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पीढ़ियाँ

जीवन की सीढ़ी! 
अगली पीढ़ी! 
बच्ची मेरी! 
रमी हुई अपनी दुनिया में, 
कभी ख़ुद से, 
छूती-परखती है, खेलती, 
चाहती ध्यानाकर्षित कर
मेरा सामीप्य! 
अपनी मधुर-कोमल व्यवहार से, 
नोचती-खसोटती 
मेरे आँचल में नन्ही! 
विविध प्रकार से। 
अपनी सुरक्षा के प्रति, 
रोती है अकेले पा ख़ुद को, 
पिता की गोद में रहते हुए भी
माँ की आवाज़ पर चहकना; 
ले-लो मुझे गोदी में
उत्सुकतावश बाँहों को 
आगे बढ़ा कर लपकना; 
मुझे रिझाना
अपनी स्नेहिल आधार से। 
 
मन न जाने क्यों 
बोझिल होता है; 
थका सा, कभी उदासी
के दाने पिरोता है। 
पिछली पीढ़ी के बारे में
जाने क्या-क्या सोच-समझ 
कर आँखें भर आती हैं—
माँ-बच्चे के
ममत्वयुक्त, महत्त्वपूर्ण सांसारिक
कर्त्तव्य और अधिकार में, 
“ऐसे ही कभी हमारी माँ भी
समर्पित हमारा ध्यान रखती होगी। 
जब तक जीवित हैं अभिभावक! 
हम सुनते हैं, देखते हैं; 
शिकवे-शिकायतें करते हैं। 
वह हमसे, हम उनसे, 
उम्मीदें चाहते-पालते हैं। 
जाने क्या कुछ कहते-सुनते हैं 
इस लौकिक-संसार में? 
कालचक्र के घूमते पहिए, 
वह एक दिन
पानी के बुलबुले! 
सपनों की तरह! 
इन आँखों से दूर हो जाएँगे। 
लाख चाह कर भी उन्हें
हम ढूँढ़ नहीं पाएँगे। 
एक बार आँखें मूँद
जो कहीं दूर चले जाएँगे। 
ख़ालीपन करके परिवार में। 

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शैली 2022/04/12 03:26 PM

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