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नक़ली बुद्धि

मानवीय शारीरिक-मानसिक इतिहास में शामिल है कि जिस चीज़ का इस्तेमाल कम से कम होगा, समय के साथ वह कमज़ोर हो कर समाप्त होने लगेगा। कुछ ऐसा ही मन और मस्तिष्क के साथ होने की सम्भावना से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। 

एक समय था जब भारत गणित और विज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार रखता था। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, रामानुजन, शकुंतला देवी से लेकर वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे एक से एक महारथी दिग्गज हुए। आज शहरी बच्चों से बीस से तीस तक के पहाड़े पूछ लिए जाएँ तो बग़लें झाँकते नज़र आएँगे। उन्हें क़लम-कॉपी या मोबाइल, कैल्कुलेटर की ज़रूरत पड़ जाती है। 

हिंदी की वर्णमाला से लेकर बारहखड़ी तक पूरी तरह लोग लिख कर दिखा पाने में असमर्थ हो रहे हैं। 

गूगल पर ऑनलाइन ज्ञान तो उपलब्ध है पर उस ज्ञान-विशेष को सँभाल पाने का आत्मनियंत्रण भी तो होना चाहिए। जिनके अभाव में आज बचपन में ही बच्चे जीवन की संवेदनशीलता के प्रति ऊब जा रहे हैं और आत्महत्या जैसा क़दम उठाने लगे हैं। 

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (नक़लची ज्ञान) की दुनिया में जीवन की कोमल भावनात्मक संवेदनशीलता, मूर्खतापूर्ण मानी जाती है। प्रेम-दया-सद्भावना और समर्पण जैसी हार्दिक अभिव्यक्तियों के लिए कोई स्थान ही नहीं। ऐसे में वैवाहिक उत्तरदायित्वों, मानवीय, पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षा का तो कोई महत्त्व ही नहीं बचता। 

ऐसे में किसी के सुख–दुःख, जीवन–मरण, सम्मान–अपमान की कठोरता–मृदुलता का कोई मतलब ही नहीं रहने वाला। 

शुष्क, निर्मम, मृत भौतिकतावादी जीवन में पंगु बना हुआ आदमी आख़िर कब तक जी पाएगा? 

फिर बर्बरतापूर्ण हत्या-बलात्कार जैसे कार्यों के लिए कोई रोक-टोक कहाँ रह जाएगी? किसी भी संवेदनशीलता को समझने के बदले चीर-फाड़ कर नष्ट करने की दूषित प्रवृत्ति हमें बर्बाद कर रही है। 

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