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आनंद में

 

रामप्रसाद और देवेंद्रनाथ के मकान आमने-सामने थे। सुबह रामप्रसाद दरवाज़ा खोलते तो सामने देवेंद्रनाथ दिखाई देते। रामप्रसाद मुस्कुराते हुए पूछते, “कैसे हो देवेंद्रभाई?” 

देवेंद्रनाथ उत्साह से जवाब देते, “प्रभु की कृपा से आनंद में हूँ।”

रामप्रसाद सोचते प्रभु ने मुझे क्यों नहीं सुख दिया। वह सोच में पड़ जाते। वह डिप्रेशन में चले गए। आकाशवाणी हुई, “शंकर भगवान को प्रसन्न कर।”

रामप्रसाद ‘ॐ नम:शिवाय’ का जाप करने लगे। शंकर भगवान पसन्न हुए। रामप्रसाद ने देवेंद्रनाथ की ख़ुशी और उनका दुख उनके पास चला जाए, शंकर भगवान से यही माँगा। 

“तथास्तु!” कह कर शंकर भगवान ग़ायब हो गए। 

अगले दिन रामप्रसाद ने कुतूहल से दरवाज़ा खोला। सामने देवेंद्रनाथ को देख कर हमेशा की तरह ख़ुशी से पूछा, “कैसे हो देवेंद्रभाई?” 

देवेंद्रनाथ ने कहा, “आज तो परम आनंद में हूँ। प्रभु की कृपा बढ़ गई है।”

रामप्रसाद फिर सोच में पड़ गए, ‘तो क्या मैं देवेंद्रनाथ से अधिक सुखी था?’ 

शंकर भगवान को प्रसन्न करने के लिए फिर से तपस्या की। शंकर भगवान के दर्शन होते ही रामप्रसाद ने कहा, “माफ़ी चाहता हूँ प्रभु, मैं पहले जैसा था, वैसा ही कर दीजिए।”

प्रभु ने हँसते हुए कहा, “तथास्तु!”

अगले दिन रामप्रसाद ने दरवाज़ा खोला। देवेंद्रनाथ को देख कर पूछा, “कैसे हो देवेंद्रभाई?” 

देवेंद्रनाथ ने कहा, “आनंद में।”

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