स्वतंत्रता यानी ज़िम्मेदारी स्वीकार करना
आलेख | चिन्तन वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Jan 2025 (अंक: 268, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
स्वतंत्रता निरपेक्ष रूप से अनिवार्य है—शुरू में, मध्य में और अंत में—जे कृष्णमूर्ति
स्वतंत्रता यानी पसंद और निर्णय की स्वतंत्रता, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें आने वाली ज़िम्मेदारियों और परिणामों से भी मुक्ति। अद्भुत चेतना और प्रतिभा रखने वाले ओशो का एक असामान्य प्रसंग है:
एक बार किसी शिष्य ने आ कर उनसे प्रश्न पूछा, “हम कितना स्वतंत्र हैं?”
ओशो मौन रहे। कुछ दिनों बाद ओशो का वह शिष्य उनसे फिर मिला तो ओशो ने उससे कहा, “तुम अपना एक पैर उठाओ।”
उसने अपना दाहिना पैर उठाया। तब ओशो ने कहा, “अब तुम अपना बायाँ पैर उठा सकते हो?”
शिष्य ने कहा, “नहीं।”
अर्थात् हमारे पास पहला विकल्प है। पर बाद में उसके परिणामों और ज़िम्मेदारियों के सामने हम विवश और बाधित हैं। कोई व्यक्ति एक बार में बीस बोतल बीयर पी ले और बाद उल्टी करने लगे तो वह लाचार है, स्वतंत्र नहीं। चौराहे के पास रुक कर व्यक्ति चार में से एक रास्ता पसंद कर सकता है, पर बाद में अन्य तीन मार्गों का विकल्प नहीं रह जाता। नोबेल प्राइज़ विजेता और अस्तित्व वादी विचारक सार्त्र कहते हैं, “टु यूज़ नोट टु यूज़।” यह भी एक रीति है। अर्थात् अविकल्प रहना एक विकल्प या न पसंद करने की पसंदगी। तो उसी समय का दूसरा नोबल प्राइज़ आल्बेर कामु के लिए—स्वतंत्र यानी बेहतर बनने का मौक़ा। स्वाधीन व्यक्ति यानी विश्व के सामने निरंतर विद्रोह करने वाला व्यक्ति नहीं। देखिए कोई दिव्यांग चल नहीं सकता, पर चल सकने की उसकी संभावनाएँ असीम और अखंड हैं। उसकी दिव्यांगता को स्वीकार करना भी उसकी स्वतंत्रता ही है। अपनी अनंत संभावनाओं की तरफ़ खुले रहना, यह भी हमारी स्वाधीनता है।
प्रतीक्षा या प्रार्थना करना, विश्वास या मैत्री करना, श्रद्धा या संदेह करना भी स्वतंत्रता है।
हमारी अहिंसा हमारा चयन है, लाचारी नहीं। अपनी सही स्वतंत्रता अन्य की स्वतंत्रता को समझना और स्वीकार करना भी है। स्वतंत्रता यानी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना। फल की आसक्ति के बिना ही कृत्य करने की तैयारी। स्वतंत्रता मन की अवस्था है। मन की गुणवत्ता भी है। किसी के द्वारा दी गई सच्ची स्वतंत्रा नहीं है। दुर्भाग्य से हमारी सलामती और ख़ातिरी, आधार और आश्वासन चाहिए। इससे हम जीवन जगत के काउंटर पर अपनी स्वतंत्रता जमा करा कर यह सब ख़रीदते हैं। हमारी स्वतंत्रता यानी हमारे संदेह और नकारना, पूर्वग्रह और प्रथिबद्धताएँ, अंहकार और अंधकार को स्वीकार कर के सुधरने की हमारी तैयारी। यह स्वतंत्रता यहाँ दूर, आने वाले समय में नहीं पर यहाँ, इस समय मुक्त होने में है। आख़िर स्वतंत्रता कोई ख़्याल नहीं है, पर जीवंत अनुभव है। मोशे दायन तो कहते हैं: “स्वतंत्रता यानी आत्मा की प्राणवायु।”
विचारक विक्टर फ्रेंकले ने एक बार पूछा था, “अमेरिका के पूर्वी किनारे पर ‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ है तो पश्चिमी किनारे पर ‘स्टेच्यू ऑफ़ रिस्पांसबिलिटी’ क्यों नहीं?” चलो इस स्वतंत्रता दिवस पर यह सवाल हम स्वयं से पूछते हैं।
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