अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पढ़ाई

मार्कशीट और सर्टिफ़िकेट को फैलाए उसके ढेर के बीच बैठी कुमुद पुरानी बातों को याद करते हुए विचारों में खोई थी। सारी पढ़ाई, मेहनत और ख़र्च उस दिन उसे व्यर्थ लग रहा था। पागलों की तरह पहला नंबर लाने के लिए रात-दिन मेहनत करती, पहले नंबर की बधाई के साथ मिलने वाली मार्कशीट देख कर ख़ुश हो कर भागते हुए घर आती, पूरे मोहल्ले को बताती, सभी लड्डू माँगते, गर्व होता ख़ुद पर कि उसने कुछ किया है। तब कहाँ पता था कि यह सारी मेहनत, ख़ुशी और डिग्रियाँ एक दिन अलमारी की दराज़ में बंद हो कर रह जाएँगी। 

कुमुद ने शादी की तो किताबें छूट गईं। बच्चों की मार्कशीट देख कर ख़ुश होने लगी। अपना सब कुछ उसने एक पाॅलीथिन में लपेट कर अलमारी की दराज़ में बंद कर दिया था। मार्कशीट और सर्टिफ़िकेट के साथ सपने भी। जो ज़्यादातर महिलाएँ करती हैं, अगर वही सब करना था तो इस तरह मेहनत कर के पढ़ाई करने की क्या ज़रूरत थी? उसकी अनपढ़ मम्मी उससे अच्छा घर का मैनेजमेंट करती हैं। पढ़ने में बेकार समय गँवाया। अफ़सोस करते हुए सारी मार्कशीट, सर्टिफ़िकेट समेट कर अलमारी की दराज़ में रख कर कुमुद फिर सफ़ाई में लग गई। 

कुमुद के दिन ऐसे ही मस्ती में बीत रहे थे। तभी अचानक एक दिन कार एक्सीडेंट में आशीष बिस्तर पर पड़ गया। अस्पताल का ख़र्च, बच्चों की फ़ीस और घर का ख़र्च चलाना मुश्किल हो गया। घर की ज़िम्मेदारी ख़ुद के कंधे पर आने से कुमुद ने हिम्मत कर के कहा, “आप कहो तो मैं नौकरी कर लूँ?” 

इस विपरीत परिस्थिति में घर से परमीशन मिल गई। सालों बाद वह आश्चर्य से अपनी मार्कशीटें, सर्टिफ़िकेट देख रही थी। एक भावना के साथ मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि “वह न पढ़ी होती तो . . . ये डिग्रियाँ न होतीं तो . . .?” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

लघुकथा

कविता

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

कहानी

सिनेमा चर्चा

साहित्यिक आलेख

ललित कला

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

किशोर साहित्य कहानी

सिनेमा और साहित्य

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं