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छः महीने का दूधमुँहाँ बच्चा था, तभी पति अंगद की माँ का आकस्मिक निधन हुआ था। ससुराल से, मनीषा को विवाह के बाद, किसी तरह वृहद्‌ संयुक्त परिवारवालों के साथ, कठोर अनुशासनात्मक तालमेल बनाते हुए जीने की विवशता और ज़िम्मेदारी मिली थी। 

मनीषा, जो अपने नाम और गुणों के अनुसार पति की तुलना में ज़्यादा बौद्धिक कुशल थी। वह हँसते-हँसते कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियों को चुनौती रूप में स्वीकार कर पारिवारिक-सामाजिकता का सफलता-पूर्वक निर्वहन कर रही थी। 

समय के साथ बच्चे होने पर पति की नौकरी की जगह पर आ गई; जहाँ पारंपरिक कुंठित-मानसिकता वाले ससुरजी नियमित आते-जाते रहते थे। शहर में और कहीं बाहर आना-जाना तो था नहीं, घर में रहते हुए बहू की प्रत्येक क्रियाकलाप पर निगरानी रखते और बढ़ा-चढ़ाकर बेटे के सामने कहा करते। 

बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ पति की व्यस्तता और बढ़ती बाहरी भाग-दौड़ में, मनीषा ने घरेलू उत्तरदायित्वों को सफलता-पूर्वक उठा लिया था। जिसके कारण दोनों की गृहस्थी और नाते-रिश्तेदारी पहले की तुलना में बेहतर चल रही थी। 

मनीषा ख़ुद से ज़्यादा ससुराल के प्रत्येक बड़े-छोटे का आदर-सत्कार करती। पति के चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहनों और भौजाइयों के प्रति अपनत्वपूर्ण व्यवहार करती। आवश्यकतानुसार समय-समय पर उपहार देती। रिश्ते-नातों की तिलस्मी दुनिया में साल में कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई विवाह होना ही है, जिसके लिए वह अपनी जादुई पिटारे से निकाल कर आवश्यक वस्तुएँ सामने रख देती। जिसे देख-समझ कर अंगद भी अति संतुष्ट रहता, परन्तु संकुचित, पुरातनपंथी ससुर जी को मनीषा की यह आज़ादी खल रही थी। 

स्वभावत: उन्होंने अपने बेटे का कान भरते हुए कहा, “बेटा तुम कमा कर अपनी सारी कमाई पत्नी को दे देते हो। यह ठीक नहीं है। स्त्री को इतनी स्वतंत्रता देना उचित नहीं। तुम तो घर पर रहते नहीं। वह कब, कहाँ और क्या ख़रीदती रहती है? जब देखो कुछ ना कुछ साड़ी-कपड़े, शृंगार से लेकर जाने क्या-क्या ख़रीदती रहती है। क्या तुम जानते हो? इस तरह अपव्यय करती रही तो कहीं वह तुम्हारी सारी कमाई और तुम्हें बर्बाद ना कर दे।” कहते हुए अपनी आशंका-कुशंकाओं को व्यक्त किया। 

पत्नी की प्रत्येक गतिविधि से परिचित अंगद ने अपने पिता से कहा, “जब से यह विवाह करके आई है, तब से आपके इतने लंबे-चौड़े परिवार के लिए कब, क्या, कितना और कहाँ लेना-देना है? एक पैसा भी आप जानते हैं? इसी तरह ही तो बचत में किफ़ायती ख़रीदारी करके मेरी छोटी सी कमाई के बावजूद धीरे-धीरे, थोड़ा-बहुत यथासंभव सबको संतुष्ट करने का प्रयास करती है। जिसकी बुद्धि ना तो आपके पास है और ना ही मेरे पास। आने वाले त्योहार रक्षाबंधन में आपकी बेटी आ रही है। कल जो कपड़े उसने ख़रीदे हैं, आपकी बेटी और उनके बच्चों के लिए है।” 

जिसे सुनकर ससुर जी को मौन धारण करना पड़ा। 

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टिप्पणियाँ

शैली 2021/11/29 09:29 AM

खरी वास्तविकता लिखी आपने, बधाई

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