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कुछ भी होल्ड नहीं करता शायद

 

आज क्लासरूम में “शायद” एकांकी पढ़ा रही थी। हम सब अपनी ज़िंदगी में “शायद” से गुज़रते हैं। कभी रिश्तों में, कभी काम में और कभी अपने वुजूद में ही। एक जैसी चलने वाली ज़िन्दगी के बीच कभी सवालों तो कभी जवाबों के सिरे तलाशते हुए। ठीक वैसे ही जैसे हर साल आने वाले नये विद्यार्थियों को मैं यह नाटक पढ़ाती हूँ और हर साल स्वयं को ही किसी “शायद” में उलझा पाती हूँ। कभी तो यही सवाल होता है कि स्त्री और पुरुष पात्रों की संवाद हीनता से घिरा यह एकांकी जो उनके ही टूटते और दरकते संवादों से बना है, उसे कहीं ये क्लास सिर्फ़ पाठ्यक्रम के सवालों के हल ही के लिए पढ़ रही होगी शायद। महिला महाविद्यालय में पढ़ाने वाली मैं ख़ुद भी तो एक सपाट दिनचर्या में उलझी हूँ। एक समर्पित टीचर के समर्पित घंटे, जिनकी ज़रूरत भी तो सामने वाले पक्ष को हो शायद। कहीं मोहन राकेश दूर से भी मुझे देखते हों तो समझते हों कि आज के विद्यार्थियों की दिनचर्या के बीच पता नहीं इतने “शायद” की जगह भी हो शायद। 

मेरे भीतर वही स्त्री आज भी है जो उस पुरुष से संवाद करना चाहती है जिसे ख़ुद नहीं पता कि वह क्या चाहता है और शायद मेरे भीतर की स्त्री को भी नहीं पता कि वह जानना क्या चाहती है। सवालों में जवाब और जवाबों में सवाल उलझते जाते हैं। मेरी क्लास चलती जाती है। यह सेमेस्टर इसी ख़ालीपन के सिरे पकड़ते-पकड़ते गुज़र रहा है। कोरोना काल में घर में ही क्लास है और फिर शायद घर भी घर में ही है और मैं दोनों के बीच जी रही हूँ या भटक रही हूँ शायद। मेरे घर के सामने वाली आंटी ने दो बिल्लियाँ पाली हुई हैं जिनके साथ वे एक परिवार की तरह रहती हैं। पति से अलग होने पर यही उनका परिवार है। एक का नाम “मिली” है और एक का “चिली”। मेरे पति को चिली पसंद है—उसके नाम के कारण क्योंकि उन्हें तीखा खाने की आदत है। मैं तय नहीं कर पाती कि मेरी पसंद क्या है? शायद तय कर पाती-कभी मैं भी अपनी पसंद। मुझे अक़्सर उन बिल्लियों के रोने का स्वर ग़ुस्से से भर देता है, पर कुछ कर नहीं पाती मैं! 

ये सेमेस्टर भी निकल रहा है। महिला महाविद्यालय में पढ़ाते-पढ़ाते सालों हो गये हैं। कितनी बार स्‍टाफरूम में अपने ‘शायद’ के साथ जाती हूँ और किसी और के ‘शायद’ के साथ आ जाती हूँ। बच्चे पूछ रहे हैं कि मैडम सार बता दो बस। मैं हूँ कि दीवारों की दरारें टटोल रही हूँ। शाम को चाय बनाने के लिए रसोईघर में हूँ और सामने की दीवार की दरार को देखकर सोचती हूँ कि आज कहूँ फोन करके मिस्त्री को इसे भरने के लिए। क्या क्या देखूँ? एक दिन भूकंप ही बड़े रिक्टर स्केल का आ गया दिल्ली में तो फिर ‘शायद’। 

मेरे सिर में ज़ोरों का दर्द है और बाम फिर नहीं मिल रहा, लगता है हर बार की तरह इस बार भी नीचे के फ़्लोर की प्रीति माँग कर ले गयी है। कल नाटक का प्रतिपाद्य लिखवाना है निर्धारित शब्द सीमा में। मैं सोच रही हूँ कि पहले चाय पी ली जाये। कल का कल सोच लूँगी। अब तो स्टुडेंट फ़ीडबैक फ़ॉर्म भी होता है और महिलाएँ इसका सख़्ती से पालन करती हैं। मैं भी महिला हूँ ना! इतनी बेफ़िक्र नहीं रह पाती शायद। पर पुरुष ही कहाँ बेफ़िक्र होते हैं, पर दिखते तो हैं। भाड़ में गया स्त्री पुरुष का यह संवाद। 

कल सार लिखवा दिया और बस छुट्टी। छुट्टी होती कब है? इस बार कहीं दूर जाऊँगी छुट्टी मनाने। इस क्लास, इस सेमेस्टर और इन बिल्लियों से दूर। मेरी क्लास की एक स्मार्ट लड़की आज एक लिंक मुझे भेज रही है और पूछ रही है, “मैडम यही सार ठीक है ना।” सार का टाईटल है, “कुछ भी होल्ड नहीं करता।” यह वही डायलॉग है जिसे मोहन राकेश के पुरुष ने कहा था। आज की जनरेशन सचमुच स्मार्ट है। 

“सार सार को गहि रहै, थोथा दिए उड़ाए।” मेरी नज़र सार पर जाती ही नहीं है। सचमुच कहीं कुछ होल्ड नहीं करता सिवाय इसके कि सार पता चल जाए। चलो मेरी तो छुट्टी, अब कल सार लिखवाने की चिंता नहीं। मेरे सिर का दर्द कुछ कम हुआ है। अभी एक ऑनलाईन मीटिंग है कि टीचिंग ऑनलाईन जारी रखी जाए या फिर ऑफ़लाईन। मैंने ऑनलाईन मीटिंग ज्वाइन कर ली है। जैसे ही मैंने मीटिंग ज्वाइन की वैसे ही बाहर बिल्लियों ने फिर रोना शुरू कर दिया है। मैं अपनी बाम फिर तलाश कर रही हूँ। मीटिंग चल रही है। इतने में घंटी बज उठी। मैं माईक म्यूट पर करती हूँ और दरवाज़ा खोलने लपकती हूँ। कोई दिमाग़ में चीख रहा है “कहीं कुछ होल्ड नहीं करता।” 

मोहन राकेश जी के ज़माने में कोरोना नहीं आया था, नहीं तो “आधे अधूरे” के कितने संस्करण लिखे जा चुके होते। आज लग रहा है कि हम सब स्पेस पर पहुँच गए हैं, पर स्पेस की तलाश में फिर भी है—पर कैसा और किससे? मामला शायद स्त्री और पुरुष का ही नहीं है। तो फिर मामला आख़िर है क्या? पता नहीं क्यों कुछ भी होल्ड नहीं करता। बकौल मोहन राकेश शायद मैच्योर हो जाने पर कुछ भी उतनी ख़ुशी नहीं देता। कहीं मैं जैलस तो नहीं हूँ उस लड़की से जिसने खट्ट से सार की समस्या दूर कर दी है। इस उम्र में हल चुटकियों में निकल जाता है। पर मैच्योर होना क्या होता है? पता नहीं, शायद बालों की सफ़ेदी से इसका कुछ लेना-देना होता हो। इस बार लंबी छुट्टी पर जाने की ज़रूरत है। मैं इन मैच्योर औरतों के साथ इतनी मैच्योर हो गई हूँ कि कुछ भी ख़ुशी नहीं देता। नहीं जाना है मुझे वापस उस स्‍टाफ रूम में। “मैं ऑनलाईन टीचिंग से सहमत हूँ”—माईक ऑन करके हड़बड़ाहट में कह देती हूँ। 

डोर बेल बजी है, फिर से! दरवाज़ा खोला तो देखा सामने प्रीति खड़ी है—हाथ में बाम लिए। प्रीति ने कहा, “ओह, सौरी सारी अपनी नयी बाम मँगाई थी, पर पता नहीं कहाँ रखकर भूल जाती हूँ।” मैंने उसे सान्त्वना देते हुए जवाब दिया, “कोई बात नहीं, मैं ही चीज़ें कहाँ क़रीने से रख पाती हूँ।” उसके चेहरे पर वही स्त्री वाला भाव था और मेरा जवाब भी उसी टेक पर था शायद। 

आज पक्का खिड़की खुली रख कर सोऊँगी। कोई शायद, वायद नहीं। इतने सारे शायद के बीच में मैं सोचती हूँ कि क्या ज़रूरत पड़ी है इतनी गहराई में उतरने की। कुछ तो आज की जनरेशन से भी सीखा जा ही सकता है। अरे भाई उतना ही दो, जितना वे लेना चाहते हैं। क्या ज़रूरत है पनडुब्बा बनने की। फिर डूबो! सामने वाले को क्या? आप डूबो या तैरो! हर बार गहराई में उतरने से मोती नहीं मिलते। कभी कभी वह भी हाथ लग जाता है, जो गहराई में ही छिपा रह जाता तो अच्छा था! मसलन, क्यों आख़िर कुछ होल्ड नहीं करता? कहीं विचारों को भी तो कोरोना नहीं हो गया? 

 कोरोना से याद आया, बता रहे हैं उसका दूसरा स्ट्रेन आ गया है, पहले वाले से भी ज़्यादा ख़तरनाक। अब तो हम सब ख़तरों के खिलाड़ी हो ही चुके हैं। पर आज सुबह ही मैंने अख़बार में पढ़ा कि जापान में लोग पिछले साल में कोरोना से उतने नहीं मरे जितने आत्महत्याओं से मरे हैं। आँकड़ा इतना ऊपर चला गया है कि वहाँ अलग से एक अकेलापन और मानसिक पीड़ा विभाग खोलना पड़ गया है और अलग से उसका एक मंत्री नियुक्त करना पड़ा है। अब आत्महत्याओं को एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। मेरे भीतर भी यह सब पढ़ते पढ़ते कुछ मर रहा है पर शाम तक सब ठीक हो जायेगा। 

डोर बेल फिर बजी है! कभी-कभी लगता है कि मैं डोर कीपर हूँ! जैसे ही बैल बजती है, सिवाय मेरे शायद किसी और को सुनाई नहीं पड़ती, चाहे लोग घर में ही क्यों न हो? मैं दरवाज़ा खोलते ही सैनेटाईज़र हाथ में ले लेती हूँ। मिसेज़ गक्खड़ सामने खड़ी हैं। उनका चेहरा तमतमाया हुआ है। वे हमारे फ़्लैट के ठीक नीचे वाले फ़्लैट में रहती हैं। वे फट पड़ी हैं, “तुम्हारी किचन की तरफ़ से फिर मेरे कमरे की छत टपक रही है।” 

“पर अभी पिछले साल तो सब कुछ ठीक हुआ था, मिसेज़ गक्खड़,” मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए जवाब दिया। 

“तो क्या मैं झूठ बोल रही हूँ?” लगभग झल्लाते हुए मिसेज़ गक्खड़ ने पूछा।

“नहीं मैंने ऐसा तो नहीं कहा,” मैंने उन्हें समझाते हुए कहा। 

 75 साल की मिसेज़ गक्खड़ अकेली रहती हैं। इसलिए उनकी बात को काटने का मतलब है एक 75 साला अकेली, बूढ़ी औरत के प्रति संवेदनहीन होना—जैसा वे अक़्सर मुझे घोषित कर भी चुकी हैं। यह इमेज भी कमबख़्त बहुत बुरी चीज़ है, सामने वाला बना भी देता है और ढहा भी देता है। और आपको बहुत बार पता भी नहीं चलता और फिर एक दिन हवाएँ आपको बता जाती हैं कि क्या बह रहा है, इधर से उधर। मैं उनको कमरे में बिठाती हूँ और मन ही मन यह मनाती हूँ कि जितनी जल्दी उनकी रामकथा ख़त्म हो जाए, उतना अच्छा है नहीं तो आज फिर से उनके पूरे ख़ानदान के दबदबे और शोहरत से लेकर उनके बच्चों के उनको अकेले छोड़ जाने की पूरी कथा सुननी पड़ जायेगी। 

“मैं अकेली हूँ न! इसलिए मेरी कोई नहीं सुनता, कम से कम तुम लोग तो साथ दो।” इससे पहले वे कुछ और गहराई में जाती, मैंने कहा, “आंटी परसों से मेरी छुट्टी शुरू हो रही है, बुला लीजिये मिस्त्री को और चिंता मत कीजिये।” उन्हें सांत्वना देकर विदा करने के बाद मैं सोचने लगी कि छुट्टी में तो मैं इस बार कहीं दूर जाने वाली थी ना और लग गयी इमेज बचाने में। ये बूढ़े लोग भी कितने चालाक हैं। अब तो छुट्टी गयी पानी में! 

मैं भी इतनी बूढ़ी हो जाऊँगी और इतनी अकेली। ज़रूरी तो नहीं जो मिसेज़ गक्खड़ के साथ हुआ, वह मेरे साथ भी होगा। पहले आज तो जी लूँ। हमारे यहाँ कुछ बच्चों ने “पैरामीटर ऑफ़ हैप्पीनैस” पर रिसर्च की है। उनके पेपर को अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है। कल उसकी ऑनलाईन प्रस्तुति है। मैं ज़रूर सुनूँगी। शायद कोई सूत्र हाथ ही लग जाये ख़ुश रहने का! मिसेज़ गक्खड़ को भी बता दूँगी, वह सूत्र। वैसे हैप्पीनैस का कोई कलर होता है क्या? क्या पता किसी ने ढूँढ़ लिया हो? बता तो रही हूँ कि आजकल की जनरेशन बहुत स्मार्ट है, आँकड़ों से सब कुछ पता लगा लेती है। वह कुछ भी ढूँढ़ सकती है। मैं हूँ कि आज तक ख़ुद ही को ढूँढ़ती फिर रही हूँ। अब ये बात किसी को कहूँ गी तो हंँसेगा—अरे भाई जो सामने हो, उसे क्या ढूँढ़ना। सच में यह लुका-छिपी का खेल पुराना हो गया, अब तो बच्चे भी यह खेल नहीं खेलते। 

काश मैं भी ख़ुशी का कलर देख पाती। वैसे क्या वाक़ई अब कुछ भी ख़ुशी नहीं देता, पर व्हट्स ऐप पर तो मैं ने भी फोटो लगाई है जिसमें मैं ख़ुश दिख रही हूँ। मेरे स्टेटस अपडेट में भले ही तेज़ी से बदलाव नहीं आता हो पर कभी-कभी ख़ुश तो मैं भी होती हूँगी शायद। वही दिक़्क़त है, मुझे ख़ुशी का कलर नहीं पता। काश पता होता तो मैं पक्के यक़ीन के साथ कह पाती। मेरी दिक़्क़त ही यही है कि मैं कुछ भी पक्के यक़ीन के साथ नहीं कह पाती। हमेशा “शायद” में ही उलझ कर रह जाती हूँ। और यक़ीन जानिए मेरे शायद के भीतर भी कई “शायद” हैं जिनका सामना कुछ भी करते हुए अचानक मुझसे हो जाता है, पर समझ नहीं पाती कि इनका करना क्या है? 

मेरे कॉलेज में भले ही कक्षाएँ नहीं हो रही हैं, पर महिला दिवस के लिए एक ऑनलाईन मीटिंग रखी गई है, सबको अपने अनुभव साझा करने और कुछ कहने के लिए कहा गया है। मैं सोच रही हूँ—क्या कहूँ? अभी लंबा समय है। वे कहते हैं ये “मदर्स डे”, “फादर्स डे”, “वूमेन डे” सब पश्चिम की देन हैं। हम अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं। मैं तो अपना जन्मदिन भी भूल जाती हूँ अक़्सर और अपने आसपास वालों का भी। एक डायरी बनाकर लिखने की भी कोशिश की पर फिर डायरी ही कहीं रखकर भूल गयी! पर महिला दिवस तो मुझे याद रखना ही चाहिए, आख़िर मैं एक महिला जो हूँ और महिला महाविद्यालय में रहकर महिला दिवस भूल जाने से बड़ा अपराध भला कोई हो सकता है? 

भई, इतनी सशक्त महिलाओं के बीच महिलाओं की सशक्तता का दिन भूल जाना कोई अपराध से कम थोड़े ही है। मुझे लगातार उनके बीच रहते हुए अपनी कमज़ोरी का एहसास हुआ है। पर मैं क्या करूँ? कुछ भी होल्ड नहीं कर पा रही हूँ शायद। सोच रही हूँ, अपनी कमज़ोरियों पर ही बोलूँगी इस बार शायद। कभी कभी कमज़ोरियों पर बोल पाना ही उनसे निकल आने का सही रास्ता होता है शायद। पर दिक़्क़त है “वीकनैस डे” कोई नहीं मनाना चाहता। अगर चाहता तो शायद जापान में इतने लोग आत्महत्याओं से न मर रहे होते और उसके लिए अलग से अकेलापन और मानसिक पीड़ा विभाग न बनाना पड़ता। 

मैं शायद यही सब बोलूँगी उस दिन और हो सकता है कुछ न बोलूँ। कुछ भी तो निश्चित नहीं है। मेरे आसपास कई “शायद” हैं और मैं अब कुछ तो पक्का चाहती हूँ। मगर क्या? कहीं वही तो नहीं जो उसके पास है शायद। “कान्फ़िडेन्स” क्या? या फिर “पॉवर”? ताकि मैं वीक न लगूँ! और फिर कम से कम मैं भी सेल्फ़ी तो पोस्ट कर सकूँ पूरे आत्मविश्वास के साथ महिला दिवस मनाते हुए। और पूरी तरह से हैप्पी लगूँ, इतना कि ये सारी सशक्त महिलाएँ मुझे ढेर सारे लाईक्स दे डालें और मैं उसे अपने स्टेटस अपडेट पर होल्ड कर सकूँ कम से कम अगले कुछ दिनों तक शायद। 

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टिप्पणियाँ

Manju Bala 2024/03/07 06:07 AM

ATI sundar lekh. Ek aurat ke manobhav ka Uchit avam sateek varnan. Keep writing dear.

आँचल खटाना 2024/03/04 06:49 AM

हम सभी अपने 'शायद' में उलझे हैं , और ये 'शायद' कम से कम हमें सोचने पर मजबूर तो करता ही है और बहुत हद तक हमें उथला होने से बचा लेता है।

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