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बातों को बातों में

बातों को बातों से, 
बातों को बातों के लिए
रहने दो। 
बातें! जो बड़ी सहज सामान्य; 
इनका जो भी तथ्य-प्रमाण; 
क्या आधार . . .? 
जानते हो तुम भी, 
मैं भी! 
तो बस इन सीमाओं में ही
कहो, कहने दो . . .। 
मिश्री की डली
तुम भी नहीं; 
मैं भी नहीं। 
बातें! जो बुरी या भली? 
तुमने जो कही; 
मैंने वो सुनी। 
पर, मैं जो कहूँ। 
फिर इतना क्यों
शोर मचाते हो? 
तूफ़ान क्यों उठाते हो? 
सुनने की आदत
जो नहीं, 
फिर तुमने क्यों, 
कैसे कही? 
बातें! जो बातें ही रहीं। 
फिर इतना यूँ ताव क्यों? 
दिल पर लगा ये घाव क्यों? 
ज़मीन पर नहीं, 
तेरे ये पाँव क्यों? 
डगमगाने लगी ये रिश्ते की नाव क्यों? 
उत्तर-प्रत्युत्तर में, 
सवाल-जवाब में, 
अहं-भावनाओं के प्रवाह में; 
बहने का अधिकार
या कमज़ोरी? 
तुममें भी है; 
मुझमें भी है। 
अच्छी तरह ख़ुद को
यही बात समझने दो . . .। 
इनमें जो बड़ी कशिश है। 
दिल को छू सकती है। 
मरहम लगा सकती है। 
इनमें बड़ी तपिश है; 
तन-मन-जीवन को जला सकती है। 
पाला बदल; क्या से क्या
गुल खिला सकती है? 
मानव को दानव! 
दानव को मानव
बना सकती है। 
अँधेरे में प्रकाश रूपी
ज्ञान-दीप जलने दो . . .। 
बातों को, बातों से, 
बातों को बातों के लिए रहने दो। 

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शैली 2022/04/12 03:23 PM

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