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अपनी गति मति पर ही चलना

 

आधार छंद: मत्त सवैया/राधेश्यामी
विधा: गीत
परिचय: (32 मात्रा) सममात्रिक छंद
पदांत: एक गुरु (2) आवश्यक
यति:16, 16
सृजन शीर्षक: अपनी गति मति पर ही चलना। 

 
हे मानव शुभ मंगलमय हो,
अपनी गति-मति पर ही चलना। 
नित भोर जगाती जो किरणें,
हर साँझ उसे पड़ता ढलना॥
 
ले उत्थान-पतन का खेला, 
नित कर्मों के बीजें फलना। 
तब पछताकर क्या भी होगा, 
मन हारे हाथों का मलना॥
 
जग उजियारा बन कर छाए, 
द्यौ ज्योतिर्मय सूरज जलना। 
है सत्य अटल संतन वाणी, 
जो विधि कर्मठ कालें टलना॥
  
भव सागर के पार चलेंगे, 
सुख सपनों का आँखों पलना। 
रण में रोज़ चुनौती देते, 
वो वीरप्रसू जननी का ललना॥
 
क्यों फँसना माया के मोहे, 
हर क़दम लपक तृष्णा छलना। 
सत का मार्ग कठिन है फिर भी, 
फन कालिय बन कृष्णा दलना॥
 
इस यौवन के रूप निराले, 
हर बेगानापन कुछ अपना। 
सच-झूठ मिलेंगे बन साथी, 
अब समझो तो सच क्या सपना॥
 
ये क्षणभंगुर पाया जीवन, 
हर अंश पड़ा जीना-मरना। 
फिर कैसा अभिमान यहाँ पर, 
जो कर्म उचित सारे करना॥
 
हे मानव शुभ मंगलमय हो, 
अपनी गति मति पर ही चलना। 
नित भोर जगाती जो किरणें, 
हर साँझ उसे पड़ता ढलना॥

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