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लोक-कथाओं में बाल साहित्य

 (बांग्ला साहित्य के परिप्रेक्ष्य में) 

लोक-साहित्य को लोकवार्ता का एक अंग भी कहा जा सकता है। लोक वार्ता ने आज कल एक विज्ञान का रूप धारण कर लिया है। इसे लोक वार्ता तत्व या लोक वार्ता विज्ञान या अँग्रेज़ी में फोकलोरिसिटक्स कहते हैं। अतः इसे विज्ञान भी कहा जा सकता है। 

जन साधारण में वे लोक-समूह सम्मिलित माने जाते हैं जो लोग विशिष्ट वर्ग से पृथक होते हैं, इनका जो मौखिक साहित्य रहा, उसे लोक-साहित्य कहते हैं। समाज में व्याप्त विश्वास, भावनाएँ, आदर्श ही इनकी जीवनधारा निर्धारित करती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इनके बारे में कहा है “जो चीज़ें लोक चित्त से सीधे उत्पन्न हो साधारण जन को आन्दोलित करती हैं वे ही लोक-साहित्य नाम से पुकारी जाती हैं।” 

लोक-साहित्य को जन जीवन का दर्पण कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोक-साहित्य जनता के हृदय का उद्गार है। सर्वसाधारण जो कुछ सोचते हैं और जिस विषय की अनुभूति करते हैं उसी का प्रकाशन उनके साहित्य में पाया जाता है। 

लोक-साहित्य की नींव निरूक्त महाभारत, मैमायणी संहिता आदि पूर्वाकालिक ग्रंथों में उपलब्ध है। इन ग्रंथों में उपलब्ध उल्लेखों से पता चलता है कि राजसूय यज्ञ, विवाह आदि शुभ अवसरों का आभास हमें इस साहित्य से होता है। 

लोक-साहित्य हमारी धरोहर है, क्योंकि इसके अध्ययन से अतीत के अवशेषों का संकलन होकर, वर्तमान के लिए जीवित अभिलेख तैयार होते हैं। 

हमारे शिष्ट साहित्य पर लोक-साहित्य का बहुत प्रभाव है। हमारा संत साहित्य वास्तव में लोक-साहित्य ही है। सभी संतों ने लोकोद्धार का ही कार्य किया है और यही उद्देश्य लोक-साहित्य का भी है। 

डॉ. सत्या गुप्ता के अनुसार “किसी भी देश के लोक-साहित्य का अध्ययन उनकी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज़, कला एवं साहित्य, सामाजिक जागरण एवं आकांक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन करने में सहायक होता है।” 

इस प्रकार एक साथ अनेक तथ्यों का परिचय पाने के लिए लोक-साहित्य का अध्ययन बहुत ज़रूरी है। अपनी प्रादेशिक मूलभूमि को और विगत संस्कृति को जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक है यह काम केवल साहित्य से ही सम्भव नहीं होगा। अतः विविध जनपदों को जानने के लिए लोक-साहित्य का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। 
कड़वा सच तो यह है कि आज केवल साहित्यिक भाषा का ही अध्ययन हो रहा है और लोक-साहित्य उपेक्षित हो रहा है। परिणामस्वरूप हमें इसका प्रायश्चित भुगतना पड़ रहा है। आज न जाने कितनी बोलियाँ ग़ायब हो गई हैं। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कहा है “भारतीय जनता का सामान्य रूप जानने के लिए पहचानने के लिए पुराने परिचित ग्राम-गीतों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।” 

अतः लोक-साहित्य की सामग्री प्रायः सामुदायिक जीवन की समकालीन वास्तविकता को चित्रित करती है और यदि उसका व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया जाय तो वह जाति विशेष के व्यक्त और अव्यक्त भौतिक और मानसिक जीवन को उद्भूत रूप में उजागर कर सकती है। 

लोक-साहित्य में कथा कहानी का बहुत अधिक महत्त्व है। कहानी लोक-मानस की मूल-भावना के रूप को स्थूल प्रतीक से अभिव्यक्त करती है। यह प्रयत्न जीवन के सभी क्षेत्रों में होता मिलता है, अतः इसकी सत्ता की व्यापकता सिद्ध होती है। आदिम युग से ही मानव अपने अनुभवों को क्रमबद्ध रूप में व्यक्त करता आया है। 

लोक-साहित्य में बाल साहित्य का विशेष महत्त्व है। खिलौने से खेलने के पश्चात् बाल मन की कौतुहलता का अवसान बाल साहित्य ही कर सकता है। जिसमें बाल कथाएँ, गीत, नाटक आदि का विशेष स्थान है। साधारणतः हम यह सोचते हैं कि बालक तो कुछ ही दिनों में बड़ा हो जाएगा। अतः उसके मनोरंजन के लिए इतने ताम-झाम युक्त पुस्तकों की क्या आवश्यकता है। यह धारण सर्वथा भूल है। बालक का कोमल मन हर्ष और विषाद के भावों को बड़ी सरलता से ग्रहण और अनुभव कर सकता है। इसे अभिव्यक्त भी बड़ी सहजता से कर सकता है जिसके लिए उसे कुछ आधार की आवश्यकता होती है। सबसे क़रीब और अपनी भावना के अनुकूल उसे घरेलू पशु-पक्षी लगते हैं। एक मनोवैज्ञानिक तौर पर मैंने इसे देखा है। और सबसे बड़ी बात होती है कि ये पशु उनके आज्ञाकारी होते हैं और उनकी भावनाओं को समझनेवाले होते हैं। अतः बाल साहित्य में बाल कहानियों का महत्त्व सबसे अधिक होता है। जिसमें उनके पसंदीदा नायक-नायिकाएँ, पशु-पक्षी, बाग़-बग़ीचे, फूल-परियाँ आदि आदि का विस्तृत संसार होता है। 

अबोध-बाल मानस का अपना छोटा संसार होता है, वे उसी से घनिष्ट परिचय रखना चाहते हैं और उसी जगत की वस्तुओं से साहचर्य और जीवन-संपर्क तथा रस प्राप्त करना चाहते हैं। 

बाल-मनोवृत्ति की कहानियों में संक्षिप्त कथानक, परिचित पदार्थ, उनकी दुहरावट उनके स्वभाव का चित्रण और कल्पनातिरेक कौतूहल आदि बातें मिलती है। इन कहानियों में संगीतात्मकता (Rhythms) (संगीत नहीं) का पुट विशेष रहता है। 

लोगों में प्रचलित और परंपरा से चली आने वाली मूलतः मौखिक रूप में प्रचलित ये कहानियाँ लोक-कथा के अंतर्गत आती है। इनका मूल उद्देश्य मनोरंजन ही रहा है, परन्तु इस मुख्य उद्देश्य के साथ नीति, शिक्षा, धर्म, उपदेश आदि के उद्दश्य भी जुड़े होते हैं जिसे बाल-मन के अनुरूप रचा जाता है। 

संस्कृत साहित्य में वृतकथा, कथा सरितसागर, पंचतंत्र, हितोपदेश, वेताल पंचविशतिका, शुकसप्तति, सिंहासन द्वात्रिशिका आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है, जो लोककथा की परंपरा में रखे जाते हैं। इसमें बाल मन की हर उम्र की कथाएँ हैं। 

इसमें पशु-पक्षियों का मानवीकरण किया जाता है। वे मनुष्य की बोली बोलते हैं। वे मनुष्य प्राणी से अलग होते हुए भी उनके अभिन्न अंग हैं। इन कथाओं में बालकों का मनोरंजन ही प्रधान है। मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा भी मिलती है। इसमें मुख्यतः कौआ, साँप, बन्दर, बिल्ली, गधा, तोता, मैना, चिड़िया, मुर्गी आदि से सम्बन्धित कथाएँ होती हैं। इनके आपस में विवाह, सम्बन्ध भी दिखाए जाते हैं। संक्षेप में इन पशु-पक्षिओं और काल्पनिक पात्रों के माध्यम से मनुष्य समाज की भलाई-बुराई, धर्म-अधर्म, ईमानदारी-बेईमानी के साथ-साथ उस समय के काल को भी व्यक्त किया जाता है। 

लोक-साहित्य में बाल-साहित्य का विशेष महत्त्व है। यह पाठ्या गीत है, ग्रंथ नहीं है, परन्तु लोक-साहित्य में इनका विशेष महत्त्व है। ये ऐसी कहानियाँ हैं जो कहानियाँ तो है पर अपनी कुछ विशेषता रखती हैं। इन कहानियों का वृत्त लघु होता है। बहुधा कहानी का प्रभावपूर्ण अंश छन्दबद्ध होता है। इन कहानियों में एक सहज सरलता रहती है, जिससे ये बाल मनोवृत्ति को संतुष्ट करने वाली हो जाती हैं। 

कथावाचक और श्रोता में एक विशिष्ट अनुबन्ध होता है, जिसका पालन करना दोनों के लिए परमावश्यक होता है। आम तौर पर कथावाचक रात को ही कथा सुनाता है, दिन में कभी-कभी। क्योंकि रात में फ़ुर्सत तथा एकाग्रता होती है। इसलिए कहानी रात को ही सुनाने का प्रचलन है। कथावाचक श्रोताओं के द्वारा व्यवधान पसंद श्रोता “हुँ हुँ हुँ” करता रहे या कौतूहलवश “फिर क्या हुआ?” नहीं हो कहानी कहनेवाले की यही भावना होती है कि श्रोता कहानी में मन नहीं लगा रहे हैं। लोक-कथाएँ मौखिक होने के कारण उनके शिल्प कला पक्ष का ठीक-ठीक मुल्यांकन करना असम्भव है, जिनके अंतर में नुकिले, चिकने, बहते हुए स्थिर सभी प्रकार के पत्थर के टुकड़े हैं। लेकिन वह अपना नियंत्रण बनाए, सँभालकर तेज़ी से आगे बढ़ता है। 

बांग्ला की बाल कहानियाँ ग्राम्य जीवन, वहाँ की मिट्टी की सुगन्ध खेत-खलिहान, राज-पाट, पशु-पक्षी आदि बाल मनोरंजनकारी पात्रों से समृद्ध हैं। इन कहानियों को विभिन्न समय में विभिन्न लोगों द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। कालक्रम से इन कहानियों को विभिन्न अंशों से विभाजित करके पाठकों के लिए सुलभ किया गया है जिनमें से कुछ प्रमुख ग्रंथों के विषय में जानेंगे:

“ठाकुमार झूली” 1970 में प्रकाशित यह संग्रह बांग्ला परिकथा और रूपकथाओं का संग्रह है। दक्षिणारंजन मित्र मजुमदार जी द्वारा इस संग्रह की मौखिक कथाओं को संग्रह किया और लिपिबद्ध किया। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस संग्रह की प्रस्तावना को लिखा है। तब से लेकर आज तक बाल कहानियों की यह सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है और आज तक उतनी ही लोकप्रिय है। बंगाल के प्रत्येक घर में यह अनमोल कृति एक धरोहर के रूप में रहती है। संग्रह की कहानियों को कुछ भागों में विभक्त किया गया है। 

“दूधसागर” में “कलावती राजकन्या”, ” घुमन्तपरी”, “सात भाई चंपा”, “कनकमाला कांचनमाला”, ” शीत बसंत”, ” किरणमाला” आदि कहानियाँ हैं। 

“रूपतरसी” संग्रह के अंतर्गत “नील कमल”, “डालिम कुमार”, “पालन कन्या मणिमाला”, “सोनार काठी, रूपार काठी”। 

“चंग बंग” नामक संग्रह के अंतर्गत “बुद्धु भुतुम”, “शोपाल पंडित”, “सुखु आर दुखु”, “बुह्मण ब्राह्मणी”, ”देढ़ आंगुले” आदि। 

“आम संदेश” संग्रह के अन्तर्गत “सोना घुमाओ”, “शेष“ आदि कहानियाँ समाहित हैं। 

“ठाकुमार झुली” संग्रह की कहानियों का अंत शिक्षाप्रद है तथा बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में सकारात्मक प्रभाव डालती हैं और उनको विवेचक भी बनाती है। रूप कथात्मक शैली में रची होने के कारण मनोरंजक भी हैं। इस संग्रह की कथाएँ अद्भुत अनुभूति जगाती हैं। अच्छा-बुरा, सत-असत गुणों का मूल्य समझाती हैं। वास्तविकता से दूर काल्पनिक जगत की कथा तथा पात्र होते हुए भी जागरूकता का पाठ पढ़ाती हैं। 

“ठाकुमार झूली” की कहानियाँ कब से जनमानस में प्रचलित हैं इसका कोई निश्चित समय ज्ञात नहीं है परन्तु मौखिक रूप से प्रचलित हैं। लोग इसको बढ़ावा देते हैं और इसे मान्यता भी देते हैं। इसलिए लिखित रूप में न होने पर भी, मौखिक होने पर भी बाल-साहित्य में इसका एक विशिष्ट दर्जा है। छोटे–बड़े सभी इस पुस्तक को पसंद करने के कारण बाद में इसे लिपिबद्ध करने की आवश्यकता महसूस की गई। 

मूलतः स्त्रियाँ ही इन कथाओं को कहती हैं। एक अच्छे परिवेश को आधार बनाकर इन कहानियों का आरंभ होता है। इन संग्रह की कहानियाँ काल्पनिक, विश्वास और उस समय के बंगाल की स्त्रियों की भावना से ओत-प्रोत है। अतः इसमें कोई शक नहीं कि इन कथाओं में स्त्री ही कथा के मूल में होती है चाहे वह राजकुमारी हो, डायन हो या रूपसी रानी। (कलावती राजकन्या, घुमंत परी, कांकनमाला, कंचनमाला आदि कहानियाँ) 

दक्षिणारंजन मित्र मजुमदार द्वारा रचित और तीन बाल कहानियों का संग्रह मिलता है जो (1) ठाकुरदादार झूली (2) दादा मोशाईर थोले (3) ठान दीदीर बोले नाम से है। इन संग्रहों में बाल मनोरंजक कथाएँ ही हैं जो कि बालकों के चरित्र निर्माण में सहायक रूप है। 

“फोक टेल्स ऑफ़ बेंगाल” (Folk Tales of Bengal) नामक पुस्तक को लाल बिहारी दे ( Reverend Lal Bihari Day) ने 1883 में अँग्रेज़ी में लिखा था। इनकी कथाओं में बंगाल के नवाबी शासनकाल की छाया स्पष्ट है। कथाकार ने इस संग्रह की कहानियों का 20 वीं सदी में संग्रह किया था जिसमें उन्होंने लिखा “एक ब्राह्यण ने मुझे दो कहानी कही, एक बूढ़े नाई ने तीन, मेरे एक बूढ़े नौकर ने मुझे तीन कहानी कही और बाक़ी सभी कहानियाँ मुझे एक दूसरे ब्राह्यण ने कही। इनमें से किसी को भी अँग्रेज़ी का ज्ञान नहीं था। सभी ने बांग्ला में ही कहा और मैंने उनका अँग्रेज़ी में अनुवाद किया।” 

इस संग्रह के अन्तर्गत खगोल शास्त्र से सम्बन्धित कथाएँ (शनि की कुदृष्टि) भारत की श्रेष्ठ कथाएँ हैं, जिसमें एक ऐसे बालक की कथा है जिसकी सात माताएँ थी। अफ़ीम की उपज और रूबी (Gems) का मूला को आधार बनाकर और इसके साथ ही भूत-प्रेत और कुछ अतिमानवीय शक्तियों की कहानियाँ हैं जो कभी मित्रवत व्यवहार कर लोगों को, समाज को उपकृत करते हैं और कभी दुष्ट और अपकर्म करनेवाले को दंड देने वाले डरावने राक्षस भी होते हैं। 

इन संग्रहों के पश्चात् रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी बालमन को ध्यान में रखकर विपुल शिशु कथाएँ लिखी हैं जिनमें “शिशु कथा” आदि प्रसिद्ध है। 

विख्यात फ़िल्म निर्देशक सत्यजित राय के पिता “सुकुमार राय” ने भी बालमन से सम्बन्धित अनेक कहानियों की रचना की है जिनमें “हजबरल” प्रसिद्ध है। यह मनोरंजन से भरपूर है और शिक्षाप्रद भी है। इसके पात्र रूमाल से बिल्ली बनने के साथ-साथ और अनेक बालप्रिय पशुओं का रूप धारण कर लेते हैं, जो कि असाधारण कार्यकलापों के द्वारा मार्गदर्शक भी होते हैं। इसके साथ-साथ बाल विकास में भी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। 

सुलेखा सेन रचित “रूपकथा” नामक बाल संग्रह के अन्तर्गत बाल बोध कथा मूलक कहानियाँ संगृहीत हैं। गेय होने के साथ साथ उपदेशमूलक होने के कारण इनके संग्रह का साहित्य के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उदाहरणार्थ “परिर श्राप” के अन्तर्गत एक सरलमना राजकुमारी किस प्रकार से एक असत प्रकृतिवाली डायन के जाल में फँसकर 15 वर्ष तक का निर्जन जीवन पूरे राज परिवार तथा राज्य के सभी लोगों के साथ बिताती है और एक दक्ष राजकुमार आता है और उसको श्राप मुक्त करके डायन को मार देता है। तब राजकुमारी जीवंत हो जाती है। असत पर सत की विजय की कथा है। इस प्रकार की अनेक कहानियाँ इस संग्रह में उपलब्ध है। 

 “फोक टेल्स ऑफ़ बेंगाल” संग्रह के रचयिता लाल बिहारी दे के संग्रह की कहानियाँ बाल विकास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। “लाइफ़ सीक्रेट” के राजकुमार का प्राण एक मछली के अन्दर, एक लकड़ी के छोटे से बाक्से में होता है। द्वेषभाव से ग्रस्त उसी परिवार की सौतेली माँ उसके क्षणिक मृत्यु का कारण करती है और फिर से उसकी पत्नी सब बाधाओं को दूर करके उस राजकुमार को पुनः जीवित करती है। अतः बालमन को कुमना और कुवृत्ति वालों से दूर रहना और अपने अन्दर भी इस प्रवृत्ति को उपजने न देने की शिक्षा मिलती है। 

इसी प्रकार से “फ़क़ीर चाँद” नामक संग्रह की कथा दो दोस्तों की है एक राजा की और दूसरी मंत्री के बेटे की। दोनों में गहरी दोस्ती थी पर एक दिन दोनों भ्रमण के लिए निकल जाते हैं। अपने संग नौकर-चाकर लिए बिना के उनके साथ उनका “पक्षीराज घोड़ा” होता है जो बहुत तेज़ दौड़ता है। फिर दोनों शाम होने तक एक जंगल में पहुँचते हैं। महल से जंगल की यात्रा के विवरण के द्वारा लेखक ने उस समय की राज्य व्यवस्था, खेती-बाड़ी, विभिन्न वर्ग के लोग, प्रकृति-वातावरण की सुन्दर व्याख्या की है। रात होने पर जंगली जानवरों के डर से दोनों पेड़ पर चढ़ जाते हैं। रात गहरा जाती है और दोनों के आश्चर्य की सीमा नहीं रहती है जब वे देखते हैं पास के तालाब में फूँफकार मारता हुआ एक मणीणिधारी साँप अपने भोजन की तलाश में निकलता है। मणि से पूरा परिवेश आलोकित हो जाता है। फिर अपनी चालाकी से दोनों उस साँप को मारकर मणि को लेकर उस तालाब के अन्दर स्थित राजमहल में स्थित राजकुमारी की रक्षा करके राज्य में घटने वाले अन्याय को नियंत्रित करके सत, न्याय, विवेकी और साहसिकता का पाठ तत्कालीन समाज को पढ़ाते हैं। 

इस प्रकार से अनेक कहानियाँ हैं जो समाज में फैली कुप्रथा, कुसंस्कार जैसे कि “शनि की कुदृष्टि” नामक कथा में मिलती है, को नष्ट करती है। संग्रह की प्रत्येक कहानी कुछ न कुछ संदेश अवश्य देती है और वह इस प्रकार से कि बालमन उसे ग्रहण कर सकें और समझ सकें। वीर और साहस प्रदर्शन करनेवाले पात्रों के द्वारा साहसिक कार्यों को करवाकर बालकों में धैर्य और साहसिकता का संचार करना तथा समाज के वर्गभेद को मिटाना भी इन कहानियों का उद्देश्य होता है। राजकुमार का मंत्री, कोतवाल तथा सैनिक पुत्रों के साथ दोस्ती रचकर एक मिसाल स्थापित करना भी इन कथाकारों का उद्देश्य होता है। 
बांग्ला का बाल साहित्य बहुत समृद्ध है परन्तु आधुनिक उपकरणों ने इसकी लोकप्रियता को थोड़ा कम कर दिया है परन्तु इनके पात्र विदेशी कथाओं के पात्रों से कुछ कम नहीं है। 

बाल साहित्य पर और अधिक मनोरंजक रचनाएँ होनी चाहिए। मेरा लेखन कुछ हद तक अगर बांग्ला के बाल साहित्य की लोकप्रियता पर असर कर सके तो मेरा लेखन सार्थक होगा। 

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