साँय-साँय में उनको मणिमाला के नुपुर की ध्वनि और साँसों का अहसास होता है। फणिभूषण हरदम सचेत और डरे-डरे से रहते हैं। दो-एक बार तो रात को जगकर बाहर झाँक भी आते हैं। उन्हें लगता है शायद मणि लौट आई हो। मगर इसके बाद जो होता है बहुत डरावना होता है। पति से गहने को लेने के लिए मणि का कंकाल हाथ बढ़ाता है। चौंक तो हम तभी जाते हैं जब स्कूल मास्टर कहानी सुनाना समाप्त करते हैं तो उनका एकमात्र श्रोता घाट की सीढ़ियों से उनकी आँख के सामने से अदृश्य हो जाता है और कह जाता है कि इस कहानी की बहुत सारी बातें झूठी हैं। 

फ़िल्म ज़मींदार के बड़े से घर, उसकी सजावट, ख़ूबसूरत स्री तथा अन्य पात्रों के अभिनय के कारण यह एक बेहतरीन फ़िल्म बन गई है। फ़िल्म का आरंभ एक स्कूल मास्टर (गोविन्द चक्रवर्ती) के कहानी सुनाने से आरंभ होता है और वो घाट पर कम्बल ओढ़कर बैठे एक व्यक्ति को कहानी सुना रहे होते हैं। इस फ़िल्म में सत्यजीत राय ने मणिमाला के भूतिया क्षणों को अपने प्रभावशाली संगीत के द्वारा और अधिक प्रभावशाली बना दिया है। 

इसके साथ ही कोठी का भुतहा वातावरण विषय को और अधिक रोचक बना देता है। 

कोठी के पूरे वातावरण को निर्मित करने का श्रेय राय के सहायक बंसी चन्द्रगुप्त को जाता है। थोड़ी सी शूटिंग गंगा के घाट पर भी हुई। संगीत के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत को लिया है राय ने पर इसे दक्षिण भारतीय गाने पर आधारित किया गया है। इस गीत को रूमा गुहा ठाकुरता ने गाया है। तीन कन्या में से यह एक भिन्न स्वाद की फ़िल्म है। 

“तीन कन्या” की तीसरी फ़िल्म है ‘समाप्ति’। यह बहुत ही संवेदनशील और मार्मिक कहानी है। जितनी संवेदनशीलता से कहानी लिखी गई है उतनी ही संवेदना से फ़िल्म बनाई भी गई है। यह कहानी मृणमयी (अपर्णा सेन) की है। यह उनकी पहली फ़िल्म है। इस फ़िल्म से ही उनकी प्रतिभा निखरकर उभर आई है। एक हँसती, निर्द्वंद्व बालिका को विवाह बंधन में डालकर एक स्री के रूप में मोड़ दिया जाता है। समाज की इसी प्रथा को सत्यजीत राय ने “समाप्ति” फ़िल्म में दर्शाया है। फ़िल्म दिखाती है कि धीरे-धीरे उसके हृदय में अपने पति के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है और वह स्वयं परिवर्तित होती है। इस स्वतंत्र बालिका को प्रकृति से प्रेम है। वह घर के सभी काम में पारंगत है पर उसका घर के काम-काज में, घर में मन नहीं लगता है। उसे उसकी प्यारी गिलहरी से प्रेम है, नदी के किनारे झूला-झूलने में उसे मज़ा आता है, और हँसने-खिलखिलाने में उसका कोई जोड़ीदार नहीं है। मृणमयी का भोलापन और हँसने-खिलखिलाने वाले भाव से अमूल्य (सौमित्र चैटर्जी), एक विधवा का बेटा जो शहर से क़ानून की पढ़ाई करके लौटा है, आकर्षित होता है। 

अमूल्य ज्यों ही नाव से उतरता है, फिसलकर कीचड़ में गिर जाता है और कीचड़ में लथपथ हो जाता है। उसे कीचड़ में लथपथ देख मृणमयी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाती है। उसकी हँसी रोके नहीं रुकती है। अमूल्य ग़ुस्से से लाल-पीला हो जाता है। और तब तक मृणमयी वहाँ से छू मंतर हो जाती है। अमूल्य को बालिका कभी झूला-झूलती, कभी हँसती-खेलती नज़र आती है और उसके मन में अपने लिए जगह बना लेती है। परन्तु बालिका मृणमयी को इस बात की कोई ख़बर नहीं है, वह अपनी सरलता के साथ मस्त है, खिलखिला रही है, हँस रही है। 

अमूल्य के मन में मृणमयी बस जाती है। वह अपनी माँ जोगमाया द्वारा पसंद की गई लड़की से नहीं अपितु मृणमयी से शादी करना चाहता है। और माँ की असहमति के बावजूद अमूल्य मृणमयी से विवाह कर लेता और मृणमयी अपने ससुराल पहुँच जाती है। सुहागरात को अमूल्य पति का अधिकार नहीं जताता है परन्तु मृणमयी यह स्पष्ट कर देती है कि यह विवाह उसकी सहमति से नहीं हुआ है। सुहागरात को वह अपने पति को सोता छोड़कर पेड़ के सहारे उतरकर बाहर निकल आती है और अपने प्रिय झूले के पास पहुँच जाती है। दूसरे दिन नवविवाहिता झूले पर सोती मिलने पर परिवार में सभी दुलहन को लेकर हँसी-मज़ाक और निन्दा करते हैं। सास उसे घर में बंद कर देती है। इस बंधन पर बालिका का क्रोध देखते ही बनता है। मृणमयी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। इस ग़ुस्से को सत्यजीत राय ने बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्माया है। मगर वो लाचार हो जाती है। अमूल्य उसे छोड़कर कोलकाता चला जाता है। परिवार में तहलका मच जाता है। माँ दुखी रहने लगती है। तब माँ की बीमारी का षडयंत्र करके अमूल्य को घर बुलाया जाता है। तब तक मृणमयी में बदलाव आ चुका होता है। उसके मन में पति के प्रति प्रेम का अंकुर फूट चुका होता है। आँधी-तूफ़ान में भीगते हुए अमूल्य को उसको पुकारते हुए बैचेन होकर खोजते हुए देखकर वह मुस्कुराने लगती है। पति के प्रति प्रेम से उसका मन भर उठता है और उसे भी लगता है कि अमूल्य इस ‘पगली’ से कितना अधिक प्रेम करता है। 

अपर्णा सेन का मासूम चेहरा, मृणमयी की चंचलता, उसका भोलापन, मासूम ज़िद के कारण फ़िल्म और अधिक रोचक बन गई है। सत्यजीत राय ने कहानी में थोड़ा परिवर्तन करके उसे फ़िल्म के अनुरूप बना लिया था जिससे वह और अधिक प्रभावशाली बन गई। सौमित्र चैटर्जी एक दक्ष कलाकार हैं। इस शुरूआती फ़िल्म में उनकी प्रतिभा स्पष्ट दिखाई देती है। सत्यजीत राय ने ग्रामीण परिवेश को बड़ी ख़ूबसूरती से परदे पर उकेरा है। नदी किनारे का गाँव, नाव, बरसात, कीचड़, झूला, विवाह के लिए लड़की को देखने का रिवाज़, भावी वर की हिचकिचाहट, मृणमयी का वहाँ पहुँच कर उत्पात मचाना आदी सब यथार्थ है। 

झूला झूलती स्री, स्री की स्वतंत्रता, मस्ती सब यथार्थ है। यह सब सत्यजीत राय की फ़िल्म ‘चारूलता’ में भी आया है। टैगोर की कहानी में भी यह मिलता है। सौमेंदु राय का कैमेरा नायिका के चेहरे के भावों, आँधी-तूफ़ान, वर्षा, सूर्योदय, तालाब, खेतों, यहाँ तक की गिलहरी, ग्रामोफोन, इनडोर-आउटडोर की बारीक़ियों को पकड़ता है। मृणमयी का सब कुछ भूलकर अपने पति को पत्र लिखने वाला दृश्य भी बहुत रोचक है। मगन होकर एक काग़ज़ में बड़े मन से वह ‘पगली’ लिखती है और मुस्कुरा देती है। उसकी प्यारी गिलहरी का मरना उसके भोलेपन का समाप्त होना है। नई साड़ी पहने आँखों में काजल डालकर मुस्कुराती इस युवती का चेहरा बहुत कुछ कह जाता है। 

सत्यजीत राय ने ‘तीन कन्या’ से संगीत विभाग भी सँभाल लिया है। यह पहली बार था जब वे फ़िल्म का संगीत ख़ुद सँभाल रहे थे। हालाँकि सत्यजीत राय का शास्त्रीय संगीत में कोई प्रशिक्षण नहीं था। लेकिन उनके आसपास का संगीत उनके अवचेतन में जाने कब से स्थान बना रहा था। उनके भीतर संगीत के प्रति स्वाभाविक गहन प्रवृत्ति थी। और वह ‘तीन कन्या’ के साथ प्रस्फुटित हुई। ‘तीन कन्या’ एक विशिष्ट फ़िल्म है जिससे कई चीज़ों का शुभारंभ हुआ। अपर्णा की यह पहली फ़िल्म थी बाद में उन्होंने निर्देशन और अभिनय भी किया और दोनों में श्रेष्ठ साबित हुई। सत्यजीत राय ने संगीत रचना आरंभ किया। 

सत्यजीत राय रवीन्द्रनाथ से प्रत्यक्ष मिले थे। उनके मन में कवि की बड़ी गहरी छवि थी। वे उनसे इतने अधिक प्रभावित थे कि उनकी उपस्थिति में कुछ बोल नहीं पाते थे। ‘तीन कन्या’ के साथ-साथ उनके और दो उपन्यासों पर फ़िल्म बनाईं और इसके साथ ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई। अगर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को स्री मन का चितेरा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। दूसरी ओर फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत राय परदे पर स्री की विभिन्न छवि उतारने में सिद्धहस्त थे। ऊपर हमने ‘घरे बाइरे’ पर कुछ चर्चा की अब थोड़ी बातें ‘चारूलता’ पर करेंगे। ‘चारूलता’ रवीन्द्रनाथ रचित उपन्यास ‘नष्ट नीड़’ पर आधारित है। चारूलता (माधवी मुखर्जी) कोलकाता में अख़बार के संपादक भूपति ((शैलेन मुखर्जी) की पढ़ी लिखी, सुसंस्कृत, ख़ूबसूरत पत्नी है। उसकी रुचि साहित्य कला में है। भूपति अपनी पत्नी से बेहद प्रेम करते हैं मगर उनके पास न तो साहित्य कला के प्रति रुचि है और न प्रेम है और न ही चारूलता के लिए समय है। भूपति अपनी दुनिया में खोए रहते हैं और उनकी कोई संतान भी नहीं है। इसलिए चारूलता एकाकी है। (इंग्लिश में यह ‘The Lonely Wife’ के नाम से है) ऐसे में भूपति के दूर के रिश्ते का भाई अमल (सौमित्र चैटर्जी) उनके यहाँ रहने आता है जो कि लेखक बनना चाहता है। उसकी संगति से चारूलता की साहित्यिक प्रतिभा खिल उठती है। 

पति की उपेक्षा से चिढ़ी हुई चारूलता का जीवन बदल जाता है। सत्यजीत राय ने इस पर बहुत ही लाजवाब फ़िल्म बनाई है। रचना और फ़िल्म को आज कई दशक बीत चुके हैं पर आज भी फ़िल्म उतनी ही मज़ा देती है। संकेतों-प्रतीकों के कारण दर्शक सहज ही फ़िल्म से जुड़ जाते है। एक्टिंग, फोटोग्राफी, सेटस, पहनावा, गीत-संगीत सब पक्षों पर फ़िल्म खरी उतरती है। फ़िल्म में राय की कला के प्रती प्रेम और दक्षता ही मूल है। 

सत्यजीत राय को जीवन में अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें “मानद डाक्टरेट” की उपाधी प्रादान की। चार्ली चैप्लिन के बाद ये इस सम्मान को पानेवाले पहले भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हेंं 1985 में “दादासाहब फाल्के” और 1987 में फ़्राँस के “लेजियम द'आनु पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हेंं ससम्मान “अकादमी पुरस्कार” और भारत का सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न सम्मान” प्रदान किया गया। मरणोपरांत सेनफ़्रांसिस्को अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में ‘अकिरा कुरूसोवा’ सम्मान से नवाज़ा गया। इन समस्त उपलब्धियों में बंगाल की आबो-हवा और माटी का बड़ा योगदान है, जिसमें नवजागरण के प्रणेता राजा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे मनीषी रचे बसे हैं। 

तीन कन्या

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टिप्पणियाँ

Prithwi nath mukharji 2023/06/01 09:51 AM

Excellent article on three women as a girl, girl to woman and as woman by Rabindranath Thakur very well depicted in the movie by Sri Satyajit Ray.

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