अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रचनात्मकता का जीवंत दस्तावेज़—‘प्रवास में आसपास’

 

समीक्षित पुस्तक: प्रवास में आसपास (कहानी संग्रह)
लेखिका: डॉ. हंसा दीप
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन, सीहोर मध्य प्रदेश
मूल्य: ₹ 250.00 
पृष्ठ संख्या: 128

नैसर्गिक रचनाकार अपने संवेदनशील भावों को, विचारपूर्ण अनुभवों को अपनी अनुभूति का आधार बनाता है। संघर्ष की उर्वर ज़मीन से साहित्य का सृजन होता है यह सर्वविदित है लेकिन जब आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य की बहुचर्चित लेखिका, साहित्यकार हंसा दीप जी के रचनाओं को पढ़ा तो जाना कि उनके लेखन में जहाँ एक ओर खोखली होती जा रही मानवीय संवेदनाओं का चित्रण है वहीं दूसरी ओर नए ज़माने की रफ़्तार में फँसी ज़िन्दगी की मजबूरियों का चित्रण बड़े सलीक़े से देखने को मिलता है। जिस दौर में हम जी रहे हैं, उस दौर का सबसे बड़ा सच है, मानवता, नैतिकता, सहृदयता और सहिष्णुता का तार-तार होते जाना। 

मानवीय चेतना की संवाहक हंसा दीप जी का नाम साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में समादृत है। उनके लेखन में सामाजिक सरोकार का दायरा काफ़ी विस्तृत हुआ है। सारे मानवीय मूल्यों का ह्रास होना हंसा दीप जी का कहानी संग्रह ‘प्रवास में आसपास’ पढ़ने के बाद समाज का एक ऐसा चेहरा हमारी आँखोंं के सामने उभरता है जो हमें लंबे समय तक झकझोरता रहता है। अपनी बात के अंतर्गत हंसा जी ने कहा है, “कहानियों में बसे चरित्र मानवीय संवेदनाओं को प्रमुखता देने की कोशिश करते हैं।” यह एक संवेदना ही तो है जो एक कथाकार की क़लम को निचोड़कर पाठक को मानसिक तृप्त देती है। 

शिवना प्रकाशन, सीरोह (म.प्र.) से प्रकाशित हंसा दीप जी के कहानी संग्रह ‘प्रवास में आसपास’ में कुल 15 कहानियाँ हैं। हर कहानी एक नए विषय को छूती है जो पाठक के भीतर संग्रह को पूरा पढ़ने का जज़्बा जगाए रखती है। इन कहानियों की एक ख़ास बात यह भी है कि ज़्यादातर कहानियों के पात्र अपने आसपास के होते हुए भी बिलकुल अलग से हैं और लम्बे समय तक याद आते रहेंगे। संग्रह की पहली कहानी ‘हरा पत्ता पीला पत्ता’ के डाॅ. मिलर एक प्रतिष्ठित कार्डियोलाॅजिस्ट होते हुए भी आज अशक्त होकर बिस्तर पर पड़े हैं। लेखिका के शब्दों में, “जीवन के कई सफल मोड़ देख चुके डाॅ. मिलर अब असहाय हैं। जबकि एक समय था जब मरीज़ों की आँखों में रहता था सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डाॅ. एडम मिलर का मुस्कुराता चेहरा।” 

जीवन और समय के उतार-चढ़ाव का सुन्दर चित्र है इस कहानी में। जहाँ एक छोटे से बच्चे का साथ डॉक्टर के जीवन की धारा को बदल देता है। मम्मी आती है और बच्चे को डाॅ. मिलर के पास कुछ समय के लिए छोड़ जाती है। दोनों बेहद ख़ुश हैं, दोनों हँस रहे हैं। डॉक्टर बच्चे को स्ट्रोलर से निकालकर हाथ पकड़कर चलना सिखाते हैं। इस दोस्ती ने उन्हें ताक़त दी है। कहानी पाठक के मन को एक नई ऊर्जा से भर देती है। 

कितनी मार्मिक बात कही है लेखिका ने “किसने किसको चलना सिखाया यह बात क़तई नहीं थी। दोनों ने एक दूसरे को चलना ही नहीं सिखाया बल्कि हर ठोकर पर हाथ थामना सिखाया।” एक सार्थक शीर्षक। 

‘एक मर्द एक औरत’ कहानी को पापा केशव बाबू और उनके बेटे की बहू सिया के आपसी स्नेह सौहार्द को आधार बनाकर एक सुन्दर भाव के इर्द-गिर्द बुना गया है। यह कहानी समाज के एक नकारात्मक दृष्टिकोण को उजागर करती है। बेटा यश बड़ी पोस्ट पर था। ज़िम्मेदारी अधिक थी। सिया काम से जल्दी आ जाती। पापा यश के लिए माता पिता दोनों थे, सो सिया के लिए भी सास और ससुर दोनों बनना चाहते थे। दोनों के बीच एक अच्छी समझ विकसित हो चुकी थी। पर कुछ अल्पबुद्धि वाले सम्बन्धों को कुत्सित दृष्टि से देखकर कलंकित करते हैं जिसे सिया अपनी दृढ़ मानसिकता के कारण फूँक मारकर उड़ा देती है। पवित्र मानसिकता की एक सुन्दर उदाहरण है यह कहानी। समाज को एक स्वस्थ दृष्टिकोण का आईना दिखाया है। 

‘वह सुबह कुछ थी’, ‘उसकी औक़ात’, ‘रुतबा’, ‘मुझे कहकर जाते’ आदि कहानियाँ एक अलग संदेश देती हैं। एक रचनाकार जिस समय में रहता है उसी समय को वह अपनी कृतियों में लाने और दिखाने का प्रयास करता है। हंसा दीप जी की कहानियाँ बहुत सारे मुद्दों को, एक साथ, एक ही स्रोत में अक़्सर तीन-चार मुद्दों को छूती सहलाती हुई चलती है। हंसा जी अपनी तरफ़ से गंभीर शब्दों की परिभाषा तो रखती हैं साथ ही पाठक को उकसाती भी हैं कि वह अपनी समझ, अपनी परिभाषा, अपने जीवन या अपने आसपास के जीवन को सामने रखकर ख़ुद सोचे कि परिस्थितियों का सामना करना उसके वश की बात है कि नहीं। यही कारण है कि उनकी हर रचना में समकालीन समाज की सच्चाइयाँ धड़कती हुई सुनाई पड़ती है। “अगली सुबह असली सुबह में बदल गई थी। भूल चुका था वह कि ‘जल्दी उठना है अब हर रोज़’ कल तो बीत चुका था और आज तो वही हुआ जो रोज़ होता था।” (पृष्ठ-37) “आपने अपने छात्रों को फाइनल पेपर आउट कर दिया है, यह सरासर नियमों का उल्लंघन है। मिस हैली को लगातार मिलते ये नोटिस उसकी कार्य शैली पर प्रश्न खड़े कर रहे थे। हैली को पता था कि उसने कुछ ग़लत नहीं किया है।” (पृष्ठ-40) 

‘मनु वाला रुतबा’ “कहीं तो उसके अंदर जगह बनाएगा या वह भी कभी न कभी उसे इस्तेमाल करेगा इतना सोचने के लिए वह काफ़ी छोटा था। नहले पर दहला क्या होता है पता नहीं था।” (पृष्ठ-51) पाठकों को यह जानकर अश्चर्य होगा कि हंसा दीप जी की कहानियों का धरातल इतना विराट है कि उपर्युक्त कथांश के सभी के सभी भाव बड़ी आसानी से घुलमिल गए हैं। इससे उनके अनुभव जगत की व्यापकता, गहराई, प्रमाणिकता और ईमानदारी स्वतः सिद्ध होती है। एक रचनाकार जिस समय में रहता है उसी समय को वह अपनी कृतियों में लाने और दिखाने का प्रयास करता है जिसमें अपने समय के साथ-साथ उसकी आत्मा भी किसी न किसी रूप और स्तर पर दिख जाती है। 

हंसा दीप जी की कहानियाँ बहुत सारे मुद्दों को एक साथ, एक ही कथा स्रोत में अक़्सर तीन-चार गहन मुद्दों को, छूती सहलाती हुई चलती है। ‘ऊँचाई’ कहानी अपने आप में एक नए विषय को आधार बनाकर रची गई है। कहानी में, सम्बन्ध, जैसे नदी की ऊपरी सतह का पानी स्थिर नज़र आता हैं लेकिन अंदर कई भावनाओं का द्वंद्व चलता रहता है। डॉ. आशी अस्थाना एक दाम्भिक प्रकृति की इन्सान थी। हंसा जी के शब्दों में कहूँ तो, “वे एक सुलझी हुई नेता हैं। नेता और नारी दोनों की भूमिका ने उनके व्यक्तित्व को उँचाइयों तक पहुँचाने में मदद की है। कभी अपनी कुर्सी के लिए भाषण देती हैं, तो कभी नारी अस्मिता के लिए।” कहानी शुरू से ही बाँध लेती है। पर कहानी में ज़बरदस्त मोड़ तो तभी आता है जब जवान बेटा अलंकार विवाह के लिए मना कर देता है, क्योंकि अलंकार को समझ में आ जाता है कि किसी लड़की को कभी कम नहीं समझना चाहिए। इस धारणा का कारण था उसके माँ का हिटलरी स्वभाव। हर लड़की से वह दूर रहने की कोशिश करता है। कभी भूले से कोई सामने भी आ जाती तो रास्ता काटकर निकल जाता है। और माँ के इस स्वभाव के कारण बेटे के स्वभाव में आमूल परिर्वतन आ जाता है। एक लड़की से शादी करके वह अपने पापा की तरह नहीं बनना चाहता है। कितने उतार-चढ़ाव से गुज़रती है कहानी—हर कहानी ऐसी कई पगडंडियों को आज़माती-परखती चलती है। माँ को धक्का तभी लगता है जब बेटा अलंकार स्पष्ट स्वीकार कर लेता है कि वह किसी लड़के से शादी करना चाहता है। 

“शादी तो मैं करूँगा पर किसी लड़की से नहीं।”

“तो, अरे लड़की से नहीं करेगा तो क्या तू लड़के से शादी करेगा।”

“हाँ”

और माहौल पूरा बदल जाता है। कहानी में अंतर्मन की मर्मांतक पीड़ा, संघर्ष एवं मानसिक द्वंद्व को एक ख़ूबसूरत अंदाज़ से उकेरा गया है। एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक प्रभाव से भरी कहानी है जो एक साथ अनेक संदेश देती है। 

हंसा जी की अन्तर्दृष्टि, ‘विज्युएलाइज़ेशन पॉवर’ प्रत्येक कहानी के हर पात्र को जीवंत बनाती है, अच्छी कहानी का यह सार्थक प्रयोग है। हर घटना पाठक के समक्ष उपस्थित है अपनी मौलिक छवि के साथ—“हो सकता है कि रिटायर होने के बाद घड़ी के काँटे उसे दुश्मन लगते हों जो आगे ही नहीं बढ़ते। पेंडुलम के घेरे को अनावश्यक रूप से हिलाते-डुलाते ऐसे लगते होंगे जैसे सबसे आलसी बच्चा अपने हठ पर एक जगह खड़ा हो गया है मुँह फुलाकर। रात के वे पल जो नींद में कट जाते हैं कितने अच्छे होते है। जब नींद नहीं आती है तब वे ही पल दुश्मन बन जाते हैं।” (एक खेल अटकलों का –पृष्ठ 99)। कहानी ‘फ़ालतू कोना’ का एक उदाहरण देखिए—“प्रेम के बोए बीज नफ़रत उगाएँ तो बीज ख़राब थे या मिट्टी ये तय करना किसी उलझी पहेली को सुलझाने के बराबर था। ऐसी पहेली को उलझी रखने में ही सबकी भलाई थी। यहाँ किसी अर्थी को कंधा नहीं देना था उन्हें तो बस शिकायतों का कारोबार ढोना था। मौत को ढोती साँसें चले या थमें किसी चेतन अवचेतन मन को आन्दोलित नहीं करतीं।” (पृष्ठ106)। देर तक पाठक के मन को झकझोरती है, लेखिका के मन से निकली बात, विचार देर तक पाठक के मन पर छा जाना कहानी की गुणवत्ता की पहचान है। हंसा जी इस प्रयोग में सफल हुई हैं। 

कहानियों में प्रायः मनोवैज्ञानिक तथ्य, उद्वेलन के साथ-साथ उनका समाधान पाठक के लिए संतोष प्रदान करे यह भी अहम बात है। हंसा जी की अधिकांश कहनियाँ एक सार्थक संदेश देती हैं, पाठकों की आँखें भी खोल देती हैं। ‘अंततोगत्वा’ कहानी के मंदिर के ढोंगी पुजारी की मानसिकता का सुन्दर उदाहरण है—“मुख्य पंडित जी ने अपने सहायकों को देखा। यह सिर्फ़ ‘देखना’ नहीं था। बहुत कुछ कह गया था। शांत भाव से बाहर आता क्रोध और डरावना हो जाता है। सहायकों को मालूम था उस शांत नज़र का प्रकोप।” (पृष्ठ110)। एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक परख जो हंसा दीप जी की लेखनी को विशेष बनाती है। 

विदेशों में रहकर भी उनकी कहानियों में भारतीय समाज रचा बसा है। पंडितों की मानसिकता का सुन्दर उदाहरण। “किसी को तो मंदिर में रहना ज़रूरी था वरना मुख्य पंडित भी इधर-उधर हाथ मारते। ख़र्चे और आय के तालमेल का गणित पंडित जी को बेहद परेशान कर रहा था तो पंडित जी ने थोड़ा दिमाग़ लगाया, भक्तों को अपने मंदिर की याद दिलाने का। एक रविवार को दस बजकर तीस मिनट पर ऐसा मंगल मुहूर्त बताया कि अगर इस समय सभी देवताओं के सामने ध्यान करें तो सारी मन की इच्छाएँ पूरी होंगी (पृष्ठ-113) lआज के समाज में दूषित मनोविकार के कारण मनुष्य के संस्कारों का ह्रास हो गया हैं, हमारी संस्कृति को ही ग्रहण लग गया है जिससे भक्ति भी अछूता नहीं रही है। समाज के हर क्षेत्र में यह एक विषवृक्ष की तरह फैल गया है जिसका प्रभाव इस कहानी में भी दिखाई पड़ता है। विदेश में रहते हुए भी भारतीय परंपरा को अपनी कथा का मूल मुद्दा बनाना यह हंसा जी की सशक्त लेखनी का ही कमाल है। प्रतिष्ठित कथाकार, साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान से भूषित चित्रा मुद्गल जी का कहना है कि कहानियाँ जीवन के यथार्थ की ही अभिव्यक्ति होती हैं। कुछ अपने जिए-भोगे का यथार्थ होती हैं कुछ नज़दीक से देखे जीवन के अनुभव जनित संसार का हिस्सा। इस उक्ति के अनुसार हंसा जी की कहानियाँ खरी उतरती हैं। 

‘भिड़ंत’ कहानी एक अलग दृष्टिकोण से लिखी गई है। कैंसर से जंग करती एक माँ के संघर्ष को बहुत ही मार्मिकता से रचा है। कितना सही लिखा है हंसा जी ने—“एक मरीज़ की बीमारी के बारे में परिवार वालों को कैसे कहा जाता है, जिस तरह कहा जाता है बिल्कुल वैसे ही कहकर चले गए वे। एक डॉक्टर ने तो सुन लिया किन्तु एक बेटी भी तो सुन रही थी, उसकी भावनाओं का क्या, उसकी चिंताओं का क्या? वह भी उस बेटी का जिसका अपनी मम्मी के अलावा कोई नहीं था इस दुनिया में। इस समय वह रोना चाहती थी ज़ोर-ज़ोर से। इतनी ज़ोर से कि उसका डॉक्टरी व्यक्तित्व दहल जाए, उसे अकेला छोड़ दे तब तक जब तक ममा पूरी तरह से ठीक न हो जाए” (पृष्ठ-70)। दुखद मानसिकता का सटीक और मार्मिक वर्णन। संवेदनशील व्यक्ति का अपने आँसुओं को रोकना मुश्किल है। पर यहाँ तो मामला कुछ उलटा ही था डॉक्टर स्वाति की माँ स्वयं मरीज़ थी। अब पूरी कथा में कभी एक बेटी का दर्द दिखता है तो कभी एक डॉक्टर का संघर्ष। पूरी कहनी इतने सुन्दर भाव से रची गई है कि एक साँस में ख़त्म हो जाती है और आँखें भर जाती हैं। अंत में विज्ञान की जय होती है। 

संग्रह की हर कहानी को हंसा जी ने अच्छा विस्तार दिया है। ये विस्तार कभी-कभी चमत्कृत कर देते हैं कि हंसा जी अपने पात्रों के जीवन तल में कितना गहरे उतरी हैं और पाठक को भी अपने साथ उन गहराइयों में चलने को बाध्य भी करती हैं। ‘प्रवास में आसपास’ संग्रह को पढ़ते हुए कथाकार की संवेदना से हम काफ़ी हद तक परिचित होते हैं। उनकी कहानियों की दुनिया से रू-ब-रू होना एक ऐसी दुनिया से रू-ब-रू होना है जो हमारे परिवेश से हमारा परिचय कराती है। विदेश में रहते हुए भी वे अपनी कहानियों को जिस तरह से बुनती हैं, भारतीय समाज के अनुभवों की बारीक़ियों में जिस तरह से जाती हैं और इसे बेहद सरल-सहज भाषा में चित्रित करती हैं, वह उनके कहानियों के वैशिष्ट्य को चित्रित करता है। हंसा दीप जी न तो जटिल शिल्प ही आग्रही हैं और न ही अलंकृत भाषा के चकाचौंध की। उनकी सहज भाषा शैली, सुन्दर वाक्य विन्यास तृप्त करते हैं। डॉ हंसा दीप जी का अंदाज़ेबयां रोचक होने के कारण पाठकों को बाँधने में सक्षम है। आशा है भविष्य में ऐसी और अनेक अनमोल संग्रहों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करेंगी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

ललित कला

सिनेमा और साहित्य

साहित्यिक आलेख

एकांकी

अनूदित कहानी

सिनेमा चर्चा

कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं