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मूल्यांकन 

 

वह शहर में लब्ध-प्रतिष्ठित व्यक्ति था। पति जिसके नाम, यश और काम की चारों तरफ़ धूम थी। उनकी स्त्री भी अपने पति के नाम, यश और वैभव में जो भी जितना था सहयोगिनी, संतुष्ट धीर-गंभीर लक्ष्मी स्वरूपा संचालित कर रही थी। दिन भर रसोई में भट्ठी जलती रहती। लोग आते रहते। चेहरे पर सदैव सौम्य मुस्कान लिए बिना ऊबे, बिना थके भोजन-जलपान की सदाव्रत व्यवस्था क़ायम रखती। सबके लिए उनका द्वार खुला रहता। 

समयानुसार बेटों के साथ बहुएँ भी आ गईं। बेटियों के साथ दामाद भी हो गए। पोते-पोतियों, नाती-नातिन से भरा-पूरा घर-परिवार था। जिसमें पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक एवं व्यावहारिक सर्वगुण सम्पन्नता और अनुशासित पूर्णता की भरपूर चमक-दमक थी। जो भी जाने-अनजाने आता, प्रभावित होकर जाता। 

एक दिन किसी बात पर बड़ा बेटा सभी के सामने अपनी पत्नी को डाँट रहा था। बेटे की ऊँची आवाज़ सुनकर माता वहाँ आई। उसने एक-दो मिनट आकलन कर स्थिति को समझने का प्रयास किया। अन्तत: बेटे को डाँटते हुए बोली, “कोई दाई या नौकरानी नहीं; पत्नी है ये तुम्हारी। करोगे अपने पिता जैसा? वह तो मैं थी जो बरदाश्त करती गई और वह दुहराते गए। पर वही ग़लतियाँ मेरी बहुओं के साथ दुहराई जाए ऐसा हरगिज़ बरदाश्त नहीं कर सकती।”

माँ का यह प्रखर विरोधी स्वर बेटे के साथ-साथ पूरे परिवार के लिए नया था। जिसे देख सभी स्तब्ध रह गए थे। बेटा, माँ के सम्मान में और अपनी ग़लती को मानकर वहाँ से चला गया। धीरे-धीरे सभी अपने काम में व्यस्त हो गए। अब रसोई में सिर्फ़ तीन स्त्रियाँ ही थीं। सास और उनकी दो बहुएँ! छोटी ने चुटकी लेते हुए सास से पूछा, “माँ! आप तो बहुत भाग्यशाली रही हैं। पिता जी बहुत मान-आदर देते हैं। जो हम सबने देखा है। आपकी नज़र में आप दोनों पति-पत्नी का आंतरिक रिश्ता कैसा है?” 

बूढ़ी सास सुनकर थोड़ी असहजता में गंभीर हुई। कुछ मिनट की निस्तब्धता में सास रूपी स्त्री जाने क्या कुछ मापती-जोखती रही फिर बोली, “विवाह के इन तीस-एकतीस वर्षों में हम दोनों के इस वैवाहिक रिश्ते का मूल्यांकन यदि मैं करती हूँ तो पति के मन में पत्नी रूप में मेरे प्रति भाव-आदर जैसा कोई भाव था ही नहीं। मेरी इच्छा-अनिच्छा उन्होंने कभी जाननी चाही ही नहीं। मैं उनके जीवन में स्त्री शरीर मात्र रही जिसका उपयोग एकमात्र ‘हवस’ से ज़्यादा कुछ नहीं रहा। जब मर्ज़ी आया गले लगा लिया। जब मर्ज़ी आया दुत्कार दिया। बिस्तर के कुछ मिनटों के अतिरिक्त अपनी कोई उपयोगिता या सार्थकता मैंने अपने पति के जीवन में नहीं पायी है।”

सुनकर दोनों बहुएँ आवाक् देख रही थीं। उस एक शब्द का मूल्यांकन जो अनुभवों के स्याह बंद संदूक से निकाल उनकी सास ने दर्शाया था। और, घर में स्त्री सम्मान के प्रति साहस भरा क़दम आगे बढ़ाया था। 

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