पढ़ाई
कथा साहित्य | लघुकथा वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Jan 2023 (अंक: 220, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मार्कशीट और सर्टिफ़िकेट को फैलाए उसके ढेर के बीच बैठी कुमुद पुरानी बातों को याद करते हुए विचारों में खोई थी। सारी पढ़ाई, मेहनत और ख़र्च उस दिन उसे व्यर्थ लग रहा था। पागलों की तरह पहला नंबर लाने के लिए रात-दिन मेहनत करती, पहले नंबर की बधाई के साथ मिलने वाली मार्कशीट देख कर ख़ुश हो कर भागते हुए घर आती, पूरे मोहल्ले को बताती, सभी लड्डू माँगते, गर्व होता ख़ुद पर कि उसने कुछ किया है। तब कहाँ पता था कि यह सारी मेहनत, ख़ुशी और डिग्रियाँ एक दिन अलमारी की दराज़ में बंद हो कर रह जाएँगी।
कुमुद ने शादी की तो किताबें छूट गईं। बच्चों की मार्कशीट देख कर ख़ुश होने लगी। अपना सब कुछ उसने एक पाॅलीथिन में लपेट कर अलमारी की दराज़ में बंद कर दिया था। मार्कशीट और सर्टिफ़िकेट के साथ सपने भी। जो ज़्यादातर महिलाएँ करती हैं, अगर वही सब करना था तो इस तरह मेहनत कर के पढ़ाई करने की क्या ज़रूरत थी? उसकी अनपढ़ मम्मी उससे अच्छा घर का मैनेजमेंट करती हैं। पढ़ने में बेकार समय गँवाया। अफ़सोस करते हुए सारी मार्कशीट, सर्टिफ़िकेट समेट कर अलमारी की दराज़ में रख कर कुमुद फिर सफ़ाई में लग गई।
कुमुद के दिन ऐसे ही मस्ती में बीत रहे थे। तभी अचानक एक दिन कार एक्सीडेंट में आशीष बिस्तर पर पड़ गया। अस्पताल का ख़र्च, बच्चों की फ़ीस और घर का ख़र्च चलाना मुश्किल हो गया। घर की ज़िम्मेदारी ख़ुद के कंधे पर आने से कुमुद ने हिम्मत कर के कहा, “आप कहो तो मैं नौकरी कर लूँ?”
इस विपरीत परिस्थिति में घर से परमीशन मिल गई। सालों बाद वह आश्चर्य से अपनी मार्कशीटें, सर्टिफ़िकेट देख रही थी। एक भावना के साथ मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि “वह न पढ़ी होती तो . . . ये डिग्रियाँ न होतीं तो . . .?”
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