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आज़ादी

ख़ुशहाल समाज की पहचान, देवी स्वरूपा, क्या आपने कभी नन्हीं बच्चियों को साड़ी पहने देखा है?

कुछ लोग सोचेंगे इसमें विशेष-नया क्या है?लड़कियाँ तो अक़्सर खेल-खेल में पहनती हैं।

किसी एक विशेष दिन?

यदि हाँ, तो ज़रूर आप पश्चिम बंगाल की संस्कृति से परिचित होंगे। पर मेरी चर्चा में पश्चिम बंगाल तो नहीं, लेकिन उससे पूर्णतया प्रभावित संस्कृति की झलक मिलती है धनबाद के आसपास के गाँवों में, जिससे संबंधित कुछ बातें कह रही हूँ मैं।

बंगाली सभ्यता-संस्कृति से रचा-बसा उसके आसपास का क्षेत्र अछूता कैसे रह सकता है भला?

सरस्वती पूजा के दिन नन्हीं से नन्हीं बच्चियाँ स्वेच्छा से साड़ी पहन कर झूमती-चहकती हुई सड़कों-गलियों में घूमती दिखाई देती हैं। विविध रूप-रंग की बच्चियाँ विचित्र दिव्यता का प्रभाव बिखेरती प्रतीत होती हैं।

मुझे याद है दस वर्ष की उम्र में पहली बार सरस्वती पूजा में ही यहाँ पर मैंने और क्रमशः मुझसे छोटी मेरी बहनों ने भी साड़ियाँ पहनीं थीं। मेरी बेटियाँ भी दक्षिण भारत से लौटने के बाद नियमित रूप से पारंपरिक परिधान पहन कर घूमती हैं।

बहुत मुश्किल से किसी तरह साड़ी सँभाल पाने की कोशिश में ग़ज़ब की संतुष्टि और समर्पित भाव देखकर विस्मय होता है। साथ-साथ भावी पीढ़ी की उन्मुक्त और अद्भुत झलक भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती है।

जीवित-जागृत-प्रफुल्लित बच्चियाँ, जिनमें जोश है, उमंगें हैं तितलियों सी। वर्तमान के प्रति, भविष्य के प्रति, आस्था-विश्वास के प्रति, पारिवारिक-सामाजिक जीवन की आज़ादी के प्रति और—हिंदुत्व के प्रति।

पुरखों की धरोहर और विरासत इस निर्मल-पवित्रता को यथासंभव किसी की बुरी नज़र लगने से बचाना है।

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