चित्रा मुद्गल जी हमारे समय की अग्रणी साहित्यकार हैं
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. रानू मुखर्जी1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
चित्रा मुद्गल जी के लेखन में एक ओर नष्ट होती मानवीय संवेदनाओं की तलाश है तो दूसरी ओर तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में शामिल ज़िन्दगी की विवशताओं में अपसंस्कृति की गर्त में धँसते जा रहे क्षरित जीवन का चित्र है। उनके पात्र रूढ़ सामाजिक मूल्यों का अतिक्रमण करते हैं।
वे पहली महिला रचनाकार हैं जिन्होंने ट्रेड यूनियन पर और मज़दूर आंदोलन पर ‘आंवां‘ जैसा महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखा। उनके लेखन के केंद्र में केवल स्री नहीं संपूर्ण मनुष्य है, जिसमें स्री भी एक हिस्सा है। उनके अधिकांश रचनाओं के महानगरीय जीवन के अंतरविरोध, संघर्ष और पात्र हैं। लेकिन वहाँ ऐसे चरित्र भी हैं जिनकी स्मृतियों में से गाँव अभी मिटा नहीं है। गाँव से पलायन कर नगरीय सभ्यता संस्कृति से समझौता न कर पाने की विवशता-द्वंद्व का अहसास एक साथ दृष्टिगत होता है। एक ऐसा जीवन जिसका कोई विकल्प नज़र नहीं आता है। ‘आंवा’, ‘एक ज़मीन अपनी ’, ‘गिलिगडु’ में यह संघर्ष दिखाई देता है।
उनके उपन्यासों-कहानियों में एक ओर समाज के पाखण्ड, स्रियों की सत्ता-व्यवस्था-बाज़ार द्वारा शोषण, मज़दूर आन्दोलन, संघर्ष, ट्रेड यूनियन की राजनीति के अंतर्विरोध, प्रतिद्वंद्विता, छल-छद्म, सामाजिक सरोकार संघर्ष, बदलते जीवन मूल्य हैं, दूसरी ओर इस बाह्य जगत के बरक्स एक अदृश्य दुनिया है जिसमें पात्रों के जीवन प्रसंगों की विविधता, मनो जगत की अँधेरी गलियाँ, द्वंद्व, अकेलेपन, मौन सवाल-अनेक रूप सामने आते हैं।
‘आंवा’ की नमिता पांडे, ‘एक ज़मीन अपनी’ की स्वभिमानी अंकिता, ‘गिलिगडु’ के अकेलेपन में निर्वासित जसवंत सिंह से लेकर उपन्यास ‘पोस्ट बाॅक्स नं 203-नाला सपोरा’ के विनोद उर्फ़ बिन्नी तक संघर्ष, अकेलेपन, यातना और जिजीविषा की अनवरत यात्रा है। चित्रा जी के उपन्यास-कहानी पाठक को यथार्थ के उस रूप से परिचय कराते हैं जो उनके अनुभव के दायरे से, रोज़ देखते सुनते हुए भी छूट जाता है। लेखक के साथ हम ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं, जहाँ हम होकर भी नहीं होते।
चित्रा जी कथा साहित्य के सरोकारों से जूझती हैं और अपने समय के यथार्थ को नए शिल्प में तराशती हैं। वास्तव में उनके उपन्यास में केवल कथ्य नहीं होता, उपन्यास लेखक के अपने विचार भी होते हैं जो रचनात्मक संवेदना के अंग होते हैं। ‘पोस्ट बाक्स नं 203 नाला सपोरा’ उपन्यास में लिंग दोषी (हिजड़ा समुदाय) की समस्या, उसकी छटपटाहट और संघर्ष चेतना को बिनोद उर्फ़ बिन्नी के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। किन्नरों के प्रति समाज की संवेदनहिनता और अमानवियता को अत्यंत संवेदनशीलता से व्यक्त करने में चित्रा जी को अभूतपूर्व सफलता मिली है, वह विरल है। वर्तमान सदी की अनेक चुनौतियों से जूझता हुआ कथाकार, चित्रा मुद्गल का संवेदनशील मन यह सोचकर छटपटा उठता है कि इस समाज में मनुष्य को मनुष्य समझने वाली मानसिकता कहाँ लुप्त हो गई? वे समाज से पूछती हैं कि जब समाज से सती प्रथा, बाल-विवाह, दलितों से भेदभाव आदि कुरीतियों को मुक्त किया गया तो इस दिशा में कोई पहल क्यों नहीं की गई? चित्रा जी की यह पक्षधरता अत्यंत स्पष्ट और पारदर्शी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चित्रा जी के पास प्रभावशाली कथ्य और कथा भाषा है। स्पष्ट अभिव्यक्ति है। कुछ नया कहने और अभिशप्त लोगों की अभिशप्त नियति को महसूस करने की संवेदना है।
मुंबई के ‘नाला सोपारा’ में रहते हुए चित्रा जी की मुलाक़ात एक किन्नर से हुई, जिसे घर से निकाल दिया गया था। 1974 में बान्द्रा के पत्रकार नगर वाले फ़्लैट में उन्होंने उसे अपने साथ कुछ समय रखा भी था। यहीं से उनकी चेतना में इस उपन्यास को लिखने की शुरू हो गई थी। शारीरिक कमी के कारण किसी इन्सान को असामाजिक बना देने की क्रूर विडम्बना से उनकी संवेदना इतनी आहत हो उठी कि उन्होंने इस पर पूरा उपन्यास ही लिख दिया। उन्होंने कहा भी है—मुझे इसे लिखते हुए यह लगा कि समंदर के तलछट को जैसे किसी ‘मैग्नीफ़ाइंग ग्लास’ के सहारे देख पा रही हूँ। मेरा उससे और उसके परिवार से गहरा रिश्ता रहा है।
‘गिलिगडु’ शब्द मलयालम के ‘किली कलु’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘चिड़िया’। उपन्यास में कर्नल स्वामी अपनी जुड़ुवाँ पोती को गिलिगडु बुलाते हैं। यह नाम प्रतिकात्मक अर्थ लिया हुआ है। ‘गिलिगडु’ उपन्यास की कथा परिवार में बूढ़े माता-पिता के प्रति बेटे-बहू के दायित्वहीन व्यवहार को केंद्र में रखकर लिखी गई है। जसवंत सिंह पत्नी के देहांत के बाद अपने बहू-बेटे के पास नोएडा के फ़्लैट में रहने आते हैं अपने बाक़ी जीवन को बेटे बहू और पोतों के साथ हँसी ख़ुशी में बिताने के लिए, परन्तु उनकी यह कल्पना कोरी सिद्ध होती है। वृद्धों की कथा द्वारा लेखिका ने वर्तमान पीढ़ी की संवेदनहीन व्यवहार को उतार खोला है। बीते 20-30 वर्षों में भूमंडलीकरण ने वार्द्धक्य के इस मानसिक और भावनात्मक ह्रास को और गहरा किया है।
संघर्ष की उर्वर ज़मीन से साहित्य का सृजन होता है यह सुना था, लेकिन जब आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य की बहुचर्चित लेखिका, साहित्यकार चित्रा मुद्गल जी के रचनात्मक व्यक्तित्व को पढ़ा तो जाना कि उनका संघर्ष और साहित्य समानांतर चल रहा है। यही कारण है कि उनके उपन्यासों के किरदार आसपास से गुज़रते से लगते हैं। उनका पहला उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ जिसे अंग्रेज़ी में ‘The crusade’ नाम से अनुवाद भी किया गया है। यह अंकिता की कहानी है जो फ़िल्मरस नाम की विज्ञापन कंपनी में एक फ़्रीलांसर है। उसकी तो बस यही इच्छा है कि उसे इस क्षेत्र में एक नौकरी मिल जाए। कुछ दिन छुट्टी के बाद जब वह इन्दौर से वापस आती है तो उसे पता लगता है कि जिस कम्पनी से वो पक्की नौकरी की आस लगाए बैठी थी—वहीं से उसे टाला जा रहा है। वो हैरान-परेशान हो जाती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है अंकिता के जीवन में मुश्किलें तो आती हैं साथ ही अवसर भी आते हैं। इन दोनों के बीच वो अपनी जगह बनाने की जद्दोजेहद में लगी रहती है। इस उपन्यास में अंकिता के सिवाय नीता भी एक महत्त्वपूर्ण किरदार है। नीता बिंदास है। नीता और अंकिता में बहस चलती है। हरीन्द्र भी एक महत्त्वपूर्ण किरदार है जो कि अंकिता के जीवन को सबल बनाना चाहता है, और ऐसे उपन्यास आगे बढ़ता है।
चित्रा मुद्गल रचित ‘आंवा’ स्री-विमर्श का वृहद् आख्यान है। स्री-विमर्श का उपन्यास होते हुए भी ‘आंवा’ की दृष्टि स्रीवादी नहीं है, वह एक श्रमजीवा की दृष्टि है, कामगार की दृष्टि, इसीलिए ऊपरी तौर पर वह श्रमिक राजनीति पर लिखा गया उपन्यास लगता है। सजग पाठक जानते होंगे कि आंवा मात्र नारी विमर्श की ही कृति नहीं है बल्कि इसमें बहुत से ज़रूरी संदर्भ भी आए हैं, जैसे श्रमिक जीवन, श्रमिकों को लेकर ट्रेड यूनियन के बहुत से आयाम, क्रांति का आलाप जपते दलित, दलित विमर्श, उलझे-सुलझे रिश्ते इत्यादि। ‘आंवा’ का अर्थ होता है मिट्टी के बरतन को पकाने वाला भट्टा। कुल मिलाकर हर तरह की स्री का जीवन ‘आंवा’ उपन्यास का आधार बिन्दु है।
वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल जी अपने पूरे लेखन में अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराती हैं। उन प्रश्नों और समस्याओं को एक दिशा देने की कोशिश के साथ अपने लेखन की प्रासंगिकता को स्थापित करने के लिए वो सचेत तो हैं ही, सचेष्ट भी रहती हैं। इस उपन्यास में अपने परस्पर विरोधी, दोनों वर्गों को समानांतर रखते हुए कथा का ताना-बाना बुना गया है। एक ओर महानगर मुंबई के भील मज़दूरों की क़ानूनी अधिकारों की माँग से उपजी टकराहटों का वृत्तांत है तो साथ ही उन्हीं मज़दूरों के कोमल और करुण प्रसंगों की अनगिनत कथाएँ भी हैं।
किन्नरों के जीवन को उद्घाटित करता यह तीसरा उपन्यास तीसरे विमर्श की अस्मिता पर बल देता है। हमारी सभ्य सोसायटी किन्नरों को लेकर कितनी असभ्य है, इसकी बानगी इस उपन्यास में देखने को मिलती है। सामाजिक उपेक्षा और आर्थिक तौर पर न्यून संसाधनों की वजह से किन्नरों को लगातार श्रम करना पड़ता है। वैवाहिक और अन्य मांगलिक अवसरों पर किन्नरों की उपस्थिति शुभ मानी जाती है इन सब बातों का संदर्भ ‘पोस्ट बाॅक्स नं 203 नालासपोरा’ में चित्रा जी ने दिया है।
साहित्य-साधना करते हुए चित्रा जी कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़ीं। महिलाओं की सामाजिक संस्था ‘जागरण’ से जुड़ी रहीं, जो उच्चवर्ग के घरों में काम करनेवाली नौकरानियों के साथ होनेवाले शोषण का विरोध कर उनके अधिकार दिलाने पर दृढ़ संकल्प थी।
चित्रा जी जागरण से जुड़ने के पश्चात झोपड़-पट्टियों में काम करनेवालियों के नारकीय जीवन के संपर्क में आईं। वह ऐसे लोगों के संपर्क में आईं जो भीख, पाकेटमारी, चोरी, देह व्यापार, दारू, साग-सब्ज़ी, ड्राइवरी, फेरी, सिनेमा के टिकटों की कालाबाज़ारी करते हुए एक जून की रोटी को मोहताज है। वह ‘मध्य प्रदेश महिला मंच’ में ‘एकता की सहेली’ के रूप में सक्रिय कार्यकर्ता रहीं।
चित्रा मुद्गल जी की कहानियों की विशेषता यह है कि उनमें स्री संघर्ष के साथ-साथ, उसके इर्द-गिर्द रचे-बसे समुदाय के जीवन का संघर्ष भी ईमानदारी के साथ उपस्थित हुआ है। चित्रा जी की कहानी की विशेषता यह है कि स्री की विस्तृत परिधि को पूरी ईमानदारी के साथ पकड़ती है। इससे स्री चेतना अलग-थलग नहीं, बल्कि सामूहिक रूप में दिखाई देती है।
‘जिनावर’ कहानी में एक जानवर के बहाने पूरी महानगरीय व्यवस्था एवं पूँजीवादी व्यवस्था की त्रासदी सामने आ जाती है। जानवर तो पूरा का पूरा समाज ही है। पशु और मनुष्य का यह रिश्ता व्यवसायिक भी है और मार्मिक भी। पशु की पशुता संवेदना और समर्पण की कसौटी पर मनुष्यता को पीछे छोड़ देती है। असलम की पशुता उसकी मजबूरी है अन्य लोगों की पशुता उनका स्वभाव है। जानवर आधुनिक वाहनों की दौड़ में पीछे छूटता जा रहा है और उसके साथ रहनेवाला मनुष्य भी।
‘बेईमान’ कहानी एक निम्न वर्ग के किशोर की कहानी है। श्रम हमेशा से हमारे समाज में अभिशप्त रहा है अतः श्रम के शोषण की विडम्बना कहानी में दिखाई देती है। इस कहानी में पत्रिका बेचनेवाला लड़का बेईमान दिखता है पर वह बेईमान नहीं है। उसका मालिक बेईमान नहीं दिखता है पर वास्तव में वही बेईमान है। इस कहानी में सारा आभिजात्य समाज बेईमान दिखता है। कहानी बेईमानी की एक नई ब्याख्या लेकर आती है। कहानी लोकप्रिय पत्रिका के बाज़ार के सच को भी उभारती है।
‘त्रिशंकु’ कहानी एक किशोर के जीवन की त्रासद और मार्मिक स्थिति का बयान करती है। माता-पिता के उजड़े और बिखरे संबंधों के बीच बंडू त्रिशंकु बना हुआ है। यह कहानी निम्न वर्गीय समाज की आर्थिक और सामाजिक विडम्बनाओं का दस्तावेज़ है। आर्थिक विपन्नता और पारिवारिक कलह किस प्रकार बच्चों का सब कुछ छीन लेते हैं—इस त्रासदी को व्यक्त करती है यह कहानी।
बच्चे माँ के क़रीब होने के कारण माँ की तकलीफ़ों को साझा करना चाहते हैं, इसके लिए वे हर जोखिम को उठाने के लिए तैयार होते हैं। अतः बंडू माँ की ज़िन्दगी बदलने की ज़िद में अपनी ज़िन्दगी बदल लेता है।
चित्रा जी की कहानियाँ युगबोध से पूरी तरह सम्पन्न हैं। वे कहानियों में बौद्धिकता और संवेदना का बेहतर संतुलन बनाए रखती हैं। उनकी कहानियों विमर्श का उतावलापन नहीं है। उनकी कहानियाँ नए-नए बिम्बों को लेकर आती हैं।
अतः कहा जासकता है कि चित्रा जी के लेखन में घटनाओं का वर्णन ही सब नहीं होता, दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति का भी महत्त्व होता है।
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