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मृणाल सेन अपने समय के इतिहासकार थे

 

मृणाल सेन भारतीय फ़िल्मों के प्रसिद्ध निर्माता व निर्देशक हैं। इनकी अधिकांश फ़िल्में बांग्ला भाषा में हैं। बंगाली, उड़िया, तेलगु और हिन्दी फ़िल्मों में समान रूप से सक्रिय रहे। मृणाल सेन भारत में समानांतर सिनेमा आन्दोलन के अग्रणी माने जाते हैं। 

इनका जन्म (14 मई 1923) फरीदपुर, बांग्लादेश में हुआ और मृत्यु (30 दिसंबर 2018) कोलकाता में हुई। अपने समकालीन सत्यजित रे, ऋत्विक घटक और तपन सिन्हा के साथ बेहतरीन फ़िल्म निर्माताओं में से एक माने जाते हैं। 

अपने समय के सक्रिय वामपंथी रहे। उनका विवाह गीता सेन के साथ हुआ था जो फ़िल्म अभिनेत्री थीं। उनकी मृत्यु मृणाल सेन से एक वर्ष पूर्व हुई। फ़िल्मों में जीवन के यथार्थ को रचने के लिए जुड़े और पढ़ने के शौक़ीन मृणाल सेन ने फ़िल्मों के बारे गहराई से अध्ययन किया। सिनेमा के विषय में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं, ‘न्यूज़ ऑन सिनेमा’ (1977), ‘सिनेमा, आधुनिकता’ (1992) प्रतिष्ठित हैं। 

मृणाल सेन की 1969 की क्लासिक फ़िल्म भुवन सोम में एक दृश्य है, जहाँ पर्दे पर विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सत्यजित राय और रविशंकर को एक साथ दिखाया गया है, फिर एक आवाज़ यह कहती है: “बाँग्ला! सोनार बाँग्ला! महान बाँग्ला! विचित्र बाँग्ला!” इसके साथ ही, एक बम विस्फोट की आवाज़ के साथ दिखाया गया, अशांति, हिंसा और विरोध का दृश्य है। 

मृणाल सेन ने फ़िल्मों में निर्देशन की शुरूआत 1956 में बाँग्ला फ़िल्म ‘रात भोर’ से की। 1958 में उनकी दूसरी सफल फ़िल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ आई। इस फ़िल्म में उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन’ में चीनियों के जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष दिखाया है। 1960 कई उनकी फ़िल्म ‘बाइशे श्रावण’ जो कि 1943 में बंगाल में आए भयंकर अकाल के बारे में थी। ‘आकाश कुसुम’ 1965 के निर्देशन से मृणाल सेन एक प्रतिष्ठित निर्देशक के रूप से जाने जाने लगे। 

मृणाल सेन की अन्य सफल बाँग्ला फ़िल्मों में: ‘इन्टरव्यू’ (1970), ‘कलकत्ता 71’ (1972), और ‘पदातिक’ (1973) हैं जिसे ‘कलकत्ता ट्रायोलोजी’ कहा जाता है। 

‘इंटरव्यू’ (1971) प्रसिद्ध भारतीय कला फ़िल्म निर्देशक मृणाल सेन द्वारा निर्देशित एक बाँग्ला फ़िल्म है। कथा में नवीनता और सिनेमाई तकनीक के कारण यह एक अग्रणी फ़िल्म रही। यह फ़िल्म व्यवसायिक और आलोचनात्मक रूप से सफल रही। यह फ़िल्म कलाकार रंजीत मल्लिक की भी पहली फ़िल्म थी। हालाँकि यह औपनिवेशिकता पर बनी फ़िल्म है, लेकिन इसमें सत्ता-विरोधी, मध्यमवर्ग की कायरता और बेरोज़गारी जैसे विविध मुद्दों को उभारा गया है। 

रंजीत मल्लिक एक स्मार्ट युवक है। उनके एक पारिवारिक मित्र, जो कि एक विदेशी फ़र्म में कार्यरत हैं, रंजीत को अपनी फ़र्म में एक आकर्षक नौकरी का आश्वासन देते हैं। शर्त केवल यह थी कि रंजीत को वेस्टर्न स्टाइल का सूट पहनकर इंटरव्यू के लिए जाना है। 

अगर देखा जाय तो बात बहुत ही साधारण है, परन्तु होता कुछ और ही है। श्रमिक संघ की हड़ताल शुरू हो जाती है, जिसका मतलब यह होता है कि उसे लाॅन्ड्री से अपना सूट वापस नहीं मिल सकता है। उसके पिता का पुराना सूट उसे फ़िट नहीं आता है। रंजीत एक सूट उधार लेते हैं। लेकिन बस में हुए एक झगड़े में वह उसे खो देते हैं। अंतत: रंजीत को पारंपरिक बंगाली पोशाक, धोती और कुर्ते में इंटरव्यू देने के लिए जाना पड़ता है। इस फ़िल्म में रंजीत मल्लिक: रंजीत के रूप में, रंजीत की माँ के रूप में करुणा बनर्जी ने, रंजीत की प्रेमिका के रूप में बुलबुल मुखर्जी ने और इस फ़िल्म से जुड़े विभिन्न कलाकारों ने अभिनय में अपनी दक्षता का प्रदर्शन किया है। 

‘कोलकाता 71’ (1971) में माणिक बन्दोपाध्य, प्रबोध सान्याल और समरेश बसु की अलग-अलग कहानियाँ शामिल हैं। कलकत्ता 71 युगों-युगों से हो रही हिंसा और भ्रष्टाचार का वर्णन करती है। यह फ़िल्म प्रतिष्ठित लेखकों की चार लघु कहानियों पर आधारित है। एक सशक्त बयान देने के लिए सभी कहानियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सत्तर के दशक की राजनैतिक उथल-पुथल का सीधा अध्ययन, ‘कोलकाता 71’ में आम लोगों की पीड़ा को दर्ज किया गया है। इसमें ऐसे दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं जो भारतीय सिनेमा में शायद ही कभी फ़िल्माए गए हों। मृणाल सेन 1966 से इस फ़िल्म की विषय वस्तु को एकत्रित करने के लिए जुटे रहे। इसे बनाने में पाँच साल लगे। और 1972 में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई। 

‘पदातिक’ (1973) यह फ़िल्म मृणाल सेन की कलकत्ता त्रयी की दूसरी फ़िल्म मानी जाती है। यह फ़िल्म सत्तर के दशक को दर्शाती कहानियों का संग्रह है। नक्सली गतिविधि, आमलोगों की भुखमरी, सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार को दिखाया गया है। फ़िल्म में चार कहानियाँ दिखाई गई हैं। 

एक राजनीतिक कार्यकर्ता जेल वैन से भाग जाता है और उसे एक संवेदनशील युवा महिला के अपार्टमेंट में आश्रय मिलता है। अपार्टमेंट उस महिला का अपना होता है और वह उस आलीशान मकान की मालिकिन होती है। दोनों ही विद्रोही हैं—एक राजनीतिक विश्वासघात के ख़िलाफ़ सक्रिय और दूसरा सामाजिक स्तर पर। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों का ही कटु अनुभव है। एकांत कारावास में रहते हुए, भागा हुआ आसामी स्वयं की आलोचना में व्यस्त रहता है। वहाँ बैठे-बैठे नेतृत्व पर सवाल उठाता है। प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं है। अप्रसन्नता कटु परिस्थिति को जन्म देती है। संघर्ष को जारी रखना होगा, राजनीतिक कार्यकर्ता, जो अब अलग हो गए हैं, और निर्वासित महिला दोनों के लिए। इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला—जो मृणाल सेन और आशीष बर्मन को मिला। इस फ़िल्म में धृतिमान चटर्जी, सिमी ग्रेवाल, बिजोन भट्टाचार्य ने अद्भुत अभिनय किया है। 

मृणाल सेन ने अपने पीछे काम की एक शानदार शृंखला छोड़ी है। जिनमें से अधिकांश को भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर माना जाता है, जिनमें ‘नील आकाशेर नीचे’ (1959) भी शामिल है। ‘बाइसे श्राबन’(1960), ‘आकाश कुसुम’ (1965), ‘भुवन सोम’ (1969), ‘इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 71’ (1972), ‘पदातिक’ (1973), ‘मृगया’ (1976), ‘एक दिन प्रतिदिन’ (1979), ‘अकालेर संधाने’ (1980), ‘ख़ारिज’ (1982) और ‘खंडहर’ (1983) आदि इनकी प्रतिष्ठित फ़िल्म हैं। 

इतालवी नव यथार्थवाद से प्रेरित, समानांतर सिनेमा फ़्रैंच न्यू वेव और जापानी न्यू वेव से ठीक पहले शुरू हुआ, और 1960 के दशक की भारतीय न्यू वेव का अग्रदूत था। इस आन्दोलन का नेतृत्व शुरू में बंगाली सिनेमा ने किया था और सत्यजित रे, मृणाल सेन ऋत्विक घटक, तपन सिन्हा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित फ़िल्म निर्माताओं को तैयार किया था। बाद में इसे भारत के अन्य फ़िल्म उद्योगों में प्रमुखता मिली। 

समानांतर सिनेमा यह अपनी गंभीर विषय वस्तु, यथार्थवाद और प्रकृतिवाद के लिए जाता है। उस समय के सामाजिक-राजनीतिक माहौल पर गहरी नज़र रखनेवाले प्रतिकात्मक तत्वों से समृद्ध है। मुख्य धारा की भारतीय फ़िल्मों की विशिष्टता और सम्मिलित गीत और नृत्य, दिनचर्या की सामान्य प्रवृत्ति को अस्वीकार करते हुए मुख्यधारा की भारतीय फ़िल्मों से विशिष्ट है। 

1950 और 1960 के दौरान, बौद्धिक फ़िल्म निर्माता और कहानीकार संगीतमय फ़िल्मों से निराश हो गए। इसका मुक़ाबला करने के लिए उन्होंने फ़िल्मों की एक ऐसी शैली बनाई जिसमें कलात्मक दृष्टिकोण से वास्तविकता को दर्शाया गया। इस अवधि के दौरान बनी अधिकांश फ़िल्मों को भारतीय फ़िल्मों की एक प्रमाणिक शैली को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा वित्त घोषित किया गया था। सबसे प्रसिद्ध भारतीय ‘नव यथार्थवादी’ बंगाली फ़िल्म निर्देशक सत्यजित राय थे। उनके बाद श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अपूर्व गोपालकृष्णन, जी अरविंदन और गिरीश कासारवल्ली थे। सत्यजित राय की सबसे प्रसिद्ध फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ (1955), ‘अपराजिता’ (1956) और ‘अपुर संसार’ (1959) थी, जिसने ‘अपु त्रयी’ का गठन किया। तीनों फ़िल्मों ने कान्स, बर्लिन और वेनिस फ़िल्म समारोह में बड़े बड़े पुरस्कार जीते और आज इन्हें सर्वकालिक महान फ़िल्मों की श्रेणी में रखा जाता है। 

हिन्दी सिनेमा के सबसे सफल फ़िल्मकारों में ‘हृषीकेश मुखर्जी’ का नाम ‘मध्य सिनेमा’ के अग्रणी के रूप में जाना जाता है। वे मध्यमवर्ग की बदलती परिस्थित को बड़ी दक्षता के साथ दर्शाते थे। उन्होंने ”मुख्यधारा के सिनेमा की विशेषता और कला सिनेमा के वास्तविकता के बीच एक मध्य मार्ग बनाया।” और व्यवसायिक सिनेमा को एकीकृत करने वाले फ़िल्म निर्माता थे। एक प्रसिद्ध कला फ़िल्म के सफल होने का श्रेष्ठ उदाहरण हरप्रीत संदूक कनाडियन-पंजाबी फ़िल्म ‘वर्क वेदर वाइफ़’ है। पंजाबी फ़िल्म उद्योग में सिनेमा के शुरूआत का प्रतीक है। मृणाल सेन ने केवल बाँग्ला भाषा में ही नहीं बल्कि हिन्दी, उड़िया और तेलगु भाषा में भी कई फ़िल्में बनाई। 

सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ख्वाजा अहमद अब्बास, बुद्धदेव दासगुप्ता, चेतन आनंद, गुरु दत्त और वी. शांताराम जैसे अग्रदूत द्वारा 1940 के दशक के अंत से समान्तर सिनेमा आन्दोलन ने आकार लेना शुरू किया। इस काल को भारतीय सिनेमा के ‘स्वर्ण युग’ का हिस्सा माना जाता है। 

भारतीय सिनेमा में मृणाल सेन का योगदान अद्वितीय है। उनकी लगभग सभी फ़िल्में आज भी प्रासंगिक हैं। सिनेमा की दुनिया में मृणाल सेन ‘मृणाल दा’ के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने 1969 में ‘भूवन सोम’ नामक फ़िल्म बनाई थी जिसे हिन्दी में समानांतर सिनेमा का शुरूआत माना जाता है। कुल 28 फ़ीचर फ़िल्मों का निर्देशन करने वाले मृणाल दा द्वारा निर्मित ‘एक अधूरी कहानी’, ‘मृगया’, ‘खंडहर’, ‘जेनेसिस’ और ‘एक दिन अचानक’ जैसी श्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्में भी हैं। 

रोचक बात यह है कि मृणाल सेन को हिन्दी नहीं आती थी। फिर भी फ़िल्म निर्देशन में भाषा कभी आड़े नहीं आई। जिस भाषा में भी उन्होंने फ़िल्म बनाई उसी भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया। फ़िल्म बनाते समय लोक व्यवहार की भाषा और व्यवहार के प्रति संवेदनशील और सावधान रहते थे। इन सब के बावजूद मृणाल दा हर समय फ़िल्म को तीन कसौटियों पर कसते थे। पहला टेक्स्ट, जिस पर फ़िल्म आधारित होती है। दूसरा, सिनेमा का फ़ॉर्म, जिसमें कलाकारों के प्रदर्शन पर ध्यान दिया जाता है और तीसरा, समय, जब फ़िल्म अपनी समकालीनता से जुडती है तभी प्रासंगिक बनती है। 

कदाचित इन कसौटियों पर कसने के कारण ही मृणाल दा ने 28 श्रेष्ठ कला फ़िल्में, तीन महत्त्वपूर्ण वृत्तचित्र और दो टेली फ़िल्म बनाईं। इनकी अधिकांश फ़िल्में बाँग्ला भाषा में ही रही। उन्हें वैश्विक मंच पर बंगाली समानांतर सिनेमा के सबसे बड़े अग्रणियों में एक माना जाता है। 1955 में पहली फ़िल्म ‘रात भोर’ बनाने के पश्चात उन्होंने अगली फ़िल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ बनाई जिसने उनको स्थानीय पहचान दी और फ़िल्म ‘बाईशे श्रावण’ ने उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया। 

1969 में बनी मृणाल सेन द्वारा निर्देशित ‘भुवन सोम’ हिन्दी फ़िल्म है। बलाई चन्द्र मुखोपाध्याय की कहानी पर आधारित इस फ़िल्म को आधुनिक भारतीय सिनेमा में एक मील का पत्थर माना जाता है। यह फ़िल्म भारत में आर्ट हाउस या न्यू वेब सिनेमा के रूप में जाने जाने वाले शुरूआती प्रयासों में से एक है। 

भुवन सोम 1940 के दशक में रेलवे में एक ईमानदार और अनुशासन प्रिय बंगाली अधिकारी हैं। 50 वर्ष के अकेले विधुर सोम इतने कठोर है कि अपने बेटे भी नौकरी से, बीन बताए छुट्टी पर जाने के कारण, निकाल दिया। अतः उसके साथ काम करने वाले उनसे असंतुष्ट रहते और उनके पीठ पीछे उनकी निन्दा करते रहते। पर इन सबसे भुवन सोम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। अपने उसूलों पर उन्हें गर्व था और अपने उसूलों की रक्षा बड़ी दक्षता के साथ करते थे। 

कहानी में मोड़ तब आता है जब एक दिन वे अचानक ऑफ़िस की चारदीवारी से निकलकर कच्छ इलाक़े में गाँव की एक चंचल युवती से मिलते हैं। युवती का पति रेलवे में कर्मचारी है। देहात का धूल-भरा जीवन लेकिन यहाँ का सहज सरल जीवन का सौंदर्य उनको आकर्षित करता है। यहाँ पर आकर उनका जीवन को देखने का दृष्टिकोण बदल जाता है। उनके मन से कठोरता कम होने लगती है। 

कुछ समय के पश्चात उनकी ज़िन्दगी से ऊब कम होने लगती हैं और छुट्टियों में गुजरात का कच्छ भ्रमण उनके जीवन को बदल देता है। 

जंगल प्रदेश में पक्षियों के शिकार की यात्रा पर निकल जाते हैं। उस नई दुनिया में साधारण, अनपढ़ ग्रामीण लोग, लम्बी मिट्टी की पगडंडियों पर बैलगाड़ी का चलना, ग़ुस्सैल भैंस और गौरी शामिल है। गौरी में, सोम को मरती हुई दुनिया में एक ताज़ा, धड़कती, हुई धड़कन मिलती है। अचानक सब कुछ जगमगा उठता है। रेलवे का वह कठोर नौकरशाह एक अल्हड़ बच्चा बन जाता है। 

फ़िल्म को मानवीय एकांत और साहचर्य की लालसा पर एक ग्रंथ के रूप में भी देखा जा सकता है। जहाँ एक शहरी नौकरशाह अपने आसपास के सभी लोगों के प्रति कठोर बर्ताव करता है, वही गाँव के लोग अजनबियों के प्रति मिलनसार और मददगार होते हैं। ‘भुवन सोम’ मानवीय सौहार्द और विश्वास पर आधारित फ़िल्म है। गौरी (सुवासिनी मुले) गाँव की सरल भोली लड़की एक अजनबी की मदद करती है। 

भुवन सोम अपने पक्षी शिकार के दौरान गौरी पर आँख मूँदकर भरोसा करते हैं। 

फ़िल्म का सबसे आकर्षक दृश्य तब आता है जब गौरी भुवन को एक ‘पुरानी हवेली’ के आसपास को दिखाती है और वहाँ रहनेवाले राजाओं और महाराजाओं की कहानियों को याद करती है। एक रानी की कहानी को याद करती है जिसका उसी स्थान पर झूला था। वह अपनी बाँहें ऊपर उठाती है जैसे झूले पर बैठी हो और के के महाजन (फोटोग्राफी के निर्देशक) झूले की गति का आभास देने के लिए ज़ूम इन और ज़ूम इन करते हैं। महाजन कैमरे का उपयोग इस तरह से करते हैं कि सोम पर छाए अकेलेपन को उजागर करता है और धीरे-धीरे अन्य लोगों को जगह देता है जिनका अब उनके जीवन में स्थान है। उत्पल दत्त ने भुवन सोम के चरित्र में जान डाल दी है। भुवन सोम के किरदार को जीवंत कर दिया। इसके साथ ही सुवासिनी मुले का जीवंत अभिनय की जितनी तारीफ़ की जाय कम है। इस फ़िल्म से भारत में ‘नई धारा सिनेमा आन्दोलन’ की शुरूआत हुई। 

इसके बाद उन्होंने जो भी फ़िल्में बनाई सब राजनीतिक हैं। इस तरह से उन्होंने एक मार्क्सवादी के रूप में ख्याति अर्जित की। भारत में उस समय राजनीतिक अशांति का समय भी था। विशेषकर कोलकाता और उसके आसपास, इस अवधि को नक्सली आंदोलन के रूप में जाना जाता है। इस दौर के बाद उनकी फ़िल्मों की एक नई शृंखला आई। जिसमें उन्होंने अपना ध्यान बाहर के दुश्मनों के बजाय, अपने मध्यमवर्गीय समाज के भीतर के दुश्मनों पर केंद्रित किया। 

मृणाल सेन अपने समय के इतिहासकार थे; यह इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने अपने दृश्यों को समसामयिक घटनाओं के साथ जोड़ा। वह और उनके कैमरामैन अक़्सर राजनीतिक संघर्ष और सामाजिक अशांति के दृश्यों पर उपस्थित रहते थे और “उस अवधि को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने” के लिए घटनाओं को रिकार्ड करते थे। बहुत कम फ़िल्म निर्मिताओं ने सेन की इस विचारधारा को अपनाया। 

संभवतः यूरोपीय विचारधारा को पेश करनेवाले वे पहले व्यक्ति थे, जिससे देश में सिनेमा में क्रांति आ गई। 

‘भुवन सोम’ ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते: (1) सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म (2) सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (3) सर्वश्रेष्ठ अभिनेता। 

मृणाल सेन भारतीय सिनेमा में अग्रणी थे, लेकिन उनके सभी महान कार्यों में भुवन सोम एक ऐसी फ़िल्म है जिसने भारत में नई लहर की शुरूआत की, जिसे दर्शकों ने स्वीकार किया। मृणाल सेन को भारत सरकार ने 1981 में कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया एवं 2005 में ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार प्रदान किया। 

वह उन भारतीय फ़िल्म निर्माताओं में से थे जिन्होंने कॉन्स, वेनिस, और बर्लिन जैसे तीन बड़े समारोह में पुरस्कार जीते थे। वे मार्क्सवादी थे। मृणाल सेन को साल 2000 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने देश का श्रेष्ठ सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ़ फ्रेंडशिप’ प्रदान किया। ये सम्मान पानेवाले वो अकेले भारतीय फ़िल्ममेकर हैं। 

उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार चार बार मिला। अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में भी उन्हें कई पुरस्कार मिले। फ़िल्म ‘ख़ारिज’ के लिए कॉन्स में ‘द प्रिन्स ड्यू ज्यूरी’ सम्मान भी शामिल है। 

1982 में 32 वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में निर्णायक मंडल के सदस्य बने। 1983 में 13 वें मॉस्को इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में निर्णायक मंडल के सदस्य बने। 

27 अगस्त 1997 से 26 अगस्त 2003 तक मृणाल सेन राज्य सभा के सदस्य थे। 2004 में मृणाल सेन अपनी आत्मकथा ‘आलवेज बीइंग बॉर्न: ए मेमोआर’ को समाप्त किया। 

2008 में उन्हें ओसिएन सिने फ़ैन फ़ेस्टिवल द्वारा ‘लाइफ़ टाइम अचीवमेंट’ सम्मान से सम्मानित किया। 

मृणाल सेन ने भुवन सोम में अमिताभ बच्चन की बैरिटोन आवाज़ का इस्तेमाल किया। कथावाचक की मध्यम आवाज़-फ़िल्म की शुरूआत और अंत में पाँच मिनट से भी कम समय तक सुनी गई—बाद में प्रसिद्ध हो गई। 

मृणाल सेन उन फ़िल्मकारों में से थे जिनका मानना था कि फ़िल्मों का मनोरंजन से इतर, एक बड़ा योगदान समाज के प्रति होना चाहिए। उनकी हर फ़िल्म, समाज के यथार्थ को प्रदर्शित करनेवाली एक शानदार कला कृति होती है। उनकी फ़िल्मों में समाज के दलित, वंचित, शोषित लोगों की भावनाओं को बड़ी कुशलता से उकेरा गया है। मृणाल सेन स्वयं एक विस्थापित थे और विभाजन के दर्द को बड़ी गहराई से महसूस किया था। यह दर्द उनकी फ़िल्मों के ज़रिए फ़िल्म के पर्दे पर भी दिखाई पड़ता है। उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘बाइसे श्राबन’ (1960) और ‘अकालेर संधाने’ (1980) के ज़रिए बंगाल के भीषण अकाल और उससे पीड़ित लोग और पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में उठनेवाले परेशानियों को बड़ी दक्षता के साथ उभारा। मृणाल सेन भारतीय समानांतर सिनेमा के ध्वजवाहक थे। वे उन चुनिंदा भारतीय फ़िल्म निर्देशकों में से थे जिन्होंने अपनी कला से विश्व पटल पर भारत की ख्याति फैलाई। मृणाल सेन, महान फ़िल्मकार सत्यजित राय, ऋत्विक घटक के समकालीन थे। इन तीनों महान विभूतियों को, भारतीय समानांतर सिनेमा का त्रिदेव भी कहा जाता है। 

मेरा यह लेख मृणाल सेन के जन्म शत वार्षिक में श्रद्धा पुष्प स्वरूप है। 

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