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हँसी-मज़ाक से भरपूर फ़िल्में बनाने में माहिर-ऋषिकेश मुखर्जी 

फ़िल्म ’गोलमाल’ के परिप्रेक्ष्य में

 

किसी भी विधा में जब प्रचुर मात्रा में सृजन होता है तब उसके सृजनात्मक पक्ष के साथ-साथ आलोचनात्मक पक्ष पर भी दृष्टि जाती है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। समालोचना के पाश में सृजन व्यवस्थित और नियमबद्ध रहता है। सृजन समालोचना के साथ एक तीसरा पक्ष भी है, जिसकी महत्ता इन दोनों से कमतर नहीं आँकी जा सकती है। वह पक्ष है ऐतिहासिक पक्ष। किसी भी भाषा के साहित्य को सृजन-समालोचना-इतिहास, ये तीनों मिलकर एक ऐसा दर्पण प्रदान करते हैं जिसमें साहित्य अपने वर्तमान सृजन को देखता हुआ, अतीत के इतिहास से साम्य स्थापित करता हुआ समालोचना की सहायता से उज्जवल भविष्य की राहें निर्धारित करता है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य समालोचना और इतिहास ग्रंथ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। हिन्दी भाषा के लिए भी उपर्युक्त कथन पूर्णतया सत्य है। 

इसी क्रम में आता है हिन्दी सिनेमा। अगर हिन्दी सिनेमा पर एक गहन दृष्टि डाला जाय तो इस दिशा में हमें अनेक सार्थक प्रयास दिखाई देते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में कॉमेडी रस हमेशा से ही अपने स्वाद से दर्शकों को मंत्र मुग्ध करता आ रहा है। कॉमेडी ने हिन्दी सिनेमा में चले आ रहे चालू मसाला और ड्रामे के अलावा भी दर्शकों को हँसी मज़ाक का मौक़ा दिया है। अभी के फ़िल्मों में कॉमेडी के स्तर को देखकर हँसी का माहौल कम और अश्लीलता अधिक दिखाई देती है। परन्तु फ़िल्मों के इस दौर में एक समय ऐसा भी था जब कॉमेडी फ़िल्मों ने दर्शकों को एक स्वस्थ वातावरण के साथ-साथ मनोरंजन भी कराया था। ड्रामा और एक्शन फ़िल्मों के बीच कुछ कॉमेडी से भरी फ़िल्में ऐसी भी हैं जो दर्शकों को आज भी हँसाती है। 

राजकपूर, बी.आर. चोपड़ा सरीखे फ़िल्मकारों में एक नाम ऐसा भी है जिसने हँसते-मुस्कुराते हुए सामाजिक परिवेश को फ़िल्मों में उतारने में महारत हासिल की है। ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जिन्होंने हिन्दी फ़िल्मों में कॉमेडी को एक नया आयाम दिया। ऋषिदा की फ़िल्में हँसी हँसी में गहरी बातें कह जाती हैं। 30 दिसम्बर 1922 में कोलकता में जन्में ऋषिदा गणित और विज्ञान का अध्ययन करते थे। उन्हें शतरंज खेलने का बेहद शौक़ था। फ़िल्म निर्माण के संस्कार उन्हें कोलकाता के न्यू थियेटर से मिला। उनकी प्रतिभा को सही दिशा देने में विमल राय जी का बहुत बड़ा हाथ है। न्यू थियेटर में उनकी मुलाक़ात जाने माने फ़िल्म संपादक सुबोध मित्र से हुई। 

उनके आथ रहकर ऋषिकेश ने फ़िल्म संपादन का काम सीखा। इसके पश्चात उन्होंने विमल राय के साथ सहायक के रूप में काम किया। उन्होंने विमल राय की “दो बीघा ज़मीन” और “देवदास” का संपादन भी किया। बतौर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी जी ने अपने केरियर की शुरूआत 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म “मुसाफ़िर” से की। दिलीपकुमार,  सुचित्रा सेन और किशोर कुमार जैसे प्रतिष्ठित सितारों के बावजूद फ़िल्म असफल हुई। 

1959 में ऋषिकेश जी को राजकपूर की फ़िल्म “अनाड़ी” में निर्देशन का मौक़ा मिला। फ़िल्म सुपरहिट हुई और इसके साथ ही बतौर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी फ़िल्म इन्डस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हो गए। यह फ़िल्म राजकपूर के सघे हुए अभिनय और ऋषिदा के दुर्दान्त निर्देशन के कारण अपने दौर में काफ़ी लोकप्रिय हुई। इसके बाद ऋषिदा ने मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने “अनुराधा ” और “सत्यकाम ” जैसे सफल और ऑफ़बीट फ़िल्मों का निर्देशन किया। उन्होंने अपने चार दशक के फ़िल्मी जीवन में हर समय कुछ नया नया करने का प्रयास किया। 

साहित्यकार लेखन के समय कुछ मात्रा में यथार्थवादी तो कुछ मात्रा में कल्पना का आधार लेकर ऊँची-ऊँची उड़ान भरता है। वह अपनी क्षमता के अनुसार उचित मात्रा में इसका प्रयोग करता है। रचना जब जनसंचार माध्यम के लिए बनाई जाती है तब वह रचना साहित्यकार की न रहकर मीडिया की बन जाती है। समय की अवश्यकता और जनरुचि के अनुसार साहित्यिक रचनाओं का दृश्य माध्यमों में रूपांतरित किया जाता है। साहित्य कठिन हो या सरल उसे फ़िल्मों में रूपांतरित करने हेतु पहले जिस रूप में ढालना पड़ता है वह है – पटकथा। पटकथा लिखित साहित्य को चित्रों में गढ़ने की मात्रा है, और एक जटिल तकनीक प्रक्रिया है यह जितनी सशक्त होगी, फ़िल्म उतनी प्रभावशाली बनेगी। यह फ़िल्म के निर्देशक और पटकथा लेखक की परिपक्वता और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि फ़िल्म अपने मूल साहित्य का निर्वाह नये व्याकरण में कर पाई अथवा नहीं। परिपक्वता केवल निर्देशक पटकथा लेखक की हैसियत से नहीं, बल्कि मूल साहित्य को समग्रता में समझने की परिपक्वता, ताकि फ़िल्म पाठक के मन में रची-बसी मूल साहित्य की तमाम छवियों का प्रतिनिधित्व कर पाए। इन सभी विषयों पर ऋषिकेश मुखर्जी की तीक्ष्ण दृष्टि रही।  इस दृष्टिकोण के सहारे उन्होंने एक के बाद सफल फ़िल्में बनाईं। 

1959 में “अनाड़ी” के पश्चात 1960 में एक और सफल फ़िल्म प्रदर्शित हुई “अनुराधा।” बलराज सहानी और लीला नायडू अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी एक शादीशुदा युवती पर आधारित है जिसका पति उसे छोड़कर अपने आदर्श के निर्वाह के लिए गाँव चला जाता है। इस फ़िल्म को इतनी सफलता नहीं मिली पर इसे राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ ही बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी इसे सम्मानित किया गया। 1966 में प्रदर्शित “आशीर्वाद ” के माध्यम से ऋषिदा ने न सिर्फ़ जाति प्रथा और ज़मींदारी प्रथा पर गहरी चोट की बल्कि एक पिता की व्यथा को भी रुपहले परदे पर साकार कर दिखाया। इस फ़िल्म में अशोक कुमार पर फ़िल्माया गया गीत “रेलगाड़ी रेलगाड़ी . . . ” उन दिनों अत्यंत लोकप्रिय हुआ। 1969 में प्रदर्शित फ़िल्म “सत्यकाम” ऋषिदा की महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में शामिल की जाती है। धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोर की मुख्य भूमिका वाली इस फ़िल्म की कहानी एक ऐसे युवक पर आधारित है जिसने स्वतन्त्रता के बाद जैसा सपना देश के बारे में देखा था, वह पूरा नहीं हो सका। सिनेमा प्रेमियों का मानना है कि यह फ़िल्म ऋषिकेश मुखर्जी की श्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है। 

ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों के माध्यम से नायिका जया भादुड़ी को प्रारंभिक सफलता मिली। उन्हें पहला बड़ा ब्रेक उन्हीं की फ़िल्म “गुड्डी” 1971 से मिला। इस फ़िल्म में उन्होंने एक ऐसी लड़की की भूमिका निभाई थी जो फ़िल्म देखने में बहुत रुचि रखती है और अभिनेता धर्मेंद्र के प्रति आकृष्ट है। अपने इस किरदार में जया भादुड़ी ने जान डाल दी और दर्शकों में मन में बस गई। गुड्डी से जया, ऋषिकेश मुखर्जी जी की सबसे प्रिय अभिनेत्री बन गई। उसे लेकर एक के बाद एक सफल फ़िल्में बनाई ऋषिदा ने। “बावर्ची”, “अभिमान”, “चुपके चुपके” और “मिली” जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया। 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म “आनंद” ऋषिकेश मुखर्जी की सुपर हिट फ़िल्मों में गिनी जाती है। जिसमें राजेश खन्ना अपने अभिनय के द्वारा दर्शकों के प्रिय अभिनेता बन गए। फ़िल्म में राजेश खन्ना के द्वारा बोले गए संवाद को दर्शक आज भी याद करते हैं, “बाबूमोशाय, हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिसकी डोर ऊपरवाले की उँगलियों से बँधी हुई है, कौन, कब किसकी ओर खिंच जाए, ये कोई नहीं बता सकता है” —भावुकतापूर्ण संवादों ने दर्शकों को मोह लिया। इसके बाद 1973 में “अभिमान ” जिसमें अमिताभ एक अभिमानी पति की भूमिका में अपने अभिनय कला की डंका बजा जाते हैं। 1975 की फ़िल्म “चुपके चुपके” में अमिताभ और धर्मेंद्र को एक विशिष्ट रूप में प्रस्तुत करके ऋषिदा ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। एक्शन से भरपूर फ़िल्मों के अभिनेता को लेकर हास्य से भरपूर फ़िल्म का निर्माण किया। 1979 में प्रदर्शित फ़िल्म “गोलमाल” ऋषिकेश मुखर्जी जी की सिने-केरियर की सुपरहिट फ़िल्म में शुमार की जाती है। अमोल पालेकर और उत्पल दत्त अभिनीत इस फ़िल्म के ज़रिए ऋषिकेश मुखर्जी ने दर्शकों को हँसा हँसाकर लोटपोट कर दिया। 

समाज को लेकर जो समझ ऋषिदा में थी वो बहुत कम फिल्मकारों में होती है। गोलमाल में भी उन्होंने समाज के कुछ ऐसे मुद्दों पर प्रकाश डाला है जो हमारे सामान्य जीवन जीने की राह पर अनेक बाधाएँ डालते हैं। कुछ नियमों के कारण एक सीधा-सादा साधारण व्यक्ति झूठ बोलने लगता है। उसे अपने काम के लिए टेढ़ी चाल चलनी पड़ती है। “गोलमाल” में ऋषिदा जीने की एक अलग फिलॉसफी दिखा जाते है। हँसते-हँसते जीवन के सच से रूबरू करा जाते हैं। भवानीशंकर (उत्पल दत्त) मामा (डेविड) के बचपन के दोस्त हैं; “उर्मिला ट्रेडर्स” के मालिक हैं। यहीं पर पसंद नापसंद की लम्बी फ़िरहस्त है। भवानीशंकर जी को मूँछों से बेहद लगाव है। रामप्रसाद शर्मा और लक्ष्मणप्रसाद शर्मा दोनों चरित्रों को अमोल पालेकर ने निभाया है। उर्मिला के चरित्र को बिंदिया गोस्वामी ने, कमला श्रीवास्तव के चरित्र को दिना पाठक ने, शोभा खोटे ने बुआजी के चरित्र में जान डाल दी है। इनके साथ ही कथा को आगे बढ़ाने के लिए कुछ और कलाकार भी हैं। 

भवानीप्रसाद बहुत पुराने ख़्यालों के हैं और उनके कुछ उसूल हैं जिनके वे बड़े पक्के हैं। अपने काम के सिवाय किसी और काम में एकदम रुचि नहीं है। न खेलकूद, न सिनेमा, संगीत, नृत्य, नाटक किसी में भी नहीं। उन्हीं नौजवानों को पसंद करते हैं जो भारतीय पोशाकधारी होते हैं और जो सिफ़ारिश से उनके पास काम के लिए आते हैं वे भवानीशंकर को एकदम नापसंद हैं। 

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर रामप्रसाद ख़ुद को तैयार करता है। इस कोशिश में उसे अपने हाॅकी और क्रिकेट के शौक़ को छुपाना पड़ता है। मित्र देवेन से कुर्ता उधार लेना पड़ता है जो कि उसे छोटा पड़ता है। उसकी अच्छी ख़ासी प्यारी मूँछ, जो कि उसकी शान है, वही भवानीशंकर को बहुत प्रभावित करती है। इंटरव्यू का दृश्य भी बड़ा रोचक रहा जहाँ अन्य प्रतिभागी अपने को स्मार्ट दिखाने के लिए आधुनिक सज-धज के साथ और बाहरी ज्ञान के साथ अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए थे और वहाँ रामप्रसाद कुर्ता पजामा और काम के प्रति विशेष रुचि दिखाने वाली अदा के साथ भवानीशंकर का दिल जीत लेता है और कंपनी में जुड़ जाता है। वह केवल अच्छी तनख़्वाह का मालिक ही नहीं बनता, बल्कि जल्दी ही उसकी तनख़्वाह भी बढ़ा दी जाती है। 

मुसीबत तो तब शुरू होती है जब रामप्रसाद का मित्र हाॅकी की टिकट लेकर आता है और हाॅकी का शौक़ीन रामप्रसाद ऑफ़िस से माँ की बीमारी का बहाना बनाकर दोस्तों के साथ मैच देखने चला जाता जबकि उसकी माँ बचपन में ही गुज़र गई है। 

नौजवानों के खेल-कूद में विरोधी होने पर भी हॉकी मेंं रुचि रखने के कारण भवानीशंकर भी मैच देखने जाते हैं और स्टेडियम में मित्रों के साथ मैच देखता हुआ रामप्रसाद उनकी पकड़ में आ जाता है। दूसरे दिन उसे बहुत डाँट पड़ती है। कथा में तुरंत एक नया मोड़ आ जाता है। हँसी-मज़ाक और दिमाग़ी संतुलन के ख़ुराक से फ़िल्म बह जाता है। देवेन के द्वारा अभिनीत एक जुड़वां भाई का रोल रामप्रसाद को याद आ जाता है और फ़िल्म में एक बेकार, निकम्मा, मुँहफट लक्ष्मणप्रसाद का जन्म होता है, जो अपना सारा समय संगीत, फ़िल्म और खेल-कूद मेंं बीताता है। उस दिन वहाँ लक्ष्मणप्रसाद ही अपने दोस्तों के साथ हॉकी देखने गया था। अब तो और मुसीबत बढ़ जाती है। रामप्रसाद को ही लक्ष्मणप्रसाद का रोल भी करना पड़ता है। अमोल पालेकर की अद्भुत अदाकारी ने दोनों चरित्र में जान डाल दी। लक्ष्मणप्रसाद बनने के कारण उसे अपनी मूँछ गँवानी पड़ी और देवेन से एक नक़ली मूँछ उधार लेनी पड़ती है जिसे वह ऑफ़िस जाते समय गोंद से चिपका लिया करता है इसके साथ ही वह एक आदर्श बालक बन जाता है—मूँछे, कुर्ता पजामा और शुद्ध हिन्दी भाषा। परन्तु जब वो लक्ष्मणप्रसाद बनता है तब सफ़ाचट चेहरा मूँछे साफ़, व्यवहार में आवारापन, रंगीन कपड़े, बड़े-बड़े सनग्लास, बिखरे बाल और हद से अधिक बदतमीज़ी से बात करता है। और उसे मूँछमुंडा का नाम दे देते हैं। अद्भुत अदाकारी उत्पल दत्त जी की और स्वाभिमान और आत्मविश्वास से भरा अमोल पालेकर का अभिनय। “लकी” अपनी अदा और संगीत के कारण उर्मिला के मन में बस जाता है। 

समस्याएँ और अधिक बढ़ जाती हैं जब भवानीशंकर रामप्रसाद की बीमार माँ से मिलना चाहते हैं जो कि बहुत पहले ही गुज़र चुकी है। अत: रामप्रसाद को बड़ी शिद्दत से एक माँ की ज़रूरत महसूस होती है। इस काम के लिए वो फिर से देवेन की शरण मेंं जाता है जो कि माँ के रोल के लिए दीना पाठक को नियुक्त कर देता है। आनाकानी करने के बाद वह उनकी माँ के चरित्र में अभिनय करने के लिए तैयार हो जाती है। रामप्रसाद के घर जाकर उसकी बहन रत्ना से मिलकर बहुत प्रभावित होती है पूरा परिवार एक ममत्व के बँधन में बँध जाता है। समस्या तो उस समय सुलझ जाती है। भवानीशंकर माँ से मिलकर बहुत प्रभावित होते हैं और उनसे बात करके बहुत संतुष्ट होते हैं। 

रामप्रसाद के पारिवारिक बोझ को कम करने के लिए भवानीशंकर जी लक्ष्मणप्रसाद को अपनी बेटी उर्मिला को संगीत सीखने के लिए नियुक्त कर लेते हैं। पहले तो रामप्रसाद द्वंद्व में पड़ जाता पर बाद में बड़ी चतुराई से वातावरण में ख़ुद को फ़िट कर लेता है। नक़ली मूँछ से उसकी एक अलग पहचान बन जाती है। मन मोह लेने वाला गीत “आने वाला कल जाने वाला है” एक अलग ही माहौल पैदा करता है। बहुत ही प्रभावशाली तरीक़े से इसे फ़िल्माया गया है। आज भी यह गीत रोंगटे खड़े कर देता है। गीत के कोमल भाव मन को छू जाते हैं। उर्मिला लक्ष्मणप्रसाद की ओर आकृष्ट होती है और भवानीशंकर मन ही मन उर्मिला के लिए रामप्रसाद को पसंद करते हैं। 

ऐसे में एक और घटना घटती है जिससे कि पूरे परिवार की पोल खुलते-खुलते रह जाती है। मिसेज़ श्रीवास्तव से भवानीशंकर की मुलाक़ात एक पार्टी में हो जाती है। सजी-धजी फ़ैशन परस्त दीना पाठक को देखकर उत्पल दत्त के हाव-भाव देखने लायक़ होता है। वो सच्चाई जानने के लिए दिना पाठक के पीछे पड़ जातें हैं। मिसेज श्रीवास्तव भी समझ जातीं हैं कि इनसे अब उनका बचना मुश्किल है। उनके साथ-साथ रामप्रसाद का पूरा परिवार भी लपेट में आ जाएगा। अपने को कमला श्रीवास्तव बताती है। और श्रीमति शर्मा उनकी जुड़वां बहनवाली बात को यहाँ फ़िट कर देती हैं। उनका एक दूसरे से भागना, छुपते-छुपाते पार्टी में लोगों के बीच में से स्वयं को बचाते हुए आगे बढ़नेवाला जो अभिनय है और उत्पल दत्त जी झूले पर बैठने की कोशिश वाला दृश्य, आज भी चेहरे पर हँसी की झंडी लगा देता है। अद्भुत अभिनय। लाज़वाब निर्देशन। 

पर भवानीशंकर इस बात से निश्चिंत नहींं होते हैं और इस तथ्य की पुष्टि के लिए तुरंत रामप्रसाद के घर की ओर रवाना हो जाते हैं। उनके हाव-भाव से दिना पाठक भी भवानीशंकर की मंशा को समझ जाती है और वो टैक्सी पकड़कर रामप्रसाद के घर की ओर बढ़ जाती है। उनका खिड़की को टापकर रसोई से होकर घर के अंदर पहुँचने की नायाब अभिनय ने अचम्भित कर दिया। इस अभिनय में उन्होंने अपने उम्र को भी मात दे दी। और जब “लक्ष्मण” पुकारते हुए वो बैठकखाने में पहुँचती हैं तो सबके चेहरे देखने लायक़ हो जाते हैं। किसी ने भी उनके वहाँ उस समय होने की कल्पना भी नहींं की थी। राही मासूम रज़ा के संवादों ने कमाल का काम किया है। लक्ष्मणप्रसाद के चोटदार संवाद “आपके और मेरे बीच बहुत बड़ी खाई है। आप लोग भविष्य की ओर पीठ करके अतीत की ओर देखते रहते हैं जबकि सूरज आपके पीछे से निकल रहा है। आप पुराने ज़माने के लोग हमारी भावनाओं को समझ ही नहींं सकते।” एक अलग ही माहौल पैदा करता है। इन संलापों के माध्यम से ऋषिदा बहुत सी बातें कह देते हैं। 

इस घटना से एक नए परिवार का निर्माण होता है। जहाँ एक अनाथ भाई बहन को ममतामयी माँ मिल जाती है और एक अकेली माँ को सुशील, कर्मठ, संस्कारी, गुणी बेटा और बेटी मिल जाते हैं—रामप्रसाद और रत्ना। इनके आपसी प्रेमभाव को दिखाकर ऋषिदा ने यह बताने का प्रयास किया है कि ख़ून के रिश्ते न होने पर भी सरल सहज मानसिकता और सहृदय लोग आपस मेंं एक स्वस्थ परिवार की तरह रह सकते हैं जो ज़रूरत पड़ने पर एक दूसरे की सहायता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। फ़िल्म मेंं कहीं भी कटुता का नाम नहींं है और न द्वन्द्व है। गोलमाल अगर कहीं है तो वह है आपसी समझ-बूझ में है। पुराने घिसे-पिटे विचारों से मुक्त होने की जद्दोजेहद में है। भवानीशंकर जी की मूँछ संबंधी जो अवधारणा है अधिकांश लोग आज भी उस विचार के साथ जी रहे हैं कि पुरुष के पुरुषत्व की और अहम की पहली निशानी उनकी मूँछें है। इसे कुछ हद तक सही माना जा सकता है पर ये पौरुषत्व के मानदंड नहींं हो सकते। विभिन्न घटनाक्रमों के माध्यम से और अनेक अवधारणाओं ने इनका परिणाम दिखाया है। क्योंकि नक़ली मूँछ तो अपने स्थान पर डटकर रहती नहींं। 

भवानीशंकर जी की बहन उर्मिला यह ख़बर लाती है कि उर्मिला के लक्षण अच्छे नहींं है जल्दी से एक लड़का देखकर उसकी शादी तय कर दीजिए। नींद में “लक्ष्मण लक्ष्मण’ बड़बड़ाती रहती है। बहन की बातों से भवानीशंकर परेशान हो जाते हैं। और उर्मिला को बुलाकर साफ़-साफ़ बता देते हैं उसकी शादी उन्होंने रामप्रसाद से करने की सोची है। उर्मिला के मना करने पर, बिफरकर कह उठते हैं, “तुम्हारी शादी उससे नहीं होगी जिससे तुम प्रेम करती हो, तुम्हारी शादी उसी से होगी जिससे मैं प्रेम करता हूँ।” दोनों की ठन जाती है। इस आपाधापी में उर्मिला घर छोड़कर देती है और रात को ही लक्ष्मणप्रसाद से मिलने उसके घर चल देती है। माहौल गंभीर हो जाता है। उसे रात को अपने घर अकेली सूटकेस के साथ देखकर रामप्रसाद घबरा जाता है। दोनोंं में विवाह को लेकर आपसी तर्क-वितर्क चलता है। उर्मिला एक धमकी देकर अपनी सहेली पुष्पा के घर चली जाती है कि कल अगर उसने विवाह नहींं किया तो वह आत्महत्या कर लेगी। इन परिस्थितयों में अमोल पालेकर जी की अदाकारी देखने लायक़ होती है। हाव-भाव और संवादों को बोलने की कला बरबस हँसी का माहौल बना देती है और उसके बेचारे-बेचारे भोले-भाले चेहरे को देखकर दर्शक हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं। भवानीशंकर और रामप्रसाद के आपसी संलाप के क्या कहने! लगता अभी रामप्रसाद पकड़ा जाएगा। पुलिस के पास जाने की धमकी से रामप्रसाद डर जाता है। 

रामप्रसाद पुष्पा के घर पहुँच जाता है और उर्मिला के सामने अपनी मूँछ निकाल कर पर लक्ष्मणप्रसाद की पोल खोल देता है। मन के संशय मिट जाने पर दोनोंं का मन आह्लादित हो उठता है। ऋषिकेश मुखर्जी जी ने गोलमाल के माध्यम से मानव मन के साधारण भाव को जटिल न होने देकर हास्य के माध्यम से सुलझाने का अद्भुत प्रयास किया है। “लगता है अब जल्दी ही नई रामायण लिखी जाएगी। लक्ष्मण के हाथों राम मारा जाएगा।” बहुत दिनों तक कानों में गूँजती रहती है। मन की सफ़ाई पर बात करते करते ठूँस-ठूँस कर खाते समय रामप्रसाद की मूँछ निकल जाती है और घर में भूचाल आ जाता है। भवानीशंकर जी पुलिस बुला लेते है। रामप्रसाद के माफ़ी माँगने पर “मैं तुझे माफ़ नहीं साफ़ कर दूँगा।” एक अलग अंदाज़ से कही गई बात को सुनकर दर्शक हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं। पुलिस आने की बात सुनकर रामप्रसाद भागने की फ़िराक़ में इधर-उधर दौड़ने लगता है और हाथ मेंं बंदूक लेकर भवानीशंकर उसे छकाते रहते हैं। उसको ढूँढ़ने की कोशिश में भवानीशंकर गमले के कोने तक को भी ढूँढ़ना नहीं छोड़ते हैं। भवानीशंकर की सरलता और विषय की सहजता के साथ-साथ हास्य को अधिक महत्त्व देते हुए ऋषिकेश जी ने कुछ असाधारण मुहूर्तों को यहाँ रखा है। ध्वस्त पस्त भवानीशंकर और डर से त्रस्त रामप्रसाद एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। 

भारत में सिनेमा के जन्म के बाद प्रारंभ में धार्मिक और सामाजिक कथाओं को फ़िल्मों का विषय बनाया गया। इन फ़िल्मों में प्रकृति के आकर्षण और काल्पनिक दृश्यों को प्रधानता दी गई। एक कुछ भिन्न स्वाद से दर्शक को तृप्त करना आनंद देने की कल्पना से ऋषिदा ने गोलमाल फ़िल्म का निर्माण किया। यह बात सर्व सम्मत है कि सिनेमा द्वारा परोसी गई छवियाँ जनमानस में गहरे पैठ जमा लेती हैं। अतः भवानीशंकर के माध्यम से कही जानेवाली बातों का समाज में लोगों के जीवन में कितना महत्त्व है, इसे बड़े हास्यास्पद रूप से ऋषिकेश मुखर्जी ने प्रस्तुत किया है। बाॅलीवुड पर जो दिखता है वो बिकता है कि तर्ज़ पर विषय चुने जाते रहे हैं। यह परंपरा आज भी क़ायम है। सूचना क्रांति के विस्तार के बाद बदलते समाज की वजह से मुख्यधारा की सिनेमा में भी बदलाव नज़र आए हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ऋषिकेश मुखर्जी का गोलमाल। 

रामप्रसाद का डर और भवानीशंकर की आँखों में धूल झोंक कर भागने की कला। इसके साथ ही उर्मिला का डर और बुआजी का रामप्रसाद को छकाने वाला दृश्य देखनेवाला है। गाड़ी में रामप्रसाद का पीछा करते हुए भवानीशंकर पुलिस स्टेशन पहुँच जाते हैं। केष्टो मुखर्जी से उनकी झड़प, पुलिस ऑफ़िसर से झड़प के साथ-साथ बात फिर मूँछों पर आकर टिक जाती है। उनका चेहरा किसी कुख्यात व्यक्ति से मिलता-जुलता होने के कारण बात फिर बिगड़ जाती है। मूँछों की खींचातानी के बाद सच्चाई सामने आती है कि वे शहर के फ़ेमस इन्ड्रसलिस्ट भवानीशंकर हैं और उनका जुड़वां ही कोई कुख्यात व्यक्ति है, दोनों में फ़र्क़ सिर्फ़ मूँछों का है। थाने से उनको निर्दोष जानकर छोड़ दिया जाता है। घर लौटने पर उनके लिए एक दूसरा धक्का इंतज़ार कर रहा होता है। उर्मिला और लक्ष्मणप्रसाद का विवाह। बुआ द्वारा इस ख़बर को देने पर भवानीशंकर जी का पारा चढ़ जाता है। इतने में श्रीमति श्रीवास्तव भी आ जाती हैं मामा जी के साथ देवेन भी उपस्थित हो जाते हैं। देवेन उनको कुछ महान लोगों के नाम गिनाता है जिनके मूँछ न होने पर भी वे विख्यात हैं और दूसरी ओर छोटे से मूँछवाले हिटलर की बात करता है। 
“शराफत भी कोई चिड़िया है जो मूँछों में घोसला बनाती है।” मूँछ पुराण समाप्त होता है। डेविड पूरी बातों का ख़ुलासा करते हैं। भवानीशंकर जी को समझाते हैं कि उनके मूँछ के प्रति आकर्षण ने सभी से झूठ बुलवाया, जुड़वां बनने को मजबूर हुए। 

अंत भला तो सब भला वाली बात चरितार्थ हुई। बात तब और अधिक रोचक बन जाती है जब विवाहित जोड़ों के साथ फोटो खिंचवाते समय भवानीशंकर की मूँछ नदारद होती हैं और सभी के साथ पंक्ति में बैठे मुस्कुराते हुए दिखाई देते हैं। सिनेमा हाल से निकलते हर दर्शक के चेहरे पर मुस्कान दिखाई देती है। मन फुरफुराता हुआ। 

“गोलमाल है भई सब गोलमाल है” लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। संगीत भी ऐसा कि हर कोई गुनगुनाए बिना न रह सके। फ़िल्म की शुरूआत ही इस गीत से होती है। इस गीत को फ़िल्म की ख़तरे की घंटी भी कह सकते हैं। कोई भी अनहोनी घटना का संकेत, खेल के मैदान में भवानीशंकर जी का रामप्रसाद को देख लेना, कहीं भी कभी भी भवानीशंकर का आगमन, श्रीमती श्रीवास्तव का ख़तरे को सूँघ लेना, किसी भी पात्र के दिमाग़ में अपने को बचाने का ख़्याल आना जैसे स्थलों पर “गोलमाल है भई सब गोलमाल है” गीत बजता है और एक अनहोनी मज़ाकिया माहौल के लिए दर्शक तैयार हो जाता है। शैलेश दे की कहानी पर संवाद राही मासूम रज़ा जी का है। कहानी लाजवाब है। नित प्रतिदिन के जीवन से चुनी हुई घटनाएँ। अपूर्व संवाद है फ़िल्म का। राही जी के संवादों ने फ़िल्म में जान डाल दी है। ये संवाद ही हैं जो कथा को वज़नदार बनाते हैं और ये दिनों तक याद रहते हैं। संगीत आर डी बर्मन जी का है। फ़िल्म के संगीत एक अद्भुत दुनिया में ले जाते हैं। किशोर कुमार जी द्वारा गाया गया “आनेवाला पल जाने वाला है, हो सके इसमें ज़िन्दगी बिता दो, पल जो ये जाने वाला है।” मन में आज भी बसा हुआ है और होंठ बरबस इस गीत को गुनगुना उठते हैं।

फ़िल्म गोलमाल को विभिन्न वर्गों के लिए अनेक अवार्ड मिले हैं। जिनमें हैं:

  • फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड फ़ॉर बेस्ट एक्टर – अमोल पालेकर 

  • फ़िल्म फ़ेयर बेस्ट कॉमेडियन अवार्ड – उत्पल दत्त 

  • फ़िल्म फ़ेयर बेस्ट लिरिकिस्ट अवार्ड – गुलज़ार “आने वाला पल” गीत के लिए

  • फ़िल्म फ़ेयर नॉमिनेशन फ़ॉर बेस्ट डायरेक्टर – ऋषिकेश मुखर्जी

  • फ़िल्म फेयर नॉमिनेशन फ़ॉर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर – उत्पल दत्त।

समाज उपयोगी फ़िल्म प्रदर्शित करने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी जी देश-विदेश में सम्मानित हुए। उनको “दादा साहेब फाल्के” अवार्ड से 1999 में सम्मानित किया गया और उनको 2001 में “पद्मविभूषण” सम्मान से सम्मानित किया गया। ऋषिदा एक ऐसे निर्देशक थे जो नए कलाकारों को भरपूर मौक़ा देते थे। उनका मानना था कि जब कोई कलाकार एकदम राॅ होता है उससे आप मन मुताबिक़ काम करवा सकते हैं। उनके साथ के लोग वो वक़्त भी याद करते हैं जब उनको लकवा मार गया था और कई दिनों तक वे व्हील चेयर पर रहे। उस समय उनकी दो फ़िल्में बन रही थी। असली-नक़ली और अनुपमा। ऋषिदा दोनों फ़िल्मों का निर्देशन देने व्हील चेयर पर जाते थे। उनका मानना था कि फ़िल्म अगर समय पर न बने तो इंडस्ट्री का बहुत नुक़्सान हो जाता है। इसलिए दोनों फ़िल्में उन्होंने समय पर बनाई और दोनों हिट हुई। अपने कर्म के प्रति निष्ठा और दक्षता के लिए ऋषिदा आजीवन याद किए जाएँगे। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक न केवल अपने समय के गवाह है अपितु एक सहज सरल इन्सान के रूप में भी श्रेष्ठ उदाहरण है। 

Gol Maal

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टिप्पणियाँ

P N Mukharji 2022/05/15 09:58 AM

excellent review of a classic movie by a great director.

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