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जीवंत ग़ज़ल

हाथ में लिए ग़ज़ल संध्या का आमंत्रण कार्ड पढ़ कर बग़ल में रखते हुए अनुज ने पत्नी से कहा, “तुम्हें पता है, ग़ज़ल सुनी नहीं, अनुभव की जाती है।”

श्वेता ने एक फिर वह आमंत्रण कार्ड अनुज के हाथ में रखते हुए कहा, “ग़ज़ल न मुझे सुननी ही है और न अनुभव ही करनी है। मुझे तो बस तुम्हारे साथ चलना है। अब यह बताओ कि तुम चलोगे या नहीं?” 

दोनों विवाह के सात साल पहले एक-दूसरे के प्यार में पड़े थे और तब से अब तक दोनों के बीच एक भी काॅमन हाॅबी या इच्छा नहीं रही थी, पर प्यार इतना अधिक था कि शिकायतों के बीच से रास्ता निकाल कर आगे बढ़ते रहे। दोनों को एक-दूसरे को समय देने में हमेशा परिस्थितियाँ और काम के प्रति प्राथमिकता बीच में आती रही। दोनों एक-दूसरे पर ग़ुस्सा ज़रूर होते, पर प्यार की ‘वेलिडिटी’ (मान्यता) इतनी अधिक थी कि कुछ भी आड़े नहीं आता था। 

पिछले एक साल से दोनों की ड्यूटी अलग-अलग शिफ़्ट में थी यानी एक घर आता था तो दूसरा ड्यूटी पर जाता था। रोज़ाना घर के फ़्रिज पर रखी चिट्ठी में लिखे जाने वाले मैसेज के नीचे बनाया जाने वाला दिल का निशान ही उनका प्यार था। केवल रविवार को ही दोनों एक साथ होते थे। अब इस परिस्थिति में सप्ताह भर बाद मिलने वाले रविवार को किसी गायक को सुनने में बिताना अनुज को बहुत मुश्किल लग रहा था। पर प्यार की एक अलिखित शर्त होती है कि कोई भी ख़ुद की अपेक्षा सामने वाले व्यक्ति की इच्छा को समझ सकता है। 

रविवार की शाम को दोनों जन खचाखच भरे हाल में जा कर बैठ गए। दो-तीन ग़ज़ल गा कर माहौल बनाने की कोशिश कोई की गई। जिन्हें ग़ज़ल का बहुत शौक़ था, उन लोगों के लिए तो कानों का जलसा शुरू हो गया था। पर अनुज के लिए सहन न हो, इस तरह का अनुभव था। दो-चार बार मोबाइल निकाल कर फ़ेसबुक चेक करने का मन हुआ। पर वह बग़ल में बैठी पत्नी का मज़ा ख़राब नहीं करना चाहता था, इसलिए शान्ति से बैठा रहा। समझदार पत्नी को पता था कि वह उसी की वजह से यहाँ बैठा है। इसलिए धीरे से उसने उसके कान में कहा, “अगर तुम्हें मज़ा न आ रहा हो, तो बाहर जा कर घूम आओ।”

अनुज तो यही चाहता था। वह हाल से निकल कर बाहर गैलरी में आ गया। दिसंबर की ठंड में वह सिगरेट निकाल कर सुलगाने जा रहा था कि उसकी नज़र किसी पर पड़ी। उसने मोबाइल निकाल कर पत्नी को मैसेज किया, ‘ग़ज़ल देखनी हो तो बाहर आ जाओ।’

बाहर आ कर श्वेता ने सवालिया नज़रों से अनुज की ओर देखा। अनुज ने सामने फ़ुटपाथ पर इशारा किया। एक झोपड़ी के बाहर अलाव जल रहा था। अलाव के पास फटी गुदड़ी ओढ़े पति-पत्नी बैठे एक ही कटोरे में चाय पी रहे थे। 

दोनों बिना कुछ कहे इस जीवंत ग़ज़ल को देखते रहे। 

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