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गिरीश कर्नाड ने नाटक विधा को उसकी समग्रता में साधा है 

भारतीय साहित्येतिहास में साहित्य की अनेक विधाएँ विकसित हुई हैं। अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा नाटक का अपना एक अलग स्वरूप है। नाटक समाज के परिवर्तनों का चित्र समाज को दिखाता है। यह समाज के बदलते स्वरूप को उसकी सर्जनात्मकता संभावनाओं के साथ प्रस्तुत करता है।

गिरीश कर्नाड कन्नड़ के महत्वपूर्ण लेखक थे। साहित्य के अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय रहने वाले श्रेष्ठ लेखकों के साथ यदि उनकी तुलना की जाए तो नाटक की विधा में उनका योगदान अन्यतम है। कन्नड़ नाटकों के इतिहास में पहली बार उन्होंंने नाटक विधा को उसकी समग्रता में साधा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कई विवरणों सहित नाटक के "काव्यात्मक" सौन्दर्य को "तुगलक" और " हयवदन" में दर्शाया है। 

नाटक को एक नया और बड़ा फलक देने में गिरीश जी ने अपार सफलता पाई है। संभवत: शुरूआत के दिनों में उनका रुझान काव्य की ओर था परन्तु बाद में नाटक देखने, लिखने और करने में उनकी रुचि बढ़ गई। 

गिरीश कर्नाड (9 मई 1938–10 जून 2019) एक जाने-माने समकालीन लेखक, एक सशक्त नाटककार, कथाकार और फ़िल्म निर्देशक थे। वे कन्नड़ और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं मे समानाधिकार लिखते थे। उनका बचपन शिरसी में बीता। उनके पिता बंबई मेडिकल सर्विस के डॉक्टर थे। वहाँ रहना उनके लिए एक अद्भुत अनुभव रहा। नाटक कंपनी आती तो शो देखने के लिए पास मिलते थे। मलेरिया से बीमार कंपनी के लोग दवाई के लिए उनके पिता के पास आते और कलाकारों से गिरीश जी का परिचय हो जाता था। शिरसी में रहते समय एक महत्वपूर्ण फ़ायदा यह हुआ कि वहाँ बिजली नहीं थी और दो सिनेमाघरों में ढेर सारे नाटक खेले जाते थे। वहीं के हव्याक ब्राह्मण मौक़ा मिलते ही नाटक खेलते थे, अत: बच्चों को स्त्री पात्रों का अभिनय करने के लिए बुलाते थे। वहाँ नाटक करने से जो अनुभव हुआ, वह एक अद्भुत अनुभव था। वहाँ एक और माहौल से गिरीश जी का परिचय हुआ वह था कहानी सुनाने का। हर कोई हर किसी को कहानी सुनाता था। इस प्रकार से कहानी कहने की एक लोकप्रिय संस्कृति के बीच गिरीश बड़े हुए और गिरीश जी में नाटक देखने का शौक़ पनपा (रस प्रसंग - पृ. 71–72 )। गिरीश कम्पनी नाटकों से अधिक प्रभावित थे। पारसी स्टाईल के कंपनी नाटक। धारवाड में उनके छ: वर्ष के निवास के वक़्त वे मराठी नाटककारों के संपर्क में आए। धारवाड में लगातार नाटक खेले जाते थे। इस प्रकार से थियेटर से उनका संपर्क और गहरा गया। 

गिरीश कर्नाड आर्ट फ़िल्म के अभिनेता, दिग्दर्शन के रूप में जाने जाते हैं।अनेक संस्थाओं से जुड़ने के बाद फिर वहाँ से निकल गए। एक अस्थिरता एक उद्वेग उनके जीवन को घेरे रहा (नाट्यनान्दी - पृ. 101)। 30 वर्ष की उम्र में लिखा "ययाति" उनका पहला नाटक था। बहुत ही चर्चित नाटक रहा। परन्तु इस नाटक की ओर लोगों का ध्यान काफ़ी बाद में गया। गिरीश जी कहते हैं, "मुझे ऐसा लगा कन्नड़ में लिखने से कोई लाभ नहीं। कोई नाटक नहीं करता है।" उनके विचार से "ययाति" जैसे नाटक में एक "इनस्टिंक्टिव स्ट्रकचरिंग" दिखाई देती है; वह उनकी किसी अन्य फ़िल्म में नहीं दिखाई देती है। गिरीश जी कहते हैं, "'ययाति' में चित्रलेखा के चित्रण में जो सफलता मुझे इक्कीसवें वर्ष में मिली उसे देखकर मुझे आश्चर्य होता है।" 

मूलत: कन्नड़ भाषा में रचित "हयवदन" नाटक, स्री-पुरुष संबंधों की त्रासदी, अधूरेपन, बिखराव एवं त्रिकोण प्रेम को लेकर गिरीश कर्नाड जी ने एक महत्वपूर्ण नाटक रचा है। रचनात्मकता, कथावस्तु तथा शिल्प की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण नाटक है। अपनी लोकप्रियता के कारण यह नाटक केवल भारतीय ही नहीं अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हो चुका है। गिरीश कर्नाड ने "हयवदन" में मिथक, पौराणिक कथा, लोककथा, मनोविज्ञान को एक साथ मिलाकर आधुनिक मानवीय जीवन के संबंधों एवं प्रेम रहस्य को अति गम्भीरता से समझाने का प्रयास किया है। नाटक की नायिका पद्मिनी दो पुरुषों से प्रेम करती है। वह अपने पति देवदत्त की सौम्यता, विद्ववता कुलश्रेष्ठता एवं सम्पन्नता का मोह नहीं छोड़ पाती है और न ही कपिल के सुगठित, फ़ुर्तीले और साँवले शरीर से आकृष्ट हुए बिना ही रह पाती है। एक ओर प्रेम का मोह और दूसरी ओर वासना की आकांक्षा। दोनों तरफ़ से अधूरापन। (नाट्यशास्त्र - पृष्ठ 101) हयवदन में नाटककार ने अपनी तीक्ष्ण चिंताधारा और बहुआयामी कल्पनाशीलता से नाटक में बेताल-पच्चीसी का कथा प्रसंग उठाकर नया प्रयोग किया है। देवदत्त और कपिल के सिरों की हेरा-फेरी, रोमांच और रहस्य पैदा करता है। जिससे दो नए चरित्र कपिलदेही- देवदत्त और देवदत्तदेही- कपिल उभरकर नाटक को अधिक जटिल और संश्लिष्ट बनाते हैं। यहाँ पद्मिनी अपनी इच्छानुसार कपिलदेही- देवदत्त को पाकर क्षणिक सुख का अनुभव कर देवदत्तदेही- कपिल का तिरस्कार एवं उपेक्षा करती है, "चलो, देवदत्त! इस उज्जड से क्या उलझना? यहाँ से चलें।" (नटरंग - खंड-26 अंक - 105 पृष्ठ 96) यहाँ आधुनिक स्त्री के वासनापूर्ण जीवन, स्वार्थ, सामाजिक संघर्ष एवं रहस्यमय चरित्र की अभिव्यक्ति होती है। पारंपरिक एवं सामाजिक बंधनों को तोड़कर नारी अपनी इच्छानुसार अपनी शर्तों पर जीवन जीने की कोशिश करती है।

गिरीश कर्नाड परंपरा और आधुनिकता से बारबार टकराते हैं। इस नाटक में प्राचीन काल से चली आ रही देवी-देवताओं के प्रति आस्था धीरे-धीरे टूटती है। नाटककार एक और बात स्पष्ट करना चाहता है वो यह कि एक-दूसरे का सर काटते हुए भी अपना ही सर काट रहे हैं, क्योंकि तब तक सिरों की हेरा-फेरी हो गई होती है। यह आज के सामाजिक जीवन का कटु यथार्थ है। आज का मनुष्य थोड़ी सी सुविधा के लिए दूसरों को हानि पहुँचाकर परोक्ष रूप से अपना ही नुक़सान करता है। पूरे नाटक में दो संस्कृतियों की टकराहट है, स्त्री पुरुष संबंधों में टकराहट है, परंपरा और आधुनिकता की टकराहट है, मस्तिष्क और शरीर में टकराहट है, अंतर्मन और बाह्य जगत के बीच टकराहट है, विचारों और भावनाओं के बीच टकराहट तथा मनुष्य की विविध आन्तरिक गुत्थियाँ, सहज और मनोवैज्ञानिक ढंग से अभिव्यक्त हुई हैं "हयवदन" मेरा प्रिय नाटक है अत: मैंने इसपर विस्तृत रूप से लिखा है। 

उन्नीसवीं सदी से ऐतिहासिक नाटक का लेखन भारतीय नाट्य-परंपरा का महत्वपूर्ण पक्ष रहा है। ऐतिहासिक नाटकों में बड़े पैमाने पर लम्बे, तेज़-तर्रार ढंग से बोले गये संवादों की, दुस्साहसपूर्ण अभिनय की वेश भूषा की गुंजाइश रहती है। ये नाटक बीते युगों की स्मृति को जगाकर एक शौर्यपूर्ण वातावरण की रचना करते हैं। "तलेदंड" गिरीश कर्नाड जी की महत्वपूर्ण नाटकों में से है। भारत की विशेष समस्या जातिप्रथा (cast-problem) को आधार बनाकर इसे रचा गया है। बसवण्णा नामक एक कवि और समाज सुधारक इस नाटक का केन्द्रीय चरित्र है। ई. सन्‌ 1106–1168 के बीच मौजूद बसवण्णा को एक अल्पजीवी "वीरशैव संप्रदाय" का जनक माना जाता है। सन्‌ 1968 ई . से पहले के दो दशकों में कल्याण नगरी में हुई घटनाएँ, कर्नाटक के इतिहास के लिए इस कालखंड में हुए चिंतक एवं द्रष्टा संत बसवण्णा ने कल्याण नगर में कवियों, कार्मिकों, रहस्यवादियों, दार्शनिकों को एक सूत्र में ऐसे पिरो लिया जैसे कभी कहीं एक स्थान पर न तो पहले हो पाया और न ही इसके बाद कभी हुआ। उन्होंने देवता और आदमी सभी के बारे में संस्कृत छोड़ सामान्य भाषा में बात की। मूर्तिपूजा या मंदिर निर्माण का बहिष्कार किया। जो भी कुछ स्थावर था, जड़ था उसे छोड़कर मानव जीवन को ही प्रधान माना। जो गतिशील था उसे ही महत्व दिया। उन्होंने कठिन परिश्रम करके और समर्पित भाव से कार्य के सिद्धांत को स्थापित किया। नारी पुरुष की समानता पर बल दिया। जाति प्रथा का विरोध किया। इससे परंपरावादियों का भयंकर आक्रोश का सामना उनको करना पड़ा और 'शरणा आन्दोलन' आतंक और रक्तपात में डूब गया। इस पंथ से जुड़े लोग "शरण" नाम से जाने जाते हैं। कल्याण नगरी "रक्त कल्याण" हो गई। 

इस नाटक में होनेवाली घटनाओं को घटे आठ सौ साल से भी ज़्यादा हो गए हैं। फिर भी हमारी स्मृति में उन घटनाओं का आतंक आज भी बरक़रार है। कन्नड़ भाषा के कवि, लेखक चिंतक बार-बार उस युग की ओर मुड़कर देखते रहते हैं और बार-बार इसकी सार्थकता को अपने युग प्रसंग में समझने की कोशिश करते हैं। 

"तलेदंड" शीर्षक से गिरीश कर्नाड ने यह नाटक कन्नड़ में 1989 में लिखा, जब मंडल और मंदिर का प्रश्न पुरज़ोर पर था। इस ज्वलंत प्रश्न से यह स्पष्ट हो रहा था कि शरणाओं द्वारा उठाए गए प्रश्न हमारे समय लिए कितने सटीक हैं। लेखक ने इस समूचे घटनाक्रम को बसवण्णा के जीवन से जुड़े तमाम लोक-विश्वासों को झटकते हुए– एक संस्कृतिक जनांदोलन की तरह रचा है। 

"तुगलक" गिरीश कर्नाड द्वारा रचित एक विशिष्ट नाटक है। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि कन्नड़ में ऐतिहासिक नाटकों का प्राय: अभाव सा है। निश्चय ही यही एकमात्र कारण नहीं हुआ होगा। उन्होंने भारतीय इतिहास को पढ़ना आरंभ किया। नाटक के लिए एक विषय की खोज में। ऑक्सफ़ोर्ड में काफ़ी समय रहे थे। इतिहास पढ़ते हुए उनकी नज़र तुगलक पर पड़ी। वह एक पागल राजा माना जाता है। उनके विचार से 'यह एक बढ़िया विषय रहेगा'। ऑक्सफ़ोर्ड में एक इन्डियन इन्स्टिट्यूट है। वहाँ उन्हें "तुगलक" पर काफ़ी सामग्री मिल गई। उनके कहने के अनुसार, "मैं वहाँ गया और बरनी आदि लेखकों के लेख पढ़े और नोट्स लिए। बाद में मैंने महसूस किया कि उसमें बहुत सी बातें हैं जिन्हें उभारा जा सकता है। मैने 'तलेदंड' में उनका बहुत-सा प्रयोग किया। सामग्री के बारे में पहले से ही निश्चय नहीं कर लेना चाहिए। खोज करते रहना चाहिए। आपको इतिहास में, पुराण में, लोकगाथाओं में, अद्भुत और वास्तविक मानवीय संबंध और चरित्र मिलेंगे आपको ऐसी चीज़ें मिलेंगी जिनकी आपने कल्पना भी नहीं की होगी। 'तुगलक' में इमामुद्दीन की कल्पना मूल कथा के साथ जुड़ी है। गढ़ी गई कहानी और दंतकथा के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी मुझे किसी बात की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं थी, उसने पाँच वर्ष तक के लिए प्रार्थना पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह बात मूल 'तुगलक' में है। इन सब ने मुझे बहुत उत्तेजित किया।" ( रंग प्रसंग जुलाई- दिसम्बर 99 पृ . 76) अपने चारों ओर कट्टर मज़हबी दीवारों से घिरा तुगलक कुछ और भी था। उसने मज़हब से परे इन्सान की तलाश की थी। हिन्दु और मुसलमान दोनों उसकी नज़र में एक थे। तत्कालीन मानसिकता ने तुगलक की िस मान्यता को अस्वीकार कर दिया और यही 'अस्वीकार' तुगलक के सर पर सनकों का भूत बनकर सवार हो गया।

इस महान शासक के बृहद आदर्शों, स्वप्नों और आकाश को छूनेवाली आकांक्षाओं में, तदनंतर उसके आमूल पराभव में उन्हें भारतीय समसामयिक वस्तुस्थिति का बोध हुआ होगा। कुछ ही वर्षों में तुगलक की गगनचुंबी योजनाएँ धूल में मिट गईं, अपनी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा बननेवाले सभी व्यक्तियों को उन्होंने मौत के घाट उतार दिया और अंत मे उसने यही पाया कि अपने उलझन भरे अस्तित्व की छायाओं से वह ज़िन्दगी भर लड़ता रहा। निपट अकेला, शवों के झुंड से और अपने ही हाथों किए सर्वनाश से घिरा हुआ वह उन्माद के छोर तक पहुँच गया। ("तुगलक" - अनुवाद बी .बी. कारन्त, भूमिका से) तुगलक ने पाया कि उसकी योजनाओं मे सर्वाधिक विश्वस्त व्यक्ति ही धोखा देते हैं। उसे कोई नहीं समझता है, उसके सपनों का कोई भागी नहीं बनता है। अपने क्षुद्र हितों से हटकर देख पाने की क्षमता किसी में नहीं है। धोखे और विद्रोह के अतिरिक्त और किसी बात को कोई सोच नहीं पाता। अंत में उसकी अपनी सौतेली माँ भी, जिसके प्रति उसे लगाव है उसे धोखा देती है। ऐसी प्रत्येक स्थिति का तुगलक को एक ही हल मालूम है—तलवार की मदद से विरोधियों को ख़त्म कर देना। 

बहुत ही सीमित साधनों की सहायता से कर्नाड अनेक आकर्षण चरित्रों की रचना में सफल हुए। सौतेली माँ, जो तुगलक के प्रति आसक्त है पर उसके और उसके वज़ीरे-आज़म नज़ीब में घनिष्ठता है, नज़ीब तुगलक के प्रति प्रतिबद्ध है। धार्मिक नेता इमामुद्दीन, जिसने तुगलक की सत्ता को चुनौती दी, दरबार का वाक़या- नज़ीब बरनी – जो घटनाओं के चक्र से घबराकर अपने बादशाह को छोड़ जाता है। शहाबुद्दीन, रतनसिंह अजीज, आजम, जवान पहरेदार— ये सभी चरित्र अपनी समग्रता में कल्पित किये गए हैं। कर्नाड ने अपने इस चर्चित नाटक में तुगलक का कथानक मात्र तुगलक के गुण दोषों तक ही सीमित नहीं है इसमें उस समय की परिस्थितियाँ और तर्जनी भावनाओं को भी अभिव्यक्त किया गया है।

गिरीश कर्नाड के नारी पात्र बड़े सशक्त होते हैं। यह बात ययाति में अधिक उभरकर आई है। स्त्री पात्र – शर्मिष्ठा, देवयानी, स्वर्णलता और चित्रलेखा को पुरुषों से अधिक शक्तिशाली दिखाया गया है। कर्नाड स्वीकार करते हैं, "वास्तव में कई स्त्रियों ने मुझसे कहा कि मेरे स्त्री पात्र सबसे ज़्यादा विश्वसनीय हैं। यह भी कहा कि ऐसे पात्र भारतीय रंगमंच पर अन्यत्र उन्हें कम ही देखने को मिले। एक सेमिनार मे कहा गया, 'अग्नि और वर्षा' की विशाखा जैसी पात्र भारतीय साहित्य में है ही नही। वह वास्तव में मौलिक स्त्री पात्र है, क्योंकि उसमे अपराध-बोध नहीं है। वह पहल करती है जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण जानती है। विशाखा हर बात पर क़ाबू रखती है। उन्होंने मुझसे पूछा, "यह कैसे संभव हो पाया?" मैंने ऐसी टिप्पणियों को सदा अपने लिए सम्मान माना है ।" (रस प्रसंग- पृ 77)

संस्कार, वंशवृक्ष, कानून, अंकुर, निशांत, स्वामी और गोधूलि जैसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत एवं प्रशंसित फ़िल्मों मेंअभिनय निर्देशन; बलि नामक एक मौलिक नाटक के रचनाकार, मृच्छकटिकम पर आधारित फ़िल्मालेख, उत्सव के लेखन-निर्देशन तथा एक लोकप्रिय दूरदर्शन धारावाहिक के महत्वपूर्ण अभिनेता थे। 

1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1974 में पद्मश्री, 1992 में पद्मभूषण तथा कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1994 में साहित्य अकदमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों के विजेता गिरीश कर्नाड द्वारा रचित तुगलक, हयवदन, तलेदंड, नागमंडल, ययाति जैसे नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुए और भारत की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद व मंचन हुआ है। प्रमुख भारतीय निर्देशक– इब्राहिम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविंद गौड़ और बी .बी. कारन्त ने इनका अलग-अलग तरीक़े से प्रभावी व यादगार निर्देशन किया। 

सिनेमा के क्षेत्र में 1980 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ पटकथा - गोधूलि, बी.वी. कारंत के साथ) इसके अतिरिक्त कई राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। 

इस प्रतिष्ठित नाटककार के जीवन में और अनेकानेक उपलब्धियाँ है। नाट्य विधा को एक उच्च स्तर तक पहुँचाने के लिए गिरीश कर्नाड जी का प्रयास प्रशंसनीय है। 

संदर्भ ग्रंथ—

  1. रक्त कल्याण: ले. गिरीश कर्नाड। अनुवाद - रामगोपाल बजाज।
  2. तुगलक: ले. गिरीश कर्नाड। अनुवाद - बी. वी . कारन्त।
  3. नाट्यनान्दी: ले. प्रो.भरत महेता गुजराती विभाग(म. स. वि .वि . बडौदा)
  4. रस प्रसंग: जुलाई- दिसम्बर अंक 1999 
  5. नटरंग: खंड 26 : अंक 105 

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