अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .! 

तुम अपनी, 
‘मेरा जीवन मेरी व्यस्क 
आज़ादी’ के नाम पर
(लिव-इन-रिलेशन शिप) 
बंधन मुक्त रिश्ते में, 
रहने के लिए 
आभासी दुनिया से मिले 
साथी के लिए 
पूरी दुनिया से संपर्क 
काट कर . . . मरो। 
मरो . . . श्रद्धा मरो . . .। 
 
मेरा अफ़ताब ऐसा नहीं है— 
मान, ढ़िंढोरा पीटने के बाद, 
पिट-पिट कर मरो। 
मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .! 
 
नपुंसकता के ढाँचे पर खड़ा, 
संविधान और प्रशासन, 
देश और समाज की
बेरहमी पर मरो। 
तन-मन-प्राण आत्मा वाला शरीर नहीं; 
प्लेट में पड़े मज़े के लिए पड़े, 
शराब-माँस व्यापार के लिए मरो। 
ताकि देह व्यापार और 
अंग तस्करी चलती रहे। 
धर्मांतरण-लव जिहाद पलता रहे। 
बड़े शान और अभिमान 
के लिए मरो। 
मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .!  
 
स्वेच्छा से नहीं तो अनिच्छा से चढ़ो। 
ज़बरदस्ती थोपी गई परीक्षा से मरो। 
पर मरो। 
किसी तरह मरो। 
देश के कोने-कोने में, 
कभी भी किसी भी रूप में मरो। 
कब की मरोगी; 
जाने कब मिडिया में उछलोगी? 
जीवन में प्राणघातक छिछालेदर में मरो। 
क्योंकि नियति है तुम्हारी—
तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ मरने के लिए आई हो। 
सपनों के सुनहरे संसार वाले भ्रम के
अतिवादी आत्मविश्वास में, 
सही-गलत के द्वंद्वमय बुद्धि छोड़ आई हो। 
अपनों का रक्षा-कवच तोड़ आई हो। 
पूरी ज़िन्दगी तुम चाह कर भी
इतना विख्यात नहीं हो पाती। 
अपने मानवीय अस्तित्व में 
फिर उसके बाद किसी पुरुष के 
अंतरंग प्रेम और विश्वास के साथ नहीं हो पाती। 
संग किसी के
अपने बचाव में आवाज़ कहीं उठा पाती। 
टूटे हृदय की वेदना रोकर सुना पाती। 
प्रेम की बलिवेदी पर— 
ऐसे ही चढ़ो। 
माता-पिता, घर-परिवार
के सिसकियों में चढ़ने के लिए; 
घोर दुष्कृत्य जनक 
राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए, 
अखबार-मिडिया के 
मुख पृष्ठ बनने के लिए 
मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .! 
 
तुम मरोगी तभी दानवता का 
काला साम्राज्य लहराएगा
एक के चले जाने के बाद 
अन्य शोषक, तो कोई
शोषित होने भी चला आएगा। 
अंतहीन नाम और चेहरे 
की पहचान बदल-बदल; 
बहादुरी की आड़ में 
मेमने की तरह शिकार होने से मत डरो। 
मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .! 
 
ताकि मृतक-
मूर्ख बुद्धिजीवी 
धर्मनिरपेक्षता की संगमरमरी क़ब्र 
नित-निरंतर पल्लवित-पुष्पित 
सुरक्षित रहे। 
उसकी आड़ में
मृत्यु पूजन उद्घोषित रहे। 
क़र्ज़ चक्रवृद्धि ब्याज सहित 
काफ़िर की बेटी रूप में भरो।
मरो . . .! श्रद्धा मरो . . .! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2022/11/30 02:29 AM

बाप रे इतना आक्रोश इतनी पीड़ा इतना विक्षोभ !!!!

shaily 2022/11/29 03:41 PM

मार्मिक और सत्य लिखा है आपने। बधाई

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

व्यक्ति चित्र

कविता

लघुकथा

कहानी

बच्चों के मुख से

स्मृति लेख

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

सांस्कृतिक आलेख

सामाजिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन