अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

करुणा या ख़तरा? 

अपने घर की छत से पड़ोस में घास से भरपूर बड़ी-सी चारदीवारी में बँधे, चरते हुए बछड़े को देखकर भावुक बेटी द्रवित हो जाती। 

“माँ! चारदीवारी फाँद कर, जाकर इसे खोल दूँ?” 

“क्या बदमाशी है?” माँ ने खीझते हुए पूछा। 

बेटी ने सफ़ाई, “उसे रस्सी में बँधा देखकर मुझे रोना आ रहा है।” 

माँ ने पूछा, “क्यों?” 

बेटी ने कहा, “उसका मालिक कितना क्रूर है जो उसे रस्सी में बाँध कर रखा है।” 

माँ ने समझाया, “तब तो तुम भी इस घर में हो तो यह बंधन है? ग़ुलामी है? क्रूरता तो तब होती जब मालिक बछड़े को जहाँ-तहाँ भटकने के लिए छोड़ देता। उस बछड़े के लिए समुचित देखभाल की व्यवस्था ना करे। यह शहर है। यहाँ के व्यवस्थागत ढाँचे में कुछ अंतर है। वह बँधा है, उस घेरे में तभी सुरक्षित है बच्चे! सोचो तुम जाकर उसे खोल दोगी और वह राजमार्ग पर जाकर अनियंत्रित गाड़ियों के चपेट में आ सकता है। कोई उसे मांस-व्यापार के लिए चुरा कर ले जा सकता है। वह बछड़ा उछल-कूद मचा कर किसी को घायल कर सकता है। तुम्हारी ऐसी दया और करुणा उस बछड़े के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकती है। जो ग़लती ना की जाए तभी भलाई होगी।” 

बेटी बोली, “ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।” 

माँ मुस्कुराई, “चलो अब तो समझ गई ना?”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

व्यक्ति चित्र

कविता

लघुकथा

कहानी

बच्चों के मुख से

स्मृति लेख

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

सांस्कृतिक आलेख

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन