बेटी नहीं, बेटी जैसी ‘सुजाता’
आलेख | सिनेमा और साहित्य वीरेन्द्र बहादुर सिंह15 Mar 2023 (अंक: 225, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
महात्मा गाँधी की मनपसंद फ़िल्म कौन सी थी, यह कोई पूछे तो फ़िल्म राम-राज्य का नाम अधिकतर लोगों को याद आ जाएगा। मूल पलिताणा (गुजरात) के ब्राह्मण परिवार के विजय भट्ट ने 1943 में बनी इस फ़िल्म का एक ख़ास शो महात्मा के लिए मुंबई के जुहू में आयोजित किया था। पर अगर आप से कोई यह पूछे कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की फ़ेवरेट फ़िल्म कौन थी तो झट से जीभ पर कोई नाम नहीं आएगा। यह सच है कि नेहरू आधुनिक मौज-शौक करने वाले आदमी थे, पर वह फ़िल्मों के शौक़ीन थे, यह बात ध्यान में नहीं आती। एक फ़िल्म इसमें अपवाद है, विमल राय की 1959 में आई फ़िल्म ‘सुजाता’।
अंतर्जातीय विवाह पर आधारित इस फ़िल्म को बेस्ट फ़िल्म, बेस्ट ऐक्ट्रेस, बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट स्टोरी का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला था और नेशनल अवार्ड भी मिला था। फ़िल्म ‘सुजाता’ को फ़्राँस में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी प्रदर्शित किया गया था। पंडित नेहरू ने यह फ़िल्म देखी थी और वह इससे इतना प्रभावित हुए थे कि 28 जून, 1959 को लिखे एक पत्र में कहा था, “फ़िल्म की फोटोग्राफी और कहानी अच्छी है। फ़िल्में उपदेश देने लगें तो बोरिंग हो जाने का ख़तरा रहता है। मैंने देखा कि ‘सुजाता’ में इस ग़लती से बचा गया है और एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विषय को अत्यंत संयमित रूप से छेड़ा गया है।”
‘दो बीघा जमीन’, ‘परिणीता’, ‘बिराज बहू’, ‘देवदास’, ‘मधुमती’, ‘परख’ और ‘बंदिनी’ जैसी क्लासिक फ़िल्में देने वाले यथार्थवादी फ़िल्म निर्माता बंगाली बाबू विमल राय के यशस्वी कैरियर में ‘सुजाता’ एक सीमाचिह्न के समान है। भारत की आज़ादी की लड़ाई चल रही थी, साथ ही उस समय समांतर सामाजिक सुधार की भी लड़ाई चल रही थी, क्योंकि उस समय सामाजिक-राजनैतिक नेताओं की समझ में आ गया था कि भारतीयों की ग़ुलामी का एक कारण उनका पिछड़ापन, निरक्षरता, अंधविश्वास और जातीय भेदभाव है। इसलिए समाज में आधुनिक विचार और जीवनशैली प्रचलित करने की जागृति का भी काम हो रहा था।
उस समय के फ़िल्म निर्माताओं ने भी अपनी तमाम फ़िल्मों में सामाजिक मुद्दों को उठाया था। ख़ासकर बंगाल में सुधारवादी आंदोलन बहुत तीव्रता से चल रहा था। इसलिए वहाँ के साहित्य-सिनेमा में इसकी झलक अधिक देखने को मिल रही थी। सुबोध घोष नाम के एक बंगाली लेखक और पत्रकार ने ‘सुजाता’ नाम का उपन्यास लिखा था, जो विमल राय की फ़िल्म का आधार बना था। (घोष की ही ‘जातु गृह’ की कहानी पर गुलज़ार ने ‘इजाजत’ बनाई थी)।
‘सुजाता’ एक अर्थ में सिर पर चढ़ाने जैसी फ़िल्म थी। ऊपर से तो यह एक प्रेम कहानी थी, पर इस लॉलीपॉप में विमल दा ने ऊँच-नीच के भेद का कड़वा घूँट पिलाया था, जो तत्कालीन समाज की एक कड़वी वास्तविकता थी और आज भी है। इसलिए यह फ़िल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसकी कहानी कुछ इस तरह है।
एक ब्राह्मण युगल उपेन चौधरी और चारु (तरुण बोस और सुलोचना लतकर) महामारी में मर चुकी अपनी कामवाली की बेटी को पालते हैं और उसका नाम रखते हैं ‘सुजाता’ (नूतन)। उपेन को सुजाता बेटी जैसी लगती है, पर चारु और उसकी बुआ (ललिता पवार) उसे अछूत मान कर उपेक्षित करती रहती हैं। फ़िल्म का पहला एक घंटा यह तय करने में चला जाता है कि सुजाता ‘बेटी जैसी है’ पर ‘बेटी’ नहीं, क्योंकि वह ‘नीची जाति’ की है। चारु का एक संवाद भी है, “वो हमारी बेटी नहीं, हमारी बेटी जैसी है।”
बुआ का बेटा अधीर (सुनील दत्त) सुजाता से प्यार करने लगता है। पर बुआ की इच्छा चारु की असली बेटी रमा (शशिकला) के साथ उसका विवाह करने की थी। एक दिन चारु और बुआ की बात सुजाता के कान में पड़ती है, तब उसे पता चलता है कि वह अछूत है। इस हक़ीक़त को स्वीकार कर के वह अधीर को दूर रखने की कोशिश करती है, परन्तु अधीर शहर में पढ़ा-लिखा आधुनिक विचारों वाला युवक है। वह इस ऊँच-नीच के रीति-रिवाज़ों को नहीं मानता।
एक दिन चारु का एक्सीडेंट हो जाता है और उसे ख़ून की ज़रूरत पड़ती है। उसे ख़ून मात्र सुजाता ही दे सकती है। सुजाता की यह उदारता देख कर चारु के दिल में परिवर्तन आता है और अब वह सुजाता को बेटी की तरह प्यार करने लगती है। अंत में बुआ भी अधीर और सुजाता के संबंधों को स्वीकार कर लेती है।
पचास के दशक में जब भारतीय समाज में छुआछूत का ख़ूब चलन था, तब विमल राय ने एक ऐसी संयमी फ़िल्म बनाई थी, जिसमें न तो कोई उपदेश देने की भावना थी, न तो लोगों को उसकाने का आक्रोश और न ही सहानुभूति पाने का रोना-धोना। उन्होंने तत्काल समाज की एक क्रूर व्यवस्था के बारे में किसी भी तरह का जजमेंट दिए बग़ैर हर पात्र की संवेदना को ध्यान में रख कर हल्का से एक मुक्का मारा था। नेहरू को उनकी यही बात पसंद आई थी।
छुआछूत के ख़िलाफ़ सब से अधिक जागृति का काम महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर ने किया था। फ़िल्म में एक दृश्य में गाँधीजी का परोक्ष संदर्भ भी है। अछूत होने के अपमान से बचने के लिए सुजाता आत्महत्या करने के लिए बरसात में निकल पड़ती है, पर वह महात्मा घाट पर पहुँच जाती है, जहाँ महात्मा की प्रतिमा के नीचे लिखा होता है, “मरें कैसे? आत्महत्या कर के? कभी नहीं, आवश्यकता हो तो ज़िन्दा रह कर मरें।” यह पढ़कर सुजाता की उत्तेजना शांत हो जाती है।
हमने कोरोनाकाल में देखा है कि संक्रामक रोग में जातिभेद किस तरह उभर कर बाहर आता है। विमल राय ने पचास साल पहले के इस भारतीय समाज की बात इस फ़िल्म में की थी, जिसमें कालरा जैसा रोग एक निश्चित वर्ग में ही फैलता है। एक दृश्य में गाँव का पंडित अमुक लोगों को बवाल करने से मना करते हुए ‘वैज्ञानिक कारण’ बताता है कि ये लोग नशीली गैस छोड़ते हैं।
फ़िल्म की विशेषता नूतन थीं। जिन्हें सुजाता की भूमिका के लिए बेस्ट ऐक्ट्रेस का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला था (विमल राय को बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड मिला था)। नूतन हिंदी सिनेमा की अभिनेत्रियों में से एक हैं, जिन्हें ‘नेचुरल ऐक्ट्रेस’ कहा जाता है। वह किसी भी भूमिका में इतनी सहज रूप से ओतप्रोत हो जाती हैं कि ऐसा लगता है कि नूतन ख़ुद ही ऐसी ही होगी। फ़िल्म सुजाता में एक काली और अछूत लड़की का उनका अभिनय देख कर लगता है कि जैसे नूतन असल में सामाजिक अन्याय का शिकार बनी होगी।
फ़िल्म का अन्य सशक्त पक्ष था उसका संगीत। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल और एस डी बर्मन के संगीत ने उसमें जादू खड़ा कर दिया था। कुल सात गाने थे और पाँच इतने सदाबहार थे कि आज भी लोकप्रिय हैं। ‘सुनो मेरे बँधूँ रे’, ‘जलते हैं जिसके लिए’, ‘काली घटा छाए मोरा जिया तरसाए’, ‘तुम जियो हज़ारों साल’ और ‘बचपन के भी क्या दिन थे’।
1995 में नूतन ने एक इंटरव्यू में कहा था, “मेरी पसंद की दो भूमिकाएँ बंदिनी और सुजाता थीं। दोनों फ़िल्मों ने स्त्रीत्व के ऐसे अनजाने पक्षों को इतने ताक़तवर रूप से बताया था, जो मेरी दूसरी फ़िल्मों में देखने को नहीं मिला।”
सुजाता
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