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मार्जार शावक

अक़्सर ये बैठे रहते हैं, 
मेरे दरवाज़े के दोनों तरफ़। 
कुशल, कभी अकुशल द्वारपाल की तरह, 
जैसे जीवंत मैंने सजाया हो 
स्वागत में मख़मली खिलौनों की तरह
एक काला दूजा सफ़ेद चितकबरा
हृष्ट-पुष्ट झबरा
दो मार्जार शावक! 
जो दरवाज़ा खोलने के साथ 
करते अभिनंदन
लाओ ना, कुछ जल्दी लाओ
सुबह-सुबह, दोपहर या साँझ ढले 
देख मुझे
शुरू हो जाता
अलमस्त इनका नर्तन
निर्भीक होकर इर्द-गिर्द घूमना, 
पैरों से सट कर चलना
सचेतन इनकी सुरक्षा के प्रति
सहज-सावधानी वश सँभलकर, 
डरा जाता मुझे
हो ना कहीं, 
कुछ घातक-अहितकर
 
यूँ कर देते मुश्किल चलना-फिरना
भाता बड़ा इनका दौड़ना-उछलना
इनकी धृष्टता-ढीठाई
बलात् अधिकार प्रयोग
आश्चर्यचकित कर जाता है 
“खाने में मीट-मछली दे दो
नहीं चाहिए कोई मिठाई“
कहकर चिढ़ाते पतिदेव
हँसते हैं 
“मांसाहारियों के बीच, 
संगत में तुम्हारी! 
यह भी हो गए शाकाहारी! 
जाने तुम झेलती हो इन्हें, 
या ये झेलते हैं तुम्हें! 
अविश्वसनीय जो दे गई ऐसी आदतें नई!”
सुनकर मेरा इनसे संवाद
दुलारना-पुचकारना-डाँटना अनायास, 
जैसे सब समझते हों
विनयशील, अनुशासित बच्चों की 
तरह अनुकरण करते हैं
साक्षी बनकर इस सम्बन्ध का 
महाशय जी भी रस लेते हैं। 
प्रारंभ में देखी थी
कैसे, कभी हर आहट पर डरते थे, 
परिचय पुराना होने पर
विविध करतब अब करते हैं। 
देखती हूँ इनका
अपनी मांँ पर गुर्राना,
खेलते-खेलते गोदी में जाकर दूध पीना, 
छुप जाना
एक-दूसरे से मची रहती है होर
देखूंँ ज़रा किसमें, कितना ज़ोर? 
मनु प्रतियोगिता करते रहते हैं। 
आपस में खेलते-लड़ते-झगड़ते हैं। 
कोंकण तटीय प्रदेश में 
लोगों का विचित्र घनिभूत
मार्जार प्रेम! 
इनके संख्या-बल पर 
नहीं मूषकों की कुशल-क्षेम! 

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टिप्पणियाँ

shaily 2022/03/31 12:12 PM

बहुत प्यारी कविता है, बिल्लियाँ प्यारी सी होती है, समझदार भी

कृपया टिप्पणी दें

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