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प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी के उपन्यासों में संवेदनशीलता “हवन” उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में

साहित्य का सर्जन इस मन्तव्य से होता है कि जिन उच्च मूल्यों को लेकर वह रचा गया है उन ऊँचाइयों तक व्यक्ति, समाज को लेकर जाया जाए। यह ठीक है कि आदर्श की जिस ऊँचाई का स्पर्श व्यक्ति कर लेता है, उस ऊँचाई तक पूरे समाज के पहुँचने की सम्भावना पैदा हो जाती है। मनुष्य को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्न करने होते हैं। इन प्रयत्न में सबसे अधिक सहायक साहित्य का होता है। 

प्रवासी साहित्य का उद्भव भारतीय प्रवासी नाम से आया है जो इन्डियन डायस्पोरा का हिन्दी रूपांतर है। विभिन्न देशों या महाद्वीपों के नाम के आधार पर जैसे अफ़्रीकी डायस्पोरा, एशियाई डायस्पोरा, यूरोपीय डायस्पोरा, भारतीय डायस्पोरा आदि रखे जाते हैं। भारत में साहित्य को डायस्पोरा के साथ जोड़ा गया है। हिन्दी में लिखनेवाले लेखकों या साहित्यकारों को प्रवासी हिन्दी लेखक या साहित्यकार कहा जाने लगा और एक अलग मान्यताप्राप्त वर्ग बन गया। 

प्रवासी हिन्दी साहित्य वह साहित्य है जिसे भारत से सुदूर रहनेवाले भारतीयों ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचा है। जिसमें उन्होंने अपने जीवन के अनुभव को प्रस्तुत किया है। अपना सुख लिखने के साथ-साथ प्रवासी होने के जो दंश को झेला, उसे भी लेखन का विषय बनाया। इन साहित्यकारों ने मनोरंजन कराने वाली पुस्तकें भी लिखीं। इसके साथ ही साथ जो विदेशों में रहते थे और बाद में आकर भारत में बस गए उन्होंने वहाँ के अपने अनुभव भी लिखे जो सूचनात्मक साहित्य बना। इस प्रकार के साहित्य से लोगों को विदेश की समस्याओं से जागरूक किया तथा वहाँ की अच्छाइयों से भी परिचित किया। डॉ. कमल किशोर गोयनका ने विस्तार से अपनी पुस्तक “हिन्दी का प्रवासी साहित्य” (स्वराज प्रकाशन 2017) में इस साहित्य की चर्चा की है। जहाँ तक पश्चिम जगत यानी कि ब्रिटेन और अमरीका का सवाल है सुषम बेदी जी स्वयं को इस विकास यात्रा का एक हिस्सा मानती थीं। 

सुषम बेदी (1949-2020) फिरोजपुर ज़िला, पंजाब में जन्मी। वह न्यूयार्क में रहती थीं और कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाती थी। एक सशक्त कहानीकार और उपन्यासकार थीं। 25 मार्च 2020 को उनका निधन हो गया। 

सुषम बेदी की रचनाओं में भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के बीच झूलते दक्षिण एशियाई देशों के नागरिकों, ख़ासकर प्रवासी भारतीयों के मानसिक द्वंद्व का बख़ूबी उल्लेख हुआ है। सुषम बेदी ने अपनी लेखनी के माध्यम से वैश्विक स्तर पर हिन्दी साहित्य को पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। 5 दिसम्बर 2003 के हंस में प्रकाशित उनकी कहानी “गुनहगार” को जितनी बार पढ़ें कुछ अलग ही नज़र आता है। अच्छे साहित्य की यही विशेषता है। प्रवासी साहित्यकारों में सशक्त हस्ताक्षर सुषम बेदी की कहानी “गुनहगार” एक खिलवाड़ से प्रारंभ होती है और मानसिक तथा अध्यात्मिक विश्वासघात के अपराधबोध तक जा पहुँचती है। कहानी अनेक पड़ावों पर से गुज़रती हुई पाठक के विचारों को एक न एक नए आयाम पर पहुँचा देती है। 

“हवन” सुषम बेदी का 1989 में प्रकाशित उपन्यास है। इस उपन्यास के माध्यम से सुषम जी ने प्रवासी भारतीयों के जीवन और उनका और उनके बच्चों का संघर्ष जो उनको वहाँ रहकर करना पड़ता है को बड़ी सूक्ष्मता और सरसता से दर्शाया है। गुड्डी के पति प्रेम चड्ढा की जब असमय मृत्यु हो जाती है तब परिवार का सारा दायित्व गुड्डी पर आ जाता है। इष्ट मित्र और रिश्तेदारों की मदद गुड्डी को परिवार और बच्चों के लेकर जीवन गुज़ारने के लिए काफ़ी नहीं लगता है। इन्हीं दिनों उसकी छोटी बहन पिंकी उसे अमेरिका में आकर बसने का आमंत्रण देती है और गुड्डी को अँधेरे में एक नई आशा की किरण दिखाई देती है। अमेरिका के वैभव के विषय में उसने जो अपनी बहन से सुना था इससे उसे यह विश्वास हो गया था कि वैभव सुख संपन्नता से भरे उस देश में उसे अपने परिवार को एक सुखमय जीवन देने का अवसर मिलेगा। 

“अमरीका जाने का ख़्याल एक सच्चाई बना, तब तक चार-पाँच साल यूँ ही गुज़र गए–काग़ज़ात काम, पासपोर्ट, ग्रीन कार्ड में। दोनों बेटियों को उसने होस्टल में छोड़ा। छोटी बेटी तनीमा तब प्री-मेडीकल कर रही थी, बड़ी अणीमा केमिस्ट्री में बी.एससी.” (हवन पृष्ठ 11) 

दोनों बेटियों की चिंता से मुक्त होकर गुड्डी अपने छोटे बेटे राजू को लेकर अमेरिका चली जाती है। 

सुषम बेदी हिन्दी की ऐसी रचनाकार हैं जिन्होंने प्रवासी समाज को आधार बनाकर अपने साहित्य की रचना की है। उनके साहित्य में निहित कथावस्तु जीवन के यथार्थ पर आधारित है। सुषम जी एक संवेदनशील लेखिका हैं। उन्होंने इसका सजीव और सहज चित्रण अपने कथा-साहित्य में किया है। जिसमें उन्होंने प्रवासी जीवन के संघर्ष को बड़ी जीवंतता के साथ चित्रित किया है। तनाव की स्थिति समाजिक विरोधों का मानसिक प्रतिबिंब होती है। आज विश्व के सभी देश में नस्लवाद ने एक उग्र रूप धारण कर लिया है। लगभग प्रत्येक प्रवासी भारतीय को इसे भोगना पड़ता है। विदेश में रहते प्रवासियों को नौकरी प्राप्त करते समय इस समस्या से जूझना पड़ता है। उनके योग्यता के अनुरूप उन्हें सम्मान नहीं मिलता है। सुषम बेदी ने अपने उपन्यास में विदेशी चमक-दमक से प्रभावित भारतीयों की मनस्थिति का सुन्दर चित्रण किया है। भारतीय उच्च स्तरीय जीवन जीने के लिए विदेश जाते हैं। “हवन” उपन्यास में गुड्डी अपनी छोटी बहन पिंकी के बुलाने पर विदेश जाती है। वहाँ जाकर उसे संघर्षशील जीवन बिताना पड़ता है। अपना और बेटे का ख़र्च उठाने के लिए उसे छोटा से छोटा काम करना पड़ता है जो कि उसके लिए अपमानजनक होता है। हर समय वह एक मानसिक द्वंद्व से जकड़ी रहती है। “मन तो विरोध कर रहा था कि ‘अख़बार’ बेचने का काम इतने बड़े अफ़सर की बीबी करेगी—पर हाथ पर धेला तक तो था नहीं। शहर में आने जाने का किराया तो पिंकी से ले लेती थी। गुड्डी ने शुरू कर दिया काम।” (हवन पृष्ठ 17) 

“हवन” और “लौटना” उपन्यास के माध्यम से सुषम बेदी जी ने नौकरी में नस्लवाद जैसी गंभीर और संवेदनशील समस्या को उठाया है। शिक्षित प्रवासी भारतीयों को नौकरी के स्थान पर उनके साथ भेदभाव की नीति को अपनाया जाता है। “हवन” उपन्यास में अणिमा को नौकरी लेते समय इसी भेदभाव की नीति का शिकार होना पड़ता है। परन्तु उसकी योग्यता उसके योग्य स्थान पर पहुँचा देती है। यूनिवर्सिटी कैफ़ेटेरिया में बैठी वह नौकरी पाने के सारे संघर्ष की कहानी अपनी सहेली नजमा को सुनाती है, “इस कॉलेज की नौकरी के लिए भी इंटरव्यू से पहले सब इसी तरह का शक मन में डाल रहे थे—एशियाई महिला और अंग्रेज़ी पढ़ाए अमरीकनों को। पर मेरे क्रडेंशियल्स सबसे बढ़िया थे। इनका खेल इन्हीं के पत्तों से खेलो तब मिलती है सफलता” (हवन पृष्ठ-92)। कई बार अपने आसपास में छाए नस्लवाद का सही रूप प्रवासी भारतीय उतनी गंभीरता से नहीं देख पाते जितना नौकरी पाते समय देखते हैं। एक गंभीर और संवेदनात्मक परिवेश से भरे वातावरण में प्रवासियों की मानसिकता दृष्टव्य है। 

अणिमा अरविंद को अमेरिका के हालतों से परिचित करवाते हुए कहती है, “अरविंद यह देश पहले कुछ खेप में आए उन गोरों का है जो यहाँ के शासक और नियम विधायक हैं। यहाँ की मल्टी-नेशनल कम्पनियों के मालिक हैं अभी तुम विद्या अर्जन कर रहे हो, कल नौकरी ढूँढ़ने जाओगे तो देखना। ओफ़! कितनी दुविधाग्रस्त है इन राज करनेवालों की नीतियाँ। एक तरफ़ यह देश दम भरता हैकि संसार के हर इंसान को आज़ादी और तरक़्क़ी का माहौल देने के लिए इसका दरवाज़ा खुला है, दूसरी तरफ़ जो यहाँ आ चुके है वे अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर देना चाहते हैं। हम एशियाई लोग अपने इस सीमित घेरे में ही ऊपर उठकर सकते हैं, कभी राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ सोचेंगे-करेंगे इसकी उम्मीद तो मुझे बहुत कम है–हाँ, कोई इक्का-दुक्का टोकन के तौर पर अपने स्व के दायरे में से ऊपर आ जाए तो और बात है।” (हवन पृष्ठ 130) 

नस्लवाद का व्यापक रूप शिक्षा के क्षेत्र में भी देखा जाता है। स्कूल कॉलेज में विद्यार्थी अपने बुद्धिबल से विशेष स्थान प्राप्त करते हैं तो इसे गोरे लोग सहन नहीं कर पाते हैं और बात-बात पर इन बच्चों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। इन स्थानों पर अक़्सर ब्लैक, बास्टर्ड, ब्लैक डाॅग, ब्लडी डाॅग आदी गालियों से हमले होते हैं। 

“हवन” उपन्यास की अणीमा कहती है, “अब वह साठवें दशक वाला अमीरी और सत्ता विद्रोही युवकों का युग समाप्त हो चुका था। ग़रीबी, बेरोज़गारी और प्रवासियों की भरमार ने यहाँ के सचेत युवकों को बड़ा कंज़रवेटिव बना दिया था। ज़्यादा से ज़्यादा युवक युवतियाँ पढ़ाई कर अच्छा केरियर बनाना चाहते थे, ये चाहे भारतीय हो या विदेशी . . . प्रवासियों के पूरे समाज के प्रति उनमें विद्रोह का भाव था। “पश्चिमी समाज में भारतीय शिक्षा को निम्न समझा जाता है। हर परिवेश में भारतियों को अपनी शिक्षा के कारण नस्लवाद का सामना करना पड़ता है। एक संवेदनहीनता का माहौल देखने के लिए मिलता है।”

“हवन” तथा अपने अन्य उपन्यासों में सुषम बेदी ने प्रवासियों की इस वेदना को विभिन्न घटनाओं और पात्रों के माध्यम से चित्रित किया है। “लौटना” उपन्यास में भी सुषम जी ने प्रवासियों की समस्याओं को विस्तार से लिखा है। इस उपन्यास में मीरा जब अपनी उच्च शिक्षा के बल पर नौकरी प्राप्त करने जाती है तो एक प्रोफ़ेसर उसे कहने लगी, “मुझे नहीं लगता है तुम्हें प्रोफ़ेसर बनने की उम्मीद भी करनी चाहिए—वह कभी नहीं होगा। देखो हिन्दुस्तान से पीएच.डी. कर लेना कोई बड़ी बात नहीं। सैंकड़ों पीएच.डी. करते हैं वहाँ। कोई ठीक स्टेंडर्ड तो है नहीं वहाँ—अब यहाँ तो पीएच.डी. में इतना काम करना पड़ता है—पहले कोर्स वर्क ही दो चार साल करते रहो, तब जाकर थीसिस लिखने की बात होती है। भारत में तो बस छूटते ही थीसिस लिखी और बात ख़त्म—तभी बड़ी कच्ची, बड़ी घटिया क़िस्म की थीसिस लिखते हैं लोग। हिन्दुस्तानी पीएच.डी. के बल पर तो तुम्हें नौकरी ढूँढ़नी ही नहीं चाहिए। उसकी कोई क़ीमत नहीं यहाँ।” लगातार एक अपमान जनक मानसिकता का बोझा ढोकर रहने वाली बात बन जाती है। एक तनाव और स्वयं को माहौल से अलग-थलग होने वाली बात सही तरीक़े से रहने नहीं देती है। संवेदनहीन और मानवीय भावनाओं से हीन माहौल का सुन्दर चित्रण। 

मूल्यों के टकराहट का भी सुन्दर चित्रण “हवन” उपन्यास में राधिका और उसके परिवार में दिखाई देती है। राधिका के पिता राधिका को भारतीय रीति रिवाज़ों के अनुसार रखना चाहता है तो राधिका विद्रोह करती है। राधिका ख़ूब चिल्लाई, “आई टोल्ड देम डेज़ एगो दैट आई वाज़ गोइंग टू कम। ह्वाट विल दे थिंक। आई कांट डिच देम।” राधिका के लिए सबसे ज़्यादा अहमियत उसकी सहेलियों की थी। उन्हें कैसे नाराज़ कर सकती थी। वह उसका समाज था और उनकी दोस्ती राधिका के लिए समाजिक स्वीकृति का सबूत थी। सहेलियों के इशारे ही उसकी ज़िन्दगी की दिशाएँ थी। उसे लगता कि मम्मी-डैडी को तो यहाँ का कुछ पता ही नहीं। हमेशा हिदायतें देते रहते हैं—ऐसे बात करो, ऐसे रहा करो, ऐसे कपड़े पहनो, यहाँ मत जाओ। अपना हिन्दुस्तानी रहन-सहन, रीति-रिवाज़ उस पर भी लादना चाहते हैं। वह उन तौर-तरीक़ों पर चलकर कनिका की तरह मित्रहिन नहीं हो सकती। कनीका को अकेले घर बैठना अच्छा लगता होगा, वह तो ऊब जाती है।” (हवन पृष्ठ-67) 

दोनों पीढ़ियों के संस्कार और विचारों में असमानता के कारण परिवार में क्लेश उपजता है और अंत में राधिका को अपनी स्वच्छंदता का अर्थ समझ में आता है। राधिका पश्चिमी सभ्यता में इस प्रकार से रच-बस गई थी कि उसने अपना नाम ही बदल लिया था। “राधिका ने अपनी सहेलियों को अपना नाम लोरा बतलाना शुरू कर दिया था। जो राधिका नाम जानती थी, उनसे कहा कि वे अब उसे लोरा ही बुलाएँ।” (हवन पृष्ठ 71) 

गुड्डी ने अपनी ही तरह एक मज़बूत नैतिकता में अपने दोनों बेटियों को ढाला था। बड़ी बेटी अणिमा तो पूरी तरह माँ से प्रभावित थी। बहुत गहरा विश्वास था उसे माँ पर–उसके आचरण और त्याग पर। पिता के न होने पर माँ सब कुछ थी। घर और बाहर के हर काम पर उसे माँ के दिशा-निर्देश पर भरोसा था। गुड्डी ने अपने तौर-तरीक़ों और विचारों को अणिमा के दिमाग़ में इस तरह से भर दिया था कि वे अणिमा के निजी विश्वास और विचार बन गए थे। 

आर्य समाज माँ-बाप के यहाँ हर इतवार की सुबह को हवन होता था। गुड्डी को सारे संस्कार, नैतिकता और मूल्य इन्हीं हवन से मिलते थे। हवन के बाद पिता प्रार्थना करते सारे परिवार के लिए—हे प्रभु! इस यज्ञ से सबका कल्याण हो। सबकी कामनाएँ पूरी हो। सब शुभ कर्मों में लगे हुए सफलता प्राप्त करें। हमें ऐसा मानसिक बल दो। पिता के प्रार्थना से प्रेरित गुड्डी संघर्ष के हर क्षेत्र में स्वयं को मज़बूत बनाती है। 

यही प्रार्थना उसके अंदर अदम्य साहस और शक्ति का स्रोत बनकर अंत तक बहता रहता है। गुड्डी अपने सामने चुनौतियों को परोसती है, और फिर ख़ुशी-ख़ुशी उनसे जूझते हुए अपने परिवेश में उस ख़ुशी को बाँटने की कोशिश करती है। फिर भी असंतोष सवाल बनकर फन काढ़े सामने हरदम खड़ा रहता है। गुड्डी की पूरी लड़ाई घर के ढलते रवैये को लेकर है। धूमधाम से दोनों बेटियों का विवाह करने के बाद उनके पतियों को अमरीका लाकर सैटेल करने की ज़िम्मेदारी भी तो उसकी ही रही। इस प्रकार से गुड्डी लगातार बेटियों के विवाह के पश्चात भी उनकी समस्याओं से उनके साथ-साथ लड़ती रही। प्रवासी समाज की समस्याओं से जूझती ही रही। एक संवेदनात्मक वातावरण से पाठक अंत तक घिरा रहता है। 

भारतीयों के सपने ऊँची नौकरियों के होते हैं और इसे हासिल करने के लिए वे भाग दौड़ भी बहुत करते हैं। परन्तु शीघ्र ही वे निम्न स्तरीय नौकरियों पर आ जाते हैं। भारत की बेरोज़गारी से तंग आकर वे विदेश पहुँचते हैं और हर तरह की नौकरी के लिए तैयार कर लेते हैं। भाषा की समस्या के कारण भी प्रवासी भारतीय पिछड़े रह जाते हैं। अंग्रेज़ी भाषा के अल्पज्ञान के कारण अच्छी नौकरी के अवसर हाथ से निकल जाते हैं। “नौकरी के लिए गुड्डी को बहुत ठोकरें खानी पड़ीं। जिस मध्यम क़िस्म की तनख़्वाह की उम्मीद थी उसे वैसी नौकरियों पर उसे हर दफ़्तर से अस्वीकार ही मिला। इन सब के लिए उसकी अंग्रेज़ी का हिन्दुस्तानीपन ही अखरता था। दो-एक जगह इंटरव्यू लेनेवालों ने उससे बार-बार वाक्य दुहराए। पर गुड्डी जब अमरीकियों की तरह ल्फ़्ज़ों को खींचकर ‘आ’ को ‘ऐ’ जैसे कि ‘कांट’ को ‘केंट’ कहती उसे अपनी आवाज़ भी हास्यास्पद लगती। राजू छोटा था। अंग्रेज़ी स्कूल में था। उसे उच्चरण के अंतर को पकड़ने में देर नहीं लगी। वह मम्मी से मज़ाक में कह देता “मम्मी, ये शिड्यूल क्या होता है, ‘स्कैजल’ कहो न।” सुषम बेदी जी ने जीवनयापन के निम्न स्तर के साधनों की यथार्थ अभिव्यक्ति बड़ी सफलता से की है। 

सुषम जी ने “हवन” उपन्यास में उम्रदराज़ लोगों की स्थिति का चित्रण बड़े ही संवेदनात्मक रूप से किया है। बच्चों के साथ रहने के मोह को छोड़ नहीं पाती हैं और दो पाटों के बीच पिसती हुई उनकी परिस्थिति अति दयनीय बन जाती है। “माँ पास आ भी जाय तब भी कहाँ सुलझाव आ पाता है। तब माँ की स्थिति भी त्रिशंकु-सी हो जाती है। पिंकी की सास आई हुई है यहाँ। उस दिन गुड्डी से कह रही थी, कोई ज़िन्दगी है यहाँ, न किसी के साथ आना जाना, न बोल-चाल . . . करनाल में सभी मुझसे कहें कि बड़ी भागो वाली हैं आप, दोनों बेटे अमरीका में पैसे कमावे। मैं कहूँ यह तो और भी बुरा हुआ, दो-दो बेटे हो के भी पास में कोई नहीं।” (हवन पृष्ठ 145) 

एक संवेदनात्मक परिवेश का चित्र। अकेलापन जो इन्सान को अंदर से कुरेदकर खा रहा है। “बहुत कुछ था उनके पास कहने को। रुकती ही नहीं, ‘सूने फ़्लैट में एक कमरे से दूसरे में चक्कर लगा-लगाकर तो मैं पागल हो जाऊँ। सुबह-सुबह जब सब चले जाए मेरे तो हौल-सा पड़े।’ 

सतिन्दर सोचता माँ को यहाँ बुलाकर ग़लती की। वे अपने परिवेश से एकदम कट सी गई। 

परिवेश से कौन नहीं कटा—गुड्डी, गीता, अणिमा, तनिमा, राजू। पर माताजी के लिए और भी बड़ी मुश्किल है–अंग्रेज़ी भाषा उन्हें आती नहीं। किसी बाहर वाले से बिल्कुल कम्युनिकेट नहीं कर पाती। अंग्रेज़ी भाषा आने पर भी क्या गुड्डी या राजू या जीजा जी कम्युनिकेट कर पाते हैं।” (हवन, पृष्ठ-145) 

भूमंडलीकरण, वैज्ञानिक और तकनीकी युग में मानवीय संवेदनाओं का ह्रास हो रहा है। हम निरंतर संवेदनहीन होते चले जा रहे हैं। आंतरिकता की कमी के कारण हम दूसरों का दुःख, शोक, वेदना और पीड़ा को नहीं समझ पा रहे हैं। इसे मानवीय गुणों का ह्रास कहें तो बेहतर होगा। गुड्डी पिंकी गीता और उनके बच्चे समय और स्थान के इस बदलाव से पीड़ित हैं। सुषम जी ने इस संवेदनहीनता को “हवन” में बख़ूबी उभारा है। इस उपन्यास में उन्होंने प्रवासी भारतीययों ने भारतीय भाषा संस्कृति, नैतिक मूल्य, भारतीय अस्मिता को ज़िन्दा रखने के लिए जो जद्दोजेहद की है उसको उभारने का बख़ूबी प्रयास किया है। सुषम जी की रचनाएँ मानवीय यथार्थ के भीतर मूल्यों को तलाश करती नज़र आती हैं। 

प्रवासी माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे संस्कार, स्वयं तकलीफ़ भोगकर भी बच्चों को अच्छा भविष्य देने की कोशिश करते हैं। जो ख़्वाहिशें वे ख़ुद के लिए पूरी नहीं कर पाए वही ख़्वाहिशें अपने बच्चों को देना चाहते हैं। बच्चे पाश्चात्य संस्कृति के खुले आसमान में स्वच्छंद रूप से उड़ना चाहते हैं। उन्हें अपने माता-पिता, उनके दिए गए संस्कारों से कोई सरोकार नहीं। संबंधों की टूटन मानसिक द्वंद्व और पारंपरिक मूल्यों का यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में बसा है। प्रवासी साहित्यकार अपने देश से दूर रहने के बावजूद भी उनकी समस्याओं और संवेदनाओं को महसूस कर रहे हैं। वे भारत की धरती से, संस्कृति से उनकी समस्याओं से जुड़े हुए हैं। सुषम बेदी जी ने अपनी लेखनी के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को वैश्विक विस्तार दिया है। 

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