अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एकलव्य का अँगूठा

 

स्कूल यूनिफ़ॉर्म का मोज़ा पहनते ही पाँच में से तीन अंगुलियाँ बाहर आ गईं। विधवा माँ ने देखा तो उसकी समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए। 

पर समझदारी तो उसने बेटे को बचपन में ही पिला दी थी। इसलिए दीनू यानी दिनेश ने कहा, “माँ आज स्टेट डिबेट में सेलेक्शन हो जाने दीजिए, फिर तो तुम्हारा यह बेटा फ़र्स्ट प्राइज़ जीत ही लाएगा। और इनाम की जो रक़म मिलेगी, उसमें मेरा मोज़ा तो क्या, देखना तुम्हारे लिए साड़ी भी ले आउँगा।”

किसी बीड़ी कंपनी के थैले जैसे प्लास्टिक बैग में कापी-किताबें ले कर दीनू स्कूल जाने के लिए निकल पड़ा। दीनू छोटा था, तब की एक बात माँ को याद आ गई। एक बार वह झोपड़ी के बाहर पड़ोस के बच्चों के साथ खेल रहा था। तभी किसी बच्चे ने उससे पूछा, “दीनू ऐसा कौन-सा काम है, जो तू जीवन में एक बार ज़रूर करना चाहता है?” 

नन्हे दीनू ने कहा था, “सुना है कि पेट भर खाने के बाद डकार आती है। मैं चाहता हूँ कि जीवन में एक बार मुझे भी डकार आए।”

उसी दिन से पेट काट कर बेटे को पढ़ा-लिखा कर सक्षम बनाने के लिए माँ मेहनत कर रही थी और दीनू भी पढ़ाई से ले कर हर प्रवृत्ति में सब से आगे था। 

स्कूल पहुँच कर प्रार्थना से ले कर क्लास में भी वह शेखर मास्टर के आगे-पीछे रहने की कोशिश करता रहा। जब से उसे पता चला था कि बेस्ट स्पीकर के अवार्ड में 11हज़ार रुपए नक़द इनाम है, तब से स्टेट डिबेट कंपटीशन उसके लिए प्रतियोगिता नहीं लक्ष्य हो गया था। 

शेखर मास्टर को ही नेशनल डिबेट कंपटीशन में भेजने के लिए विद्यार्थियों का सेलेक्शन करना था। पहला नाम था दीनू का था और दूसरा नाम था उनके घर पर्सनल ट्यूशन के लिए आने वाले संजय का। शेखर मास्टर ने एक झटके में एक नाम निकाल दिया और उस समय भी एकलव्य का अँगूठा कट गया। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

चिन्तन

कविता

साहित्यिक आलेख

काम की बात

सिनेमा और साहित्य

स्वास्थ्य

कहानी

किशोर साहित्य कहानी

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सिनेमा चर्चा

ललित कला

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं