मरणासन्न नदी
काव्य साहित्य | कविता पाण्डेय सरिता1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
(मेरे काव्य संकलन ‘रेत की नदी’ से उद्धृत)
बिक गए रेत,
मामूली दामों पर!
प्रकृति बस आती याद,
खेल औपचारिकताओं के
ज़ुबानी नामों भर!
आज छठ पूजा के अवसर पर
बड़ी गहन गंभीरता लिए
एक अनुभव जगा।
बढ़ती आबादी,
अपने घृणित-कुत्सित रूप में।
मृत मन-मानसिकता,
संकटग्रस्त मानवता की
देती पूर्व सूचना!
छिली हुई,
नंगी लेटी लगी।
रेत तो दिखी नहीं,
हाँ, थोड़े पत्थरों के बलबूते सही;
अवसादग्रस्त, मरणासन्न,
लकवाग्रस्त रूप में
धरती की बेटी लगी।
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