अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हमें सुंदर घर बनाना तो आता है, पर उस घर में सुंदर जीवन जीना नहीं आता

 

बीसवीं सदी के महान दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति आज भुला दिया गया नाम है। 15 मई, 1895 को मद्रास और बेंगलुरु के बीच स्थित मदनापल्ली गाँव में पैदा हुए कृष्णमूर्ति के दादा संस्कृत के विद्वान थे। माता कृष्णभक्त, धर्म-परायण और मृदु स्वभाव की थीं। साढ़े दस साल की उम्र में उनकी माँ की मृत्यु हो गई थी। कृष्णमूर्ति हमेशा मलेरिया से पीड़ित रहते थे। लंबा जीवन जी सकें—ऐसी आशा नहीं थी। वह रोज़ाना स्कूल नहीं जा सकते थे। पढ़ने में कमज़ोर थे। उनकी गिनती मंदबुद्धि बच्चों में होती थी। शिक्षक उनकी पिटाई करते थे। 

बचपन से ही वह अंतर्मुखी थे। प्रकृति का बारीक़ी से निरीक्षण करते। ख़ूब दयालु थे। स्कूल में ग़रीब बच्चों को अपनी पेन, पेंसिल, स्लेट और किताबें दे देते थे। घर आए भिखारियों को टोकरी भर कर चावल दे देते। घर की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी। थिरोसाॅफिस्ट पादरी लेड बीटर ने बाल कृष्णमूर्ति को देखा तो उसमें उन्हें असाधारण शक्तियाँ नज़र आईं। उन्हें कृष्णमूर्ति जीसस क्राइस्ट और भगवान बुद्ध की कोटि का लगा। थियोसोफिल सोसाइटी के उस समय की प्रमुख ऐनी बेसंट ने कृष्णमूर्ति को दत्तक ले कर उन्हें अंग्रेज़ी और अन्य विषय पढ़ाए। उन्हें शारीरिक रूप से सक्षम बनाया। उन्हें दीक्षा के लिए तालीम दी और पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा। मैट्रिक में तीन बार फ़ेल होने के बाद कृष्णमूर्ति ने पढ़ाई छोड़ दी। 

15 साल की उम्र में कृष्णमूर्ति ने विश्वविख्यात पुस्तिका ‘श्री गुरुचरण’ लिखी। ऐनी बेसंट ने उन्हें जगद्‌गुरु बनाने के लिए 1911 में ‘पूर्व के तारक संघ’ की स्थापना की। दुनिया भर के लोगों को उसका सदस्य बनाया। परन्तु अगस्त, 1922 में उन्हें अनेक आध्यात्मिक अनुभव हुए। 

दुनिया भर में फैली थियोसोफी की संस्थाओं में एक ‘आर्डर ऑफ़ द स्टार इन द ईस्ट’ का अध्यक्ष पद जे कृष्णमूर्ति को दिया गया था। परन्तु जीवन की अंतर्ज्योति का दर्शन कर चुके जे कृष्णमर्ति ने उस पद का त्याग कर ऐसी शिक्षण संस्थाओं का निर्माण किया कि जहाँ विद्यार्थियों को संयम और सर्वांगी शिक्षा का पाठ पढ़ाया जाए। उनके प्यारे भाई नित्यानंद की 1925 में मृत्यु हो गई। अगस्त, 1929 में कृष्णमूर्ति ने जगद्‌गुरु होने से मना कर दिया। उन्होंने ‘तारक संघ’ का विसर्जन कर दिया। संस्था को मिले दान को लौटा दिया। किसी भी संस्था, संघ, गुरु विचारधारा, मंत्रजाप, विधि और संप्रदाय को ‘सत्य’ का दुश्मन माना। 

अब वह अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया स्टेट के ओहाए नामक नगर में स्थायी हो गए। दुनिया भर की यात्रा करते रहे। हर किसी को संस्था, मंडल या अनुयायियों के बिना अकेला जीवन रहने और मुक्त जीवन जीने का संदेश देते रहे। 

कहा जाता है कि उनमें चमत्कारिक अलौकिक शक्तियाँ थीं। उनके हाथ के स्पर्श से ही बीमारियाँ दूर हो जाती थीं। पर वह अपनी इस शक्ति का भाग्य से ही उपयोग करते थे। वह स्पष्ट कहते थे कि चमत्कार और अध्यात्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। 

हॉलीवुड की एक फ़िल्म कंपनी ने उन्हें एक फ़िल्म में बुद्ध का अभिनय करने के लिए उस समय पाँच हज़ार डालर का ऑफ़र किया था। जिसके लिए उन्होंने मना कर दिया था। 

कृष्णमूर्ति ख़ुद को किसी का गुरु नहीं मानते थे। ख़ुद को वह मात्र ‘मार्गदर्शक’ मानते थे। वह कहते थे, “आप को ख़ुद अपना दीप बनना है। आप ख़ुद अपने मित्र और शत्रु हैं।” वह कहते थे कि जीवन की समस्याओं का मूल मन के अंदर जमा हुआ भूतकाल का स्तर ही है। पलपल की सदैव जागृति द्वारा ही मानव सुख-शान्ति से जी सकता है। 

कृष्णमूर्ति के उस समय के मित्रों में तमाम सुप्रसिद्ध महारानियों से ले कर बौद्ध साधु भी थे। बर्नार्ड शाॅ, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और दलाई लामा भी थे। बर्नार्ड शाॅ ने कहा था, “कृष्णमूर्ति जैसा सुंदर आदमी मैं ने देखा नहीं है।”

खलिल जिब्रान ने कहा था, “कृष्णमूर्ति ने मेरे कमरे में प्रवेश किया तो मैंने मन ही मन अनुभव किया कि साक्षात्‌ प्रेम के अवतार पधारे हैं।”

आल्डस हक्सली ने कहा था, “कृष्णमूर्ति को सुनते हुए मुझ लग रहा था, मैं बुद्ध को सुन रहा हूँ।”

जे कृष्णमूर्ति के ऐसे तमाम विधान हैं, जो याद करने लायक़ हैं। वह कहते थे, “25 लाख वर्ष पूर्व हम जंगली थे। आज भी सत्ता, प्रतिष्ठा की चाहत, दूसरे की हत्या, ईर्ष्या आदि स्वरूप में हम जंगली ही हैं। मेरे लिए यह बहुत बड़ी खोज है। मैं नहीं मानता कि मानव जाति में आमूल परिवर्तन हो।”

वह कहते थे, “लाखों वर्षों से हम जैसे थे, वैसे ही हैं। लोभी, ईर्ष्यालु, आक्रामक, अनदेखा, चिंतातुर और हताश . . . हम धिक्कार, भय और नम्रता का विचित्र मिश्रण हैं। हम हिंसा और शान्ति दोनों हैं। हमने बैलगाड़ी से लेकर विमान तक की प्रगति की है, परन्तु मानसिक रूप से ज़रा भी नहीं बदले। हमें सुंदर घर तो बनाना आता है, परन्तु उस घर में सुंदर जीवन जीना नहीं आता। दुनिया के लोग भले शान्ति, प्रेम, अहिंसा, दया, भाईचारे की बातें करते हों, पर इस जगत में सब उल्टा ही चल रहा है। बेबिलोन में ख़ुदाई के दौरान वर्षों पूर्व का पत्थर का एक अवशेष मिला था। जिस पर लिखा था, ‘यह अंतिम युद्ध होगा’, परन्तु उसके बाद पाँच हज़ार युद्ध हुए और अभी भी चल रहे हैं। हर नए युद्ध में पहले के युद्ध की अपेक्षा अधिक से अधिक सम्पत्ति और मनुष्यों को क्रूरतापूर्ण ख़त्म किया जा रहा है।” उनके कहने का तात्पर्य यह था कि यह जगत जंगल जैसा है, उजड्ड रण जैसा भी है, अंधकारमय भी है। 

वह कहते थे, “मात्र पुस्तक की पढ़ाई भरोसेमंद नहीं होती। भरोसा अंतर्मन से आना चाहिए। आप अपना महत्त्व नहीं बढ़ाएँगे, धन और कीर्ति का ढेर नहीं जमा करेंगे, जीवन को स्वर्ण बनाने के बजाय कबाड़ की तरह जीवन को कभी नहीं बनाएँगे। आप को जीवन की समग्रता समझनी होगी। उसके एक छोटे हिस्से के लिए नहीं। इसके लिए आप को पढ़ना चाहिए, आप को आकाश में देखना चाहिए, आप को गाना चाहिए, आप को नृत्य करना चाहिए, कविताएँ लिखनी चाहिएँ और दुख भी सहन करना चाहिए, जिससे जीवन को समझा जा सके।”

वह कहते थे, “बड़ी से बड़ी कला यानी जीवन जीने की कला। जीवन यानी संघर्ष, अशान्ति और दुख—ऐसी वाहियात मान्यताएँ जीवनघर को बुझा नहीं सकतीं। जीवन कितना सुंदर, अद्भुत और जीने लायक़ है, इसका हमें भान नहीं है। पूर्वजन्म में प्रभु ने पाप की इस जीवन में शिक्षा दी ऐसी मान्यता जलते जीवनघर को बुझने नहीं देती। जीवन जीने की कला क्या है, यह जानने का हमारे पास समय ही नहीं है। वैज्ञानिक बनने के लिए हम वर्षों-वर्ष खपा देते हैं, आश्रमों में जा कर बाक़ी का जीवन उसमें समर्पित कर देते हैं और जीवन निर्वाह के लिए कमाई करने में पूरा जीवन ख़र्च कर डालते हैं, परन्तु जीवन जीने की कला क्या है, यह जानने के लिए हम जीवन का एक दिन भी नहीं ख़र्च करते। इसलिए जीवन जीने की कला अवश्य सीखनी चाहिए।” 

ऐसे क्रांतिकारी दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति का 17 फरवरी, 1986 को अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया स्टेट के ओहाए नगर में देहावसान हो गया था। 

उनके अग्निदाह के समय पहले से व्यक्त की गई उनकी इच्छा के अनुसार मात्र सात व्यक्ति ही उपस्थित थे। सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्राध्यापक बबाभाई पटेल ने जे कृष्णमूर्ति के बारे में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। यहाँ दी गई जानकारी उनके और गुर्जर ग्रंथ रत्न कार्यालय के सौजन्य से दी गई है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

लघुकथा

कविता

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

कहानी

सिनेमा चर्चा

साहित्यिक आलेख

ललित कला

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

किशोर साहित्य कहानी

सिनेमा और साहित्य

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं