अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आत्महत्याओं के भयानक दौर में देखना एक अद्भुत फ़िल्म को – लाईफ इज़ ब्युटीफुल

“लाईफ इज़ ब्युटीफुल” फ़िल्म को बने समय हो गया है पर तब तक आपके लिए वह फ़िल्म नयी ही होती है जब तक आप उसे देख नहीं लेते ठीक वैसे ही जैसे ज़िन्दगी का हर वह अनुभव नया ही होता है जब तक आप उसे भोग नहीं लेते।

फ़िल्म 1997 में बनी पर मैंने यह फ़िल्म पिछले हफ़्ते ही देखी। ऐसा लगा जैसे समय कितना ही ख़तरनाक क्यों न हो ज़िन्दगी हमेशा प्यार करने के लायक़ ही होती है| इस फ़िल्म को देखते हुए आज असंख्य लोगों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएँ और उनकी बढ़ती दर दिखाई देने लगी। लोग क्यों हार जाते हैं ज़िंदगी से? क्यों इतनी जल्दी उन्हें ज़िंदगी ख़त्म कर देना आसान लगने लगता है? हम क्यों इतने कमज़ोर पड़ने लगे हैं? यह वक़्त का मामूलीपन है या हम ज़िंदगी को पूरी इज़्ज़त नहीं दे पा रहे हैं।

आत्महत्याएँ बहुत मामूली से लेकर बहुत बड़ी वज़हों पर की जा सकती हैं ठीक वैसे ही जैसे प्यार बहुत मामूली या बिना किसी वज़ह के हो जाता है। बहुत दिनों बाद इस बेहतरीन फ़िल्म को देखनेके बाद ऐसे कई सवाल मन को घेर रहे थे। जर्मनी में हिटलर का आतंक, नाज़िज़्म का भयानक चेहरा और कांस्ट्रेशन कैंप जहाँ लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया जाता था। ऐसे में एक जर्मन लड़की एक यहूदी लड़के से प्यार कर बैठती है। एक छोटा सा किताब घर चलाने वाला लड़का जिसे स्वयं को भगा ले जाने के लिए वह अपनी ही सगाई में आमंत्रित करती है। वह एक सफ़ेद घोड़े पर सवार एक जादूगर बनकर उस शादी के समारोह में शामिल होता है और वहाँ की भीड़ को संबोधित करते हुए कहता है कि "देखिए यहाँ पर बैठी सबसे ख़ूबसूरत औरत के इस घोड़े पर सवार होते ही यह घोड़ा उड़ने वाले सफ़ेद घोड़े में तब्दील हो जाएगा और मैं आपको दिखाऊँगा कि घोड़े पर सवार होकर उड़ा कैसे जाता है "

आदमी कितने भी ख़तरनाक समय में क्यों न हो, वह चमत्कार पर यक़ीन करना चाहता है। इस कहानी का हीरो अपनी प्रेमिका को भगा ले जाता है। एक जर्मन प्रेमिका और यहूदी प्रेमी की यह गाथा आगे बढ़ती है। दोनों की शादी और फिर बच्चा। बच्चा आठ-नौ साल का होता है। उसके पास ढेर सारे सवाल हैं। मसलन हर जगह यह बोर्ड क्यों लगा हुआ है कि है कि "कुत्तों और यहूदियों का अंदर आना मना है"? वह यह सवाल पूछता है पर पिता इतने छोटे बच्चे को किसी घृणा या कड़वाहट का शिकार नहीं बनाना चाहता इसलिए उत्तर बड़ा सहज आता है  "प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पसंद और नापसंद होती है, वे यहूदियों को पसंद नहीं करते इसलिए ऐसी बातें लिखते हैं “

वह नफ़रत जैसे भारी शब्द की जगह जानबूझकर नापसन्दगी जैसा सहज शब्द इस्तेमाल करता है ताकि बच्चे के मन की कोमलता बनी रहे। साथ ही यह भी ताकीद करता है, "तुम भी अपनी पसंद या नापसंद की अभिव्यक्ति कर सकते हो परंतु यह तर्क पर आधारित होना चाहिए कुतर्क पर नहीं "। बच्चा उतने ही सहज मन से उत्तर भी देता है, "पिताजी हमारी गली के कुत्ते के भयानक जबड़े और दाँत हैं। वह मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है। मैं अपनी तख़्ती पर लिखूँगा कि उसका अंदर आना मना है "

दिन बीतते जा रहे थे और नाज़ियों का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन उन दोनों बाप बेटों को उनकी दूकान से उठा लिया जाता है और यहूदियों से भरी एक ट्रेन में बैठा दिया जाता है। पत्नी को पता चलता है तो वह भी स्टेशन पहुँच जाती है और उसी गाड़ी में सवार हो जाती है। ट्रेन एक भयानक गंतव्य की ओर चल देती है। वहाँ औरतें, बच्चे और मर्द अलग किए जा रहे होते हैं। बेटा फिर सवाल पूछता है  “कौन सी जगह पर हैं हम “? बाप का जवाब देखते ही बनता है, "हम यहाँ पर एक खेल खेलने आए हैं जिसके कुछ नियम हैं “।  - बेटा पूछता है ? पिता आने वाले भयानक वक़्त को एक सहज खेल में तब्दील करते हुए कहता है कि नियम यह है कि “कोई वक़्त बेवक़्त खाना नहीं माँगेगा, चाकलेट नहीं माँगेगा और शरारत भी नहीं करेगा तो उसे अंक मिलेंगे और जो एक हज़ार अंक इकट्ठा कर लेगा, उसे एक बहुत बड़ा टैंक ईनाम में मिलेगा “। मौत के इस ख़ौफ़नाक खेल को पिता बच्चे के लिए हँसने की वज़ह बना देता है। यही कर सकता था, वह उसके लिए। वह हँसता है, मुस्कराता है। रोज़ घंटों लोहे की भारी मशीनें यहाँ से वहाँ तक पहुँचाता है और अपने बच्चे को अपने लिए मिलने वाली ब्रेड तक खिला देता है पर मरने का नहीं सोचता न आत्महत्या का ख़्याल उसके मन में आता है।

उसे यक़ीन था कि कुछ हो जायेगा शायद, कोई चमत्कार और फिर सब बदल जायेगा। वह दूसरे सैल में रहने वाली अपनी पत्नी को भी संकेत भेजता है ताकि उसकी उम्मीद बनी रहे। वह ख़ुद ज़िन्दगी का एक चलता-फिरता चमत्कार है। एक जादूगर जो पास आती मौत को एक कबूतर में बदल देता है और उड़ा देता है दूर आकाश में।

बच्चा अब खेल से ऊबने लगा है। वह अब थक गया है और उसे अब पिता की बात पर संदेह होने लगता है। बाक़ी बच्चे जलती भट्टी में फेंक दिए गए हैं पर पिता इसे छिपा देता है तभी ख़बर आती है कि मदद आने वाली है और दो दिन अगर और निकल गए तो फिर आज़ादी पक्की है। सब एक-एक करके मारे जाते हैं। अंतिम रात बची है। बच्चे को यह हिदायत देकर कि जब तक वह वापिस न आए और बाहर बिल्कुल सन्नाटा न हो जाए, उसे बाहर नहीं निकलना है। वह अपनी पत्नी को तलाश करने जाता है पर पकड़ लिया जाता है।

यहीं वह अद्भुत दृश्य सामने आता है जो एक मनुष्य के विश्वास की और ज़िन्दगी से उसके प्यार की कहानी लिख देता है। सिपाही उसी लैटर बाक्स के सामने से जिसमें वह बच्चा छिपा था, उसके पिता को लेकर निकलता है पर पिता रोने चिल्लाने, घबराने की जगह उसे आँख मारता है यह दिखाने के लिए कि खेल अभी चल ही रहा है। बच्चा भी वापिस आँख मारता है। अब वह बिना किसी डर के अपने पिता के खेल में शामिल है। आगे किसी अँधेरे कोने में पिता को बंदूक से उड़ा दिया जाता है। वह अपना खेल खेलते मुस्कराते हुए चला जाता है। रात पूरी गुज़र जाती है। सुबह चारों तरफ मौत का सन्नाटा है। बच्चा बाहर निकलता है। दो क़दम आगे बढ़ता है और देखता है कि एक टैंक उसकी तरफ बढ़ता आ रहा है, वह ज़ोर से चिल्लाता है, "अरे यह तो सच है, पिताजी सच बोल रहे थे। देखो मैं खेल में जीत गया और यह टैंक मेरा ईनाम है ”। बच्चा टैंक पर सवार है। कुछ दूर जाने पर उसे उसकी माँ दिखती है और वह फिर ख़ुशी से चिल्ला उठता है, "देखो माँ ! पिताजी ठीक ही कह रहे थे हम खेल जीत गए "। माँ मुस्कुरा कर उसे बाँहों में भर लेती है।

इस तरह जिंदगी के इतने ख़तरनाक समय को भी एक पिता खेल में बदलकर अपने बच्चे को जीत हासिल कराता है और यह हौसला भर देता है कि ज़िन्दगी हर हाल में हसीन है। वह चला जाता है पर ज़िन्दगी का जादू एक जादूगर की तरह एक अमूल्य धरोहर के रूप में अपने बेटे को सौंप जाता है हमेशा-हमेशा के लिए। 

मुझे लगा कि सचमुच जिंदगी के जिस जादू के इतंज़ार में हम पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं वह दरअसल और कहीं नहीं हमारे भीतर ही होता है। आत्महत्याओं के इस लंबे और भयानक दौर में काश फिर से इस जादू पर यक़ीन किया जा सके और कौन जाने मौत की भयानक चील फिर से एक सफ़ेद कबूतर में तब्दील हो जाये और हम उसे आबरा का डाबरा कहते हुए दूर आकाश में उड़ता देखें। मैंने यह फ़िल्म अपने किशोर बेटे के साथ देखी। उसकी आँखों में भी एक चमक थी। मुझे लगा कि इस फ़िल्म को देखते हुए जैसे हम दोनों ने भी थोड़ा-थोड़ा जादू महसूस किया है। उसके चेहरे की मुस्कराहट इस बात की गवाह थी।

रिम्पी खिल्लन
सहायक प्रोफेसर
इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय
दिल्ली

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

ज्योति कश्यप 2022/01/06 10:31 PM

मैम, वक्त और परिस्थितियों के बीच कड़ी जोड़ने वाला सचमुच एक अद्भुत किस्सा है।

रजनी शर्मा 2021/11/24 12:33 PM

बहुत सुंदर संदेश जो आज की रोज मर्रा जिंदगी के ताने बाने में हम भूल गए हैं। जिंदगी हार हाल मे अमूल्य है और उसको जीने की कला हम सबको देर सवेर सीखनी ही पड़ेगी। जितनी जल्दी सीखते हैं उतना जल्दी हम जिंदगी के ताने बानो को इंद्रधनुषी रंग दे पायेंगे। लेखिका हमेशा गहरे से गहरे भावों को, संस्मरणों को सुंदरता के साथ मार्मिक चित्रण करती है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सिनेमा और साहित्य

कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं