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चारूलता: एकलता की व्यथा

 

विश्व कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर अपने पूर्वोत्तर कथाकारों से भिन्न हैं और एक नवीन कथाधारा के जन्मदाता माने जाते हैं और वह है—कथा का गठन। कहानियों का आरंभ द्रुत गति से होने के कारण पाठक शीघ्र ही उसमें बँध जाता है और कथा का अंत उस समय करते हैं जब पाठक कथा के प्रति सबसे अधिक जिज्ञासु हो रहा होता है। उनकी अधिकांश कहानियाँ घटना प्रधान न होकर भावना प्रधान होती हैं। जिस प्रकार से अपने गीतों में मन के असंख्य पलों के भावों का विकास किया है उसी प्रकार से उनकी कहानियों में साधारण जीवन के असाधारण भावों की प्रधानता देखने को मिलता है। जिनमें निसंग नारी जीवन, उसका अकेलापन, निसंगता के दर्द की प्रधानता होती है। 

कोमल मधुर प्रेम के साथ-साथ रवीन्द्र नाथ ने जटिल हृदय वेदना को भी उकेरा है। ‘दृष्टिदान’, ‘मध्यवर्ती’ गल्प उनकी उल्लेखनीय गल्प हैं। इन कथाओं में प्रेम और वेदना साधारण अभिज्ञात से भिन्न है। इस प्रकार के अनेक कथाओं और चरित्रों के माध्यम से रवीन्द्र नाथ ने मानव हृदय में बसे प्रेम की कामना, महिमा, त्याग, हिंसा सब का मिश्रण है पर, लेखक ने उनमें से माधुर्य और वेदना को ही प्रधानता दी है। नारी मन को समझने में विलक्षण होने के कारण उन्होंने अपने नारी पात्रों को एक अलग आयाम दिया है। उनकी अधिकांश कहानियाँ “निसंग मानव हृदय” के दर्द को दर्शाती हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के सारे कार्य-कलाप अपने निर्धारित धुरी पर होते रहते हैं, सूर्योदय, सूर्यास्त, मानव का जन्म, मृत्यु सब कुछ परन्तु इसी में एक इन्सान के दुख या सुख की कोई क़ीमत नहीं होती परन्तु वही तुच्छ आनन्द ही मानव जीवन का श्रेष्ठ आधार होता है। मनुष्य जहाँ अकेला है वहाँ उसकी वेदना केवल उसके अकेले की है। इसी अकेलेपन की वेदना को दुख को रवीन्द्र ने अपनी अनेक कहानियों का आधार बनाया है। ‘पोस्टमास्टर’ गल्प में रतन का दुख केवल रतन का ही है। जगत संसार का इसमें कोई हिस्सा नहीं है। 

जीवनवाद की अपेक्षा जीवन पर एक उच्च आदर्श को प्रस्तुत करना ही उनके रचना-कर्म का उद्देश्य रहा। रचनाओं में न पात्रों की और न घटनाओं की बहुलता के वे पक्षपाती थे। उनका मानना था कि लेखन में अश्रु बिन्दुओं की तरह कोमल, करुण उज्जवल भाव हो तो रचना महत्त्वपूर्ण होती है। अतः घटनाओं की अपेक्षा अन्तर्निहित स्वर को उजागर करने में तथा हृदय के निगूढ़ रहस्य-संधान में उनकी रुचि अधिक रही। साधारण बंगाली जीवन ही उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा। 

‘नष्टनीड़’ एक पति की उदासीनता से उपजे एक जटिल परिवेश की कहानी है। रवीन्द्र नाथ का लेखन समय से बहुत आगे का लेखन है। इस कहानी को रवीन्द्र नाथ ने 1901 में लिखा था। इसे लिखकर और प्रकाशित होते ही इस कहानी पर जमकर आलोचना हुई। उन्हें स्रीवादी तो नहीं कह जा सकता है पर स्री मन की समझ उनकी विलक्षण थी। ‘नष्टनीड़’ की कहानी ऐसी मार्मिक है कि दिग्गज फ़िल्मकार सत्यजित रे ने 1964 में ‘चारूलता’ नाम से इसी कहानी पर फ़िल्म बनाई। और फ़िल्मकार सत्यजित रे को भी इसके लिए आलोचना झेलनी पड़ी। यह उनकी 12वीं फ़िल्म है, जिसने फ़िल्म के हर क्षेत्र में सफलता की उच्चकोटि को छूआ। इस फ़िल्म में रे ने कोई आडम्बर का प्रदर्शन नहीं किया है। इस फ़िल्म में संवेदनशीलता और मानसिक द्वन्द्व को अधिक महत्त्व दिया गया है जिसे संक्षिप्त संवादहीन दृश्यों के माध्यम से फ़िल्माया गया है। 

‘चारूलता’ का समय उन्नीसवीं सदी का अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ का है और इसमें उस समय के संस्कारों के मिश्रण को दिखाया है। चारूलता का विवाह भूपति नामक व्यक्ति से, एक संभ्रांत परिवार में अख़बार के मालिक से होता है। भूपति अख़बार को लेकर ही व्यस्त रहते हैं और उनकी बालिका वधू चारूलता (फ़िल्म में चारूलता की भूमिका को माधवी मुखर्जी ने निभाया है) कब युवती बन जाती है इसका पता भूपति (फ़िल्म में भूपति की भूमिका को शैलेन मुखर्जी ने निभाया है) को भी नहीं चलता है। व्यस्त भूपति की भूमिका को उन्होंने बड़ी कुशलता से निभाया है। फ़िल्म में सत्यजित रे ने इन पलों को केवल मात्र कैमरे के मूवमेंन्ट के माध्यम से दिखाया है, बिना संलाप के। अखब़ार को लेकर व्यस्त भूपति चिंतामग्न चारूलता के सामने से ही, उसे नज़रअंदाज़ करते हुए निकल जाते हैं। चारूलता उनको जाते हुए देखती रहती है हाव-भाव ऐसे, जैसे कुछ कहने-सुनने को उत्सुक। पर नहीं। फिर बाइनॉकुलर से जाते हुए भूपति को चारूलता दूर तक देखती है। निर्देशक रे ने बाइनॉकुलर को अभिव्यक्ति का एक माध्यम बनाया है। चारू बाइनॉकुलर से दूर जाते हुए अपने पति को देखती है ऐसे, जैसे कि वह बहुत दूर का इन्सान हो, अप्राप्य। जिस प्रकार से वह खिड़की से बाहर की दुनिया को देखती है, जहाँ तक कि वह जा नहीं पाती, उसकी पहुँच के बाहर की दुनिया है, उसी तरह वो भूपति को भी बाइनॉकुलर से देखती है, दूर की दुनिया। छूने-पकड़ने से परे। श्वेत और श्याम लाईट के माध्यम से भूपति की व्यस्तता और चारू की एकलता को दिखाया है। उस विशाल महल जैसे घर में चारूलता का अकेलापन इस छोर से उस छोर तक फैला रहता है। रे ने चारूलता के इस अकेलेपन को बड़ी कलात्मकता से फ़िल्माया है। बड़े-बड़े कालीन बिछे कमरे। सुन्दर कलात्मक सोफ़े, बड़ी-बड़ी अलमारियों में पुस्तकें जो कि चारू और भूपति की बौद्धिक रुचि को भी दर्शाता है। बरामदे के इस छोर से उस छोर तक धीर क़दमों से चहलक़दमी करती चारूलता। कभी-कभी खिड़की के पटों को खोलकर बाहर की दुनिया में झाँकती, उड़ते-फिरते पक्षियों को निर्निमेष देखती हुई जैसे कि काश वो भी उनकी तरह खुले आसमान में उड़ पाती। लाइब्रेरी में सजी पुस्तकों से गुज़रती, बंकिमचन्द्र की पुस्तकों को उलटती-पलटती, गुनगुनाती हुई अकेली चारूलता के चरित्र का माधवी मुखर्जी ने अद्भुत जीवन्त अभिनय किया है। चारूलता विशाल भवन से निकलकर एकाकीत्व को तोड़कर बाहर की दुनिया में जाना चाहती है। बाइनॉकुलर से बाह्य दुनिया की जीवन्तता को अनुभव करती है। 

सत्यजीत रे ने फ़िल्म में इन क्षणों को बिना कोई संवाद के बहुत बारीक़ी से उभारा है। केवल मात्र ब्लैक और व्हाइट लाईट के प्रतिबिम्ब और चारूलता के हावभाव से ही उसके अन्तर्निहित भाव पर्दे पर उभरकर आते हैं। हमारा मन चारूलता की एकलता को अनुभव करता है। सीधे-सीधे साहित्य समाज भले न बदल सके मगर वह हमें संवेदनशील बनाता है और सोच बदलने की ओर प्रवृत्त करता है, जो अंततः समाज बदलने का आधार बनता है। चारूलता के एकाकीपन का आभास जब भूपति को किसी आत्मीय ने दिया तब भूपति ने अपने साले, उमापद (फ़िल्म में श्यामल घोष ने इस भूमिका को निभाया है) जो कि उनका सहकारी है, की पत्नी मंदा (फ़िल्म में इस भूमिका को निभाया है गीताली रे ने) को उसकी निसंगिता को दूर करने के लिए गाँव से बुला लेते हैं और निश्चिंत हो जाते है। “प्रेमोन्मेष के प्रथम अरुणालोक में जिस समय पति और पत्नी एक दूसरे को क़रीब से जानने-समझने का समय होता है दाम्पत्य का वह स्वर्ण काल अचेतन अवस्था में कब व्यतीत हो गया, किसी को पता नहीं चला। नवीनता का स्वाद को चखे बिना ही दोनों एक दूसरे के लिए पुरातन परिचित अभ्यस्त हो गए।” (गल्प गुच्छ पृ.-410) 

पर चारू साहित्यिक रुचि संपन्न है, उसे मंदा का साहचर्य इतना सुखकर नहीं लगता है। चारू एक अकेली ही रही। निरसता में उसके दिन बीतते रहे। 

और इसी शून्यता में निरसता में अमल (फ़िल्म में इस भूमिका को सौमित्र चटर्जी ने निभाया है) का आगमन होता है। थर्ड इयर में पढ़नेवाला, भूपति का फूफेरा भाई अमल। अमल का आगमन चारूलता के जीवन को रोशनी से भर देता है। वह अपनी सारी इन्द्रियों से व्यस्त हो जाती है। उसका अकेलापन ख़ालीपन अमल की माँगों (चाहतों) से भर जाता है। कभी उसके रूमाल में फूल काढ़ देती, कभी उसके लिए कार्पेट का जूता सिल देती आदि-आदि व्यस्तता के क्षणों के साथ-साथ वह अमल से पढ़-सीख भी लेती है। ऐसी छोटी घटनाओं के घटते-घटते अमल और चारूलता क़रीब आने लगते हैं। यह निकटता अचानक नहीं होती धीरे-धीरे पैर पसारती है। इस कहानी में मूल रहस्य और सौन्दर्य की सृष्टि होती है अंतर में, प्रेम के स्फुरण से। 

सत्यजित रे ने इस प्रेम के जन्म लेने के क्षणों को एक अलग आयाम दिया है। 

चारूलता और अमल का एक दूसरे को एक अलग दृष्टिकोण से देखना आरंभ हो जाता हैं। दोनों का परिचय एक नए जगत से होता है। रवीन्द्र नाथ ने प्रेम के इस क्षणों को बड़ी निपूर्णता और संयम से लिखा है और इस प्रेम के उन्मेष के क्षणों को सत्यजित रे ने बड़ी कलात्मकता से फ़िल्माया है। 

अमल एक जोड़ी कार्पेट के जूते की माँग करता है चारू से। चारू इस तरह की सिलाई से एकदम अनभिज्ञ है पर अमल के समक्ष हार स्वीकार करना नहीं चाहती है। छिपकर कार्पेट सिलाई सीख कर अमल के लिए जूते बनाकर उसे अचम्भित कर देती है और अपनी सफलता पर उल्लसित हो उठती है। फिर तो अमल की फ़रमाइशों की झड़ी लग जाती है। गुलुबंद, कढ़े हुए रेशम के रूमाल, कुर्सी का ग़िलाफ़ आदि-आदि और चारू बड़े शौक़ और आह्लाद से उन फ़रमाइशों को पूरा करती। इस प्रकार से कहानी की शुरूआत होती है। निरंतर छोटी-छोटी घटनाओं के घटते रहने के कारण चारू के जीवन की शून्यता भरने लगती है। छोटी-छोटी घटनाओं की भरमार है नष्टनीड़ में जो चारूलता और अमल के प्रेम की जन्मदाता हैं और उनके प्रेम को गहराई भी प्रदान करती हैं और फिर प्रेमावस्था में प्रलय भी इन्हीं घटनाओं के माध्यम से ही आता है। प्रथम परिच्छेद का विश्लेष्ण करने पर ही स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार से ये छोटी-छोटी घटनाएँ कथा में वेग का संचार करती हैं, चरित्र को एक दूसरे के निकट लाती हैं और उनका सम्बन्ध एक नई रोशनी से झिलमिला उठता है। इस प्रकार की घटनाओं की उत्पत्ति करके रवीन्द्र नाथ अपने लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। 

चारू और अमल को बग़ीचे की परिकल्पना में व्यस्त कर देते हैं, फिर अमल का रचना पाठ और चारूलता का विभोर होकर सुनना और फिर अमल को चकित करते हुए चारू उसे फिर से लिखने का आग्रह करती है। “उस दिन वृक्ष के नीचे अमल ने साहित्य रस का प्रथम पान किया, साक़ी नया था, रसना भी नवीन और अपराह्न का आलोक लम्बी छाया में रहस्यपूर्ण सा लग रहा था।” (गल्प गुच्छ पृ.-413) इस प्रकार से दोनों साहित्य के मादक रस को पान करते हुए जीवन के मादक रस को पान करने लगते हैं। दो इन्सान, जीवन के जटिल तंतुजाल में फँसे दो पतंग। रवीन्द्र नाथ ने प्रस्तुतीकरण की एक अलग रीत अपनाई है। कथा की गति तीव्र नहीं है, धीर है, घटनाएँ बड़ी नहीं है तुच्छ हैं, चरित्र अपनी अपनी जगह स्वाभाविक आचरण करते हैं—सहज सरल। ऊपरी तौर पर गहन विस्तार नहीं दिखता है। परन्तु अंधकार की ओर बढ़ती हुई जड़ें अनेक गहराइयों तक जाती हैं। कहानी के आरंभ में प्रेम का जन्म और तत्पश्चात् उस प्रेम की अग्निशाखा में दहन। 

इस कथा के लिए रवीन्द्र नाथ ने एक बड़े कालखण्ड को चुना है। चरित्रोंं में परिवर्तन बड़े व्यापक रूप से होता है। कथा के आरंभ में हम जिस चारूलता और भूपति से मिलते हैं उनमें आमूल परिवर्तन परिलक्षित होता है। एक विराट फलक पर रवीन्द्र नाथ एक असमाजिक प्रेम को और उसके परिणाम को प्रस्तुत किया है। तीव्र मानसिक कष्ट, आन्तरिक दग्धता और पारिवारिक विघटन। 

फ़िल्म में सत्यजित रे ने इन पलों को कैमरे में अति चमत्कारिक रूप से क़ैद किया है। सीमित संवाद, मन को छू लेने वाले कोमल क्षणों का फ़िल्मांकन, और कैमरे के कलात्मक प्रयोग ने फ़िल्म के हर क्षेत्र में सत्यजित रे की दक्षता को उभारा है। 

बाग़ीचे में झूले का दृश्य रे के निर्देशन का एक उत्कृष्ट नमूना है। चारूलता बाग़ीचे में झूला झूल रही है अमल भी उसके संग है। 

ऐसे में चारू को अमल के प्रति अपने प्रेम का आभास होता है। जिसे रे ने “फूले फूले दूले दूले बहे की बा धीर बाय” (रवीन्द्र संगीत) गीत से दर्शाया है, प्रेम का आभास के होते ही चारू के चेहरे के हाव-भाव धीरे-धीरे बदलने लगते हैं। अमल के प्रति अपने प्रेम को अनुभव करके चारू चौंक जाती है। झूले का आगे-पीछे होना अमल के प्रति उसके मन में जिस प्रेम ने जन्म लिया है उस राह पर अग्रसर हो या नहीं, इस भाव को कैमरे के माध्यम से दर्शाया गया है। झूलने के माध्यम से, आगे बढ़े या नहीं, मन के इस द्वन्द्व को दर्शाया है। 

झूला, बाइनॉकुलर आदि के माध्यम से सत्यजित रे बहुत कुछ कह जाते हैं। आज भी फ़िल्म इन्स्टीट्यूट में सत्यजित रे की इन संवादहीन दृश्यों को दिखाया और पढ़ाया जाता है। निर्देशन और फ़िल्मांकन की इस पद्धति को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है। देश और विदेशों में फ़िल्म के क्षेत्र में रे का यह बहुत बड़ा योगदान है। ऐसे में ‘चारूलता’ फ़िल्म को चर्चा का विषय बनाकर पढ़ाया जाता है

अमल और चारू दोनों के रुचि का माध्यम साहित्य होने का कारण अक़्सर काव्य ही उनकी चर्चा का विषय रहता। रे ने चारूलता को सेक्स की प्रतिमूर्ति न बनाकर एक बौद्धिक साहित्यिक रुचि सम्पन्न नारी के रूप में प्रस्तुत किया है। वो पियानो बजाना जानती है। एकाकी पलों में कविता लिखते हुए भी दिखाया गया है। उसकी कविता अख़बार में छपती है और चारू उस अख़बार को अमल से छिपाकर रखती है क्योंकि अमल की कविता नहीं छपी है। चारूलता अमल की मानसिक परिस्थित को समझ जाती है और अख़बार को फाड़ देती है। 

ऐसे में भूपति का आगमन होता है जो कि यह समाचार सुनाते हैं कि अख़बार चलाने में असफल होने के कारण वो अख़बार बंद कर रहे हैं और मैसूर से निकलने वाले एक अख़बार के संपादक बनकर वहाँ जाने की घोषणा करते हैं। अमल अपने भाई को उमापद के हाथों लुटते हुए देखता है और दुखी होता है। और इस बात को जब भूपति कह रहे होते हैं तब चारू को रे ने पलंग के एक खंभे की आड़ में से अमल की ओर चपलता से देखते हुए दिखाया है। उसी समय अमल यह निर्णय कर लेता है कि उसे अपने इस दुखी भाई के समक्ष अपने और चारू के प्रेम को उजागर नहीं होने देना है। भूपति बहुत दुखी थे और उस समय उन्हें सहारे की संवेदना की प्रेम की आवश्यकता थी जो उसे केवल चारू ही दे सकती थी पर चारू के चेहरे के हाव-भाव से इस प्रकार की कोई भी मंशा उसमें दिखाई नहीं दे रही थी। उसी समय अमल यह निर्णय कर लेता है कि वह वहाँ से चला जाएगा और उसने विवाह करने विलायत जाने का निर्णय ले लिया। 

रे ने चारू, अमल और भूपति के वार्तालाप और मनोभाव को कैमेरे के मूवमेंन्ट और ब्लैक एंड व्हाइट छाया चित्र के माध्यम से अति संवेदनात्मक रूप से दर्शाया है। इस बीच छोटी–बड़ी अनेक घटनाएँ घटती हैं जो कथा को गति प्रदान करती हैं। अमल और चारूलता के प्रेम संबंध में गाँठ पड़ जाती है जिस से चारू मनकष्ट से भुगतती रहती है और अमल विदेश चला जाता है। अमल के चले जाने पर चारू के टूट जाने वाले दृश्य बहुत ही मर्मान्तिक और हृदय स्पर्शी हैं। भूपति को धक्का तब लगता है जब उसे पता चलता है चारू ने अपने गहने बंधक रखकर उसी पैसों से अमल को तार भेजा है। जबकि पहले से ही उनके पास अमल की कुशलता का समाचार पहुँच चुका होता है। संदेह के बीज पनप उठते हैं। भूपति तिलमिला उठते हैं। चारू को ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी? मुझसे कहती तो मैं ही तार भेज देता। भूपति ने चारू के इच्छा अनुरूप अपने को ढालने का भरसक प्रयास किया, पर सदा असफल रहते हैं। मैसूर जाते समय भूपति सोचते हैं—जो नारी अपने अंतर में अपने विफल प्रेम को लेकर जीती है संसार उसके लिए कितना कष्टदायक लगता होगा। 

जिस साहस और संयम का परिचय रवीन्द्रनाथ ने दिखाया है वह आधुनिक साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। उन्होंने बांग्ला गल्प के क्षेत्र में एक नया पदक्षेप स्थापित किया है। यह कहना सही होगा कि आज भी कथा के क्षेत्र में मनोविश्लेषण की उसी धारा का अनुसरण करता चल रहा है। रवीन्द्रनाथ की कहानियों में नारी चरित्र घूम-फिर कर बार-बार नए रूप में दिखाई पड़ती हैं। लगता है शान्त, नीरव, दृढ़ मनोबल धारी कोमल पर अविचलित दृढ़ता से समस्त विरोधी शक्तियों का सामना करने वाली नारी को ही रवीन्द्रनाथ ने अपनी रचना का आधार बनाया है। 

उनकी कहानियों में व्यक्ति संबंध ही मुख्य है और उस संबंध में भी स्वभावतः ही जटिल, मधुर अथवा तीव्र प्रेम ही मुख्य है। जिनमें ‘नष्टनीड़’ अति प्रसिद्ध है। इसलिए फ़िल्म निर्माण से जुड़े फ़िल्म के हर क्षेत्र में दक्ष विश्व प्रसिद्ध प्रकाशक निर्देशक, पटकथा लेखक, कास्टिंग, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन संपादन आदि में दक्ष सत्यजित रे ने ‘नष्टनीड़’ पर फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया और विश्व प्रसिद्ध फ़िल्म बनाई। उन्होंने मानवीय भावनाओं को अपनी फ़िल्म में स्थान दिया। नारी मन की एकलता उसके एकाकीपन के दर्द से रे अधिक आकृष्ट हुए। उन्होंने चारू के साहस को एक भिन्न रूप से प्रस्तुत किया। उसे विद्रोहिणी नहीं पर समय की लीक से हटकर—पति के सिवाय एक अन्य पुरुष के प्रेम में रम गई दिखाया है। अमल जो कि उसका देवर है, उसे चारू को अपनी एकलता का सहारा बनाते हुए दिखाया है। जब कहानी रची गई तब के समाज में इसके कथा के कारण रवीन्द्रनाथ को अनेक आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। और जब रे ने उस पर फ़िल्म बनाई तब भी उनको अनेक विद्रोहात्मक परिस्थितयों का सामना करना पड़ा था। पर रे ने सभी आलोचनाओं का डटकर सामना किया। 

सत्यजीत रे एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने पद्मश्री से लेकर पद्मविभूषण तक और ऑस्कर अवार्ड से लेकर दादा साहेब फाल्के पुरस्कार तक अर्जित किया। इनके पुरस्कारों की लिस्ट बहुत लम्बी है। उन्होंने आर्ट सिनेमा को जिस तरह से उजागर किया इससे केवल देश में ही नहीं पूरी दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाने लगा। उन्होंने आर्ट सिनेमा का एक नया ट्रेंड स्थापित किया। 

सत्यजित रे ने एक इंटरव्यू में कहा था—“Charulata” (The Lonely Wife) is my favourite among all films which । made in my 40 years long career.” For Ray, this was the film with the least number of defects, the one film which he would make in exactly the same way, if asked to again. 

कहानी के अंत में नष्टनीड़ में रवीन्द्रनाथ ने, भूपति के मैसूर जाते समय चारू उनके साथ मैसूर जाने का आग्रह करती हुई दिखाया है, विदा लेकर भूपति द्वार के पास पहुँचा तब सहसा दौड़कर चारू ने उनका हाथ पकड़ लिया। कहा, “मुझे संग ले चलो। मुझे यहाँ छोड़कर मत जाओ।”

भूपति जाते-जाते सहसा रुककर चारू के मुख की ओर देखते रहे। मुट्ठी शिथिल पड़ने के कारण भूपति के हाथ से चारू का हाथ छूट गया। भूपति सोचते हैं, “जिसके हृदय पर मृतभार है, उसे छाती से लगाकर रखना, इसे मैं कितने दिन तक कर सकूँगा। प्रतिदिन यही करते-करते मुझे और कितने वर्ष जीवित रहना होगा! जो आश्रय चूर्ण होकर टूट गया है उसके टूटे-ईंट काठादी को छोड़कर नहीं जा सकूँगा, कंधे पर उठाए घूमना होगा?” (गल्प गुच्छ पृ. 448) और वो मना कर देते हैं। पर चारू के सफेद पड़ते चेहरे को देखकर भूपति राजी हो जाते है। पर तब तक चारू अपने को सँभाल लेती है, चारपाई की मुट्ठी को कसकर पकड़ लेती है और कहती है, (थाक) ”नहीं, रहने दो।”

परन्तु फ़िल्म में सत्यजित रे ने इस दृश्य को एक अलग आयाम दिया है। उन्होंने अंतिम दृश्य को बहुत ही महत्त्वपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनाया है। बैकग्राउंड में अख़बार पड़ा रहता है। अख़बार जो दोनों के मध्य दूरी का कारण बना, नष्टनीड़ का मूल कारण, जिसके कारण व्यवधान की उत्पत्ति हुई। और भूपति और चारू के एक दूसरे की ओर बढ़े हुए हाथ मिल नहीं पाते। एक दूरी बनी रहती है और नष्टनीड़ का संगीत बज उठता है। पर्दे पर माधवी मुखर्जी (चारू) का आधा चेहरा अँधेरे से ढँका हुआ दिखता है और आधा उजाले में होता है। उसी तरह से शैलेन मुखर्जी (भूपति) का भी आधे चेहरा उजाले में और आधे को अँधेरे में दिखाकर रे ने यह दिखाना चाहा है कि दोनों के मन का आधा हिस्सा एक दूसरे से अनजान रहा। दूरियाँ बनी रहीं। अर्थात्‌ जो “नीड़” है वो बच नहीं पाता, नष्ट हो जाता है। संपूर्ण पर्दे पर ‘नष्टनीड़’ लिखा दिखाई देता है और संगीत के साथ फ़िल्म समाप्त हो जाती है। 

‘नष्टनीड़’ फ़िल्म में संगीत का एक अहम् हिस्सा है। रे स्वयं ही इस फ़िल्म के संगीतकार हैं। यंत्र संगीत के माध्यम से रे एक ऐसा परिवेश तैयार करते हैं जिससे कि दर्शक स्वयं को उसी माहौल में पाते हैं और दृश्य के साथ तादात्म्य उपस्थित करने में और परिस्थिति का उपभोग कर तृप्त होते हैं। यह उनके यंत्र संगीत का ही कमाल है कि हम चारू के दर्द को उसके अकेलेपन को समझकर उसके प्रति संवेदना से भर उठते हैं। लय का उतार चढ़ाव मानसिक अवस्था के साथ ऐसे जुड़ जाता है जैसे कि अंतर्मन की अवस्था होती है। रोशनी से जगमगाता बाग़ीचा, झूला, सिलाई-कढ़ाई, दरों-दरवाज़ों पर की चित्रात्मकता, घोड़ा गाड़ी आदि जैसे अनमोल सेटिंग का श्रेय उनके आर्ट डिरेक्टर बंसी दासगुप्त को जाता है। जिन्होंने ‘चारूलता’ मैं अपनी असाधारण दक्षता का परिचय दिया है। 

अभिनय की दृष्टि से सभी कलाकारों ने अद्भुत अभिनय किया है। तनाव, लाचारी, कड़वाहट, प्रेम, संघर्ष सारे भावों को रे ने कैमरा में बड़ी कुशलता से क़ैद किया है। माधवी मुखर्जी ने चारू के चरित्र में स्वयं को ढाल दिया। वह साधारण नारी नहीं थी बौद्धिकता से भरी रुचि सम्पन्न नारी थी। पूरी फ़िल्म में वह आदि से अंत तक अपनी विशिष्ट हाव-भाव और बौद्धिकता के साथ छाई रही। भूपति भी अपने व्यवसाय में व्यस्त, पत्नी को सुख संपन्नता में रखने और उसका ख्याल रखनेवाले पति के रूप को बड़ी कुशलता से उभरे हैं। अमल एक कालबोईसाखी (तुफ़ानी हवा) की तरह फ़िल्म में आता है सभी के मन में रंग भरकर फिर रंग-भंग करके चला जाता है। उच्छल, हँसमुख, साहित्य रसिक, कविता प्रेमी, अपनी बोऊठान (भाभी) से अंतरंगता स्थापित करके, जब भाई को परेशान होता देखता है तो एक विवेकशील पुरुष की तरह वहाँ से चुपचाप चला जाता है। भाई पर अपने प्रेम को उजागर नहीं होने देना चाहता है, जिसने उसे आश्रय दिया उसे और दुखी नहीं करना चाहता है। 

अपने कलाकारों से रे ने बड़ी कुशलता से उनके अन्तर्निहित, उनकी अभिनय कला को अति उच्च स्तर तक पहुँचाया है। चारू और अमल के प्रेम के क्षणों में किसी से भी रे ने प्रेमाभिव्यक्ति के संलाप नहीं बुलवाये हैं। संगीत और हाव-भाव ही अभिव्यक्ति का माध्यम रहा। उसी प्रकार से अमल के प्रति चारू के प्रेम को, चारू के रुदन के माध्यम से ही भूपति समझ जाता है। कोई संवाद नहीं, संगीत और भाव परिवर्तन ही आधार होता है। उपरोक्त्त सभी लेखन के बावजूद और भी बहुत कुछ है, जो छूट गया होगा। उनकी विशालता को शब्दबद्ध करना और अधिक क्षमता की माँग करता है। 

  • ‘चारूलता’ के लिए सत्यजित रे को अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया –
  • प्रेसिडेंट्स गोल्ड मैडल, 1964 (President 's Gold Medel, 1964) 
  • सिल्वर बेयर फ़ॉर बेस्ट डाइरेक्शन, 1965 (Silver Bear For Best Direction, 1965)
  • कैथोलिक अवार्ड, बर्लिन, 1965 (Catholic Award, Berlin, 1965) 
  • बेस्ट फ़िल्म, अकापुलको 1965 (Best Film, Acapulco 1965)

कला के क्षेत्र में दो विभूतियों ने मिलकर एक ऐसी कालजयी कृति का निर्माण किया जिससे पूरा विश्व भारतीय साहित्य और फ़िल्म का लोहा मानने लगा। कथा के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ की कहानी ‘नष्टनीड़’ और उसी कथा के आधार पर फ़िल्म के क्षेत्र में सत्यजित रे ने फ़िल्म ‘चारूलता’ का निर्माण किया। दोनों अपनी अपनी कृति के द्वारा अमर हो गए। दो महान कलाकारों को नमन। 

संदर्भ ग्रंथ:

  1. गल्प गुच्छ , रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  2. बांगला छोटो गल्प, शिशिर कुमार दास
  3. “विषय चलचित्र”, नामक पुस्तक में लिखा सत्यजित रे का लेख
  4. “चारूलता प्रसंगे”, में से
  5. हिन्दी बांगला अंग्रेज़ी की पत्र पत्रिकाओं में से
  6. “चलचित्र समाज ओ सत्यजित रे”, अमिताभ चट्टोपाध्याय का लेख से

चारूलता

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