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प्रेमचंद की कहानियों में ध्वनित युग

 

प्रेमचंद एक ऐसे रचनाकार हैं जिसके भीतर अपने पूरे युग की सचेतन आत्मा समाई हुई है। अपने युग के मनुष्यों का कठिन संघर्ष, युग की प्रवृत्तियाँ, मजबूर मानव समूह की आशाएँ, निराशाएँ, दुराशाएँ, प्रेम, छल, कपट, लांछन, मान अपमान, विश्वास और अविश्वास जहाँ सर्वाधिक विश्वसनीय और खरे स्वरूप में प्रकट होते हैं, उस विराट फलक का नाम प्रेमचंद है। 

एक विशेष अर्थ में प्रेमचंद की कहानियाँ काल्पनिक नहीं है। वह शोषकों के द्वारा अपने समय की रौंदी हुई छाती से उठती हुई धड़कनों और चीत्कारों की प्रतिध्वनियाँ हैं। प्रेमचंद की दृष्टि और उनका अपना अनुभव इतना सार्वजनिक और व्यापक और खरा है कि उसमें एक पूरा युग अपनी आत्माभिव्यक्ति का यथार्थ पा लेता है। 

प्रेमचंद की कहानियों में जो युग ध्वनित है वह हमारे देश के स्वाधिनता के संग्राम के दिनों का एक अति अशांत संघर्षों का युग भी है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह सामंतवादी समाज के सड़े-गले खंडहरों में पूँजीवादी बारूद के बिछने का दौर भी है। पुरानी सामंतवादी व्यवस्था टूट की कगार पर और भी ख़ूँख़ार हो उठी थी। विदेशी सत्ता की ही एक मात्र ग़ुलामी नहीं थी। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दासता के बावजूद धार्मिक, सांप्रदायिक ऐतिहासिक दासताओं की भी एक लम्बी शृंखला थी। 

प्रेमचंद की दृष्टि में समाज व्यवस्था का यह कुरूप सत्य छिपा हुआ नहीं था। 

इसलिए वे कबीर की तरह भाषा शिल्पी बनने के बजाय सही अर्थों में मानव आत्मा के शिल्पी बनने में विश्वास रखते हैं। यही कारण है कि वह सीधे-सीधे पीड़ित, दलित और छलित समाज की ज़िन्दा भाषा को ही अपने साहित्य में प्रतिष्ठित करते हैं। 

पौष (पूस) माह ऋतुओं में फ़सल चक्र के पोषण का काल है। इस समय ठिठुरा देनेवाली सर्दी पड़ती है। इस सर्दी में एक ग़रीब किसान की कहानी आकार लेती है जिसमें प्रकृति और महाजन दो रहस्यमय खल पात्रों के बीच हतभाग्य किसान के उजड़ जाने की करुण कथा है। प्रेमचंद की दृष्टि मनुष्य के इस हतभाग्य नियति का गहराई से पड़ताल करते हुए उन कारणों को तलाश करती है जिसके कारण खेती को अपना प्राण समझने वाला किसान, विवश होकर किसान के बदले मज़दूर बन जाना ही उचित समझता है। ‘पूस की रात‘में नियति के इसी विचलन को चित्रित किया गया है। 

सहसा याद आता है महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व का प्रसिद्ध मिथक। स्वर्ग की राह में धर्मराज के सभी भाइयों तथा द्रौपदी का हिमालय की बर्फ़ में ठिठुर कर गल जाना और केवल अपने वफ़ादार श्वान के साथ, एक भयानक अकेलेपन में, धर्मराज का स्वर्ग से पहले एक भयानक नर्क का दर्शन करना। प्रेमचंद का हल्कू एक ग़रीब किसान है। धर्मराज नहीं परन्तु वह अपनी दरिद्रता के महाभारत में पराजित होकर अपनी कृषक दुनिया के नर्क में अपने एक वफ़ादार कुत्ते ‘जबरा‘के साथ नितांत अकेला उसी तरह ठिठुर रहा है जैसे पाण्डव ठिठुरकर हिमालय की वर्फ में गल जाने की नियति को स्वीकार करते हैं। हल्कू के पास मात्र तीन रुपये की जमा पूँजी थी, जिससे वह एक कंबल ख़रीदना चाहता है ताकि उस कंबल के सहारे वह पूस की रात में जंगली जानवरों और चोरों से अपने खेत की रक्षा कर सके। इन तीन रुपये की पूँजी को जब महाजन झपट कर छीन लेता है तो हल्कू को लगता है कि किसी ने उसका कलेजा निकाल लिया। रुपये के छीन जाने पर झल्लाकर उसकी पत्नी कहती है, “तुम छोड़ दो अबके से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती? मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।” 

हल्कू की पत्नी के स्वर में हमें उस विवशता का स्वरूप स्पष्ट नज़र आता है जिससे खेती के प्रति उनका मोहभंग होना शुरू हुआ था। पूस की रात उन्हीं भारतीय किसानों की इस दुर्दशा की पूर्व पीठिका है। जिसका आरंभिक चरण, कृषि जीवन से हताश होने की परिस्थितियों का सजीव चित्रण है। शोषण की जो गहरी अंतर्धारा समाज में व्याप्त है उसकी परत दर परत खोलती हुई इस कहानी में प्रेमचंद एक गहरे समाजिक मनोविज्ञान के ज्ञान का भी परिचय देते हैं। 

‘जबरा‘के प्रति हल्कू का पशुप्रेम सहज और स्वाभाविक रूप से उसके चरित्र का वह उदात्त रूप सामने लाता है जो उसकी मनुष्यता की उच्च अवस्था है। परन्तु इस भोले मनुष्य पर नियति रहम नहीं खाती। वन्य पशु उस रात उसका खेत उजाड़ देते हैं। हल्कू उस विनाश को मूक दर्शक बन सहता रहता है। उस रात में उसका खेती और उसकी जी तोड़ मेहनत से मोहभंग हुआ। सुबह सारा खेत रौंदा हुआ मिलने पर पत्नी मुन्नी के चेहरे पर उदासी छा जाती है, “अब मजूरी करके मालगुजारी भरना पड़ेगा।” पर हल्कू प्रसन्न था। यहाँँ चिंता उतनी पेट भरने की नहीं है जितनी मालगुजारी भरने की है। उसका भय समझने जैसा है। इस भय ने ही तो किसानों को बर्बाद किया था। 

प्रेमचंद बीमारी की असली नस पर उँगली रख देते हैं। हल्कू को चिंता नहीं कि खेत उजड़ गया। उसे तो उस क्षण यही संतोष हुआ कि–‘रात को ठंड में यहाँँ सोना तो न पड़ेगा’। ‘पूस की रात’ जिस तरह से किसान जीवन के मोहभंग को दर्शाता है ‘कफ़न’ कहानी दरिद्र जीवन की आत्मघाती प्रवृत्तियों को उजागर करता है। ‘कफ़न’ में वे एक शाक ट्रीटमेन्ट का सहारा लेते हैं। सीधे हमें एक भयानक और ट्रेजिक परिणाम से रूबरू करा देते हैं। जो यथास्थितिवादी मानसिकता की भयावहता से हमें कंपित कर देता है। 

कई बार कोई लेखक किसी बिन्दु पर सैकड़ों शब्द ख़र्च करके भी वह बात अभिव्यक्त नहीं कर पाता है जो एक कुशल लेखक किसी शब्दातीत अवस्था में ले जाकर पाठक को खड़ा कर देने के साथ-साथ एक गहरे मौन में कुछ गहरे जीवन सत्यों को अनुभूत करा देता है। इस दृष्टि से कफ़न कहानी प्रेमचंद की कलात्मक अभिव्यक्ति का भी एक अद्भुत उदाहरण सिद्ध होती है। 

प्रेमचंद के समकालीन जैनेन्द्र कुमार का कथन है—उनकी क़लम सब जगह पहुँचती है, लेकिन अँधेरे से भी अँधेरे में भी वह धोखा नहीं देती है। स्पष्टता के मैदान में प्रेमचंद अजेय हैं। उनकी बात निर्णित खुली और निश्चित होती है। 

‘कफ़न’ कहानी अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के समाज की विडम्बनाओं में जी रही वंचित मनुष्यता और छले गए मनुष्य की कमज़ोरियों, उनकी निराशाओं और उनकी दुर्भाग्यशाली नियती का चित्रण करते हुए एक मरणासन्न समाज की कथा बन जाती है। इस कहानी से उठे सवाल हमारी सभ्यता के आदिम सवाल है। समय बदल जाने और आधुनिक विश्व के प्रगतिशील विकास के बावजूद, वह भीतरी अँधेरा अभी भी क़ायम है, जहाँ प्रेमचंद की क़लम रोशनी लेकर पहुँची थी। शिक्षा, प्रगति और सामाजिक न्याय से इस अँधेरे को झुठलाया नहीं जा सकता। 

‘कफ़न’ प्रेमचंद की लिखी आख़री कहानी अवश्य है, किन्तु वह हमारी आधुनिक कहानी के इतिहास की पहली ही नहीं, प्रथम श्रेणी की भी एक महत्त्वपूर्ण कहानी है। 

कहानी के आरंभ में एक बुझे हुए अलाव के सामने बाप और बेटे ख़ामोश बैठे हुए है, झोंपड़ी में बेटे की नौजवान बीबी बुधिया अपनी प्रसव पीड़ा से कराह रही है। जाड़े की रात, सन्नाटे में गुम वातावरणऔर सारा गाँव अँधेरे में डूबा हुआ है। यहाँँ ‘एक बुझा हुआ हुआ अलाव’, ख़ामोश बैठे बाप बेटे, बुधिया की मर्मांतक चीत्कारें और असहनीय दर्द के साथ सारा वातावरण सन्नाटे में गुम और सर्दी की रात में अँधेरे में डूबा हुआ गाँव—ये सात प्रतीक हैं जो उन्नीसवीं सदी के दलित जीवन की विडम्बनाओं को उद्धाटित करते हैं। ‘बुझा हुआ अलाव’ आशाओं के बुझ जाने का प्रतीक है। कर्मशीलता को खो बैठे मनुष्य की हताशा का चित्र है। प्रेमचंद इस बात को पुष्ट करने के लिए कहते हैं—“घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम। और माधो घंटा भर काम करता तो घंटा भर चिलम पीता।” यहाँ प्रेमचंद घीसू और माधो के माध्यम से मानवीय आत्मा में पैदा होनेवाले उस भीषण विकार का दर्शन कराते हैं जो अकर्मण्यता और निर्धनता के संयोग से पैदा होते है। उनके जीवन संघर्ष ने उन्हें स्वार्थी बना दिया है। कहानी के अंत में जब नशे में धुत्त घीसू और माधव कबीर का एक पद गुनगुनाते हैं—‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे, ठगनी . . .’ तो यह समाज की ठगनीति को बेनक़ाब कर देती है। 

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