अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अनुभव की मिट्टी पर उपजी लघुकथाएँ

 

समीक्षित पुस्तक: खिड़की से (लघुकथा संग्रह)
लेखक: डॉ. धनंजय चौहाण
प्रकाशक: शुभम पब्लिकेशन, कानपुर
संस्करण वर्ष: 2019
मूल्य: रु. 250/-
पृष्ठ संख्या: 96
 

जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वैसे-वैसे मनुष्य की संवेदनाएँ बदलती चली जाती हैं तथा जैसे-जैसे संवेदनाएँ बदलती है वैसे-वैसे साहित्य का स्वरूप भी बदलता चला जाता है। जैसे-जैसे साहित्य का स्वरूप बदलता है वैसे-वैसे कथानक का स्वरूप भी बदलता है। दरअसल कथानक मनुष्य की संस्कारात्मक अनुभूतियों का साहित्यिक रचाव है। आज साहित्य का स्वरूप एकरेखीय नहीं है। विधाओं की रेखाएँ ध्वस्त हो रही हैं। एक विधा में कई विधाओं के गुण संचरण करते हुए दिखाई दे रहे हैं। 

हिन्दी कहानी लेखन की परंपरा का आरंभ लघुकथाओं से ही हुआ है तथा चर्चित हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानियाँ अधिकांशतः लघुकथाएँ ही हैं। ”लघुकथा” एक बहुत ही विस्तृत और विराट विषय जिसका आरंभ वेद, उपनिषद, पुराणआदि की कथाओं के साथ-साथ रामायण, महाभारत की लघुकथाएँ, जैन और बौद्ध ग्रंथों की लघुकथाएँ, बौद्धकालीन लघुकथाएँ, जातक कथाएँ, पंचतंत्र, हितोपदेश की कथाएँ, 252 वैष्णवन की वार्ता, 84 वैष्णवन की वार्ता में लघुकथाएँ उदाहरण के तौर पर मिलती है। 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लघुकथाओं में प्रकृति, जीवनदर्शन बोध आदि प्रतिकात्मक रूप से दिखाई देते हैं। (प्रेम, आभूषण आदि लघुकथाएँ।) 

इन सब में शिक्षाप्रद कथाएँ मिलती हैं। आधुनिक लघुकथा इन सबसे भिन्न धरातल पर स्थित है। लघुकथा अपने समय के यथार्थ को ले चलती है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी का कहना है—“विकास की इस यात्रा में लघुकथा ने दृष्टांत, रूपक, लोककथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्य, चुटकुले, संस्मरण ऐसी अनेक मंज़िलें पार करते हुए वर्तमान रूप पाया है और अपनी सामर्थ को गहरे अंकित किया है। आधुनिक लघुकथाएँ आज के यथार्थ से जुडकर हमारे चिंतन को धार देती है।” 

आठवें युग की लघुकथाओं में विषय की पुनरावृत्ति के साथ-साथ व्यंग्यात्मक शैली दिखाई देती है तथा नौवें एवं सदी के अंतिम दशक में लघुकथा संग्रहों एवं संकलनों की एक सुष्ठ ऐतिहासिक परंपरा दिखाई देती है। परंतु इतिहास तो इतिहास है इसे कुछ पन्नों में समेटना मुश्किल ही नहींं असंभव है। 

लघुकथा का आकार छोटा होने के कारण इसका शीर्षक उपन्यास व कहानी के शीर्षक से भी अधिक महत्व रखता है। पाठक सबसे पहले लघुकथा का नाम पढ़ता है अतः लघुकथा का शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को लघुकथा को पढ़ने के लिए उत्साहित करे। इस क्षेत्र में ग्रंथ के लेखक सफल सिद्ध हुए हैं। वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. धनंजय चौहाण का सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह “खिड़की से“ एक महत्वपूर्ण संग्रह है। शीर्षक अति रोचक है जो ग्रंथ को पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती है जो अपने आप में बहुत कुछ कहती है। संग्रह में 61 उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं जो “शुभम पब्लिकेशन“, कानपुर से प्रकाशित हुआ है। धनंजय जी की लघुकथाओं में युगबोध है सृजनरत होते समय वे अपने युग के साथ, परिवेश के साथ पूरी तरह से जुड़े रहते हैं। उनकी लघुकथाओं में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष दिखाई देता है। उन्होंने इस संग्रह की अधिकांशतः कथाओं में असमर्थता और बेचारगी का अभिशाप झेल रहे लोगों की भावनाओं को अपनी क़लम के द्वारा बख़ूबी उकेरा है। 

“खिड़की से” के अंतर्गत साधारण लोग हैं लेकिन वे कितने बड़े और असाधारण होते गए हैं, इसके कितने ही ज्वलंत साक्ष्य इस कृति में एक-एक कर खुलते जाते हैं। ऐसा नहीं कि इसमें क्षुद्रताएँ नहीं है, वे भी ज़िन्दगी की दरारों के भीतर से झाँकती हुई सी नज़र आती हैं और वे ही तस्वीर को पूरा बनाती हैं। “गरीबी”, “कालुसिंह”, “बेटा” आदी लघुकथाएँ छोटी जगह की हैं पर महत्वपूर्ण चित्र उकेरती है। 
“अपशकुन“, “बोहनी“, “बेटों का प्यार“ आदि लघुकथाएँ एक अलग दृष्टिकोण से रची गई हैं जो कि संवेदनशीलता से भरी होने पर भी बेहद जीवंतता, बेबाकीपन और साथ ही साथ व्यंग्य की भंगिमा से भरी है। “गणपति विसर्जन” कथा का व्यंग्य महत्वपूर्ण है। आनंद मनाने में संस्कार के मानदंड धरे के धरे रह जाते हैं। 

“ट्यूशन” लघुकथा के माध्यम से धनंजय जी समाज को शिक्षा के स्तर की चेतावनी देते हैं और चेताते हैं। उपेक्षित, बेसहारा वृद्ध व्यक्तियों की चिंता, आधुनिक शहरीकरण की उपज—दम्भ भरे चेहरे, बच्चों को फटकारते बड़ों के खोखले आदर्श पर धनंजय जी की क़लम निर्बाध रूप से चलती है। “जाति“, “ बेटे की उम्मीद“ आदि उत्कृष्ट लघुकथाएँ है। 

एक रचनाकार जिस समय में रहता है उसी समय को अपनी कृतियों के माध्यम से लाने और दिखाने का प्रयास करता है जिसमें अपने समय के साथ उसकी आत्मा भी किसी न किसी रूप और स्तर पर दिख जाती है। धनंजय जी के रचनात्मक जीवन में परिवेश का बहुत बड़ा योगदान रहा, हर क्षेत्र में उनकी एक सक्रिय और सजग उपस्थिति, जो इस कृति की प्रमुख वस्तु है। इन लघुकथाओं के माध्यम से हम यह साफ़-साफ़ देख सकते हैं कि कितने कष्टों-मुश्किलों और अभावों-असुविधाओं में न केवल लेखक की दृष्टि अपने लेखन का विषय ढूँढ़ लेती है और हमारे समक्ष समाज का एक चित्र प्रस्तुत करती है, बल्कि कहीं-कहीं स्पष्टीकरण का प्रयास भी करती है। यह धनंजय जी के लेखन की विशेषता है। 

इस समय हम जिन वैचारिक अंतर्द्वंद्व से गुज़र रहे हैं उसमें “धर्म का कलंक”, “कर्मकांड”, “भोला का कमाल” आदि लघुकथाएँ आईने की तरह समाज की स्थिति को दर्शा रही हैं। एक दयनीय, बेहद छटपटाहट और मानवीय ख़ूबियों कमज़ोरियों की सटीक कृतियाँ है। लघुकथाओं में नायक, खलनायक, सहायक, सहनायिका और अन्य पात्रों की नियति और नीयत एक जैसी है जो सब के सब अपने-अपने स्थान में रहकर अपने कर्म के अनुरूप संदेश देते हैं। विडम्बनाओं के कारणभूत सत्य को देख पाने की दृष्टि और तज्जनय अनुभूति की प्रगाढ़ता इन लघुकथाओं को प्रासंगिकता का धरातल देती है कि देश और काल का सत्य अपने यथार्थ रूप में प्रकट हो जाता है। ”नाटकी अधिकारी” का नायक संवेदनहीन होकर अपने नाटक समाज को ही नष्ट करने पर तुल जाता है क्योंकि उसे क्षेत्र विशेष की कोई जानकारी नहीं होती है। ऐसा करने में उसका मनोबल कभी नहींं डिगता है। ऐसे चरित्र हमारे आसपास ही होते हैं। संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ प्रथम पुरुष में लिखी गई हैं जो बिना लाग-लपेट के इस सहमति से आरंभ होती है मानो बतकही की जा रही है, “मेरे पड़ोसी बड़े उत्साह से आकर बोले मेरे घर बीयाई बिल्ली के बच्चे राम-राम बोलते हैं। बच्चे हिन्दुवादी हैं।” (“बिल्ली के बच्चे” पृष्ठ-36) दरअसल इस तरह की सच्चाई या बयान करने का साहस और जोख़िम उठाना किसी भी रचनाकार के लिए आसान नहीं होता। कमोबेश इन लघुकथाओं का फ़ॉर्म नया-सा है। कला की चेतना भी तनी हुई दिखाई देती है। संग्रह की लघुकथाओं में दुख-दर्द से भरी मानव की चीख़ ही नहीं है, हम सभी के लिए एक बड़ी चेतावनी भी है। 

संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को उकेरने में सफल रही हैं, जिससे पाठक विषय पर सोचने को मजबूर हो जाता है। भाषा-शैली सहज-सरल एवं पूर्णतः संप्रेषणीय है। कम शब्दों में ध्येय स्पष्ट करने के लिए जो तराश और क़रीना अपरिहार्य है उसे धनंजय जी अच्छी तरह से समझते हैं। यह उनका अपना ढंग है अपनी व्याख्या है। कामना है कि इसी तरह से साहित्य-जगत को अपनी लेखनी से आलोकित करते रहें। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

डाॅ माणिक मृगेश 2021/12/01 07:12 PM

बहुत अच्छी समीक्षा की गई है बधाई

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

ललित कला

सिनेमा और साहित्य

साहित्यिक आलेख

एकांकी

अनूदित कहानी

सिनेमा चर्चा

कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं