नाचता नर तन
काव्य साहित्य | कविता पाण्डेय सरिता ‘राजेश्वरी’15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
आधार छंद: प्रगाथ समवृत्त
यति: 8, 7
गणावली: रमगग, रनल
अंकावली: 212-222-22, 212-111-1
सृजन शब्द: नाचता नर तन
जागती भावें उल्लासी, नाचता नर-तन।
पा लिया मैंने पुण्यों से, आप सा वर धन॥
नात ये रिश्ते-जन्मों के, जो नहीं जबरन।
देख लो माथा सिंदूरी, साजते अभरन॥
प्रीति लागी ऐसी प्यारी, बीतते बचपन।
पायलें पैरों में नाची, तेज है छनकन॥
साज़ लेती चुप्पी तोड़े, पत्तियाँ खरकन।
नाम लेती तीखी साँसें, कौंधता तन-मन॥
ग़ौर हाथों में संचारे, कंगना खनखन।
मैं न बोलूँ तो भी बोले, बावरी करधन॥
प्रेम में साथी हो जाती, नींद से अनबन।
रात की अँधेरी काली, हो गई पसरन॥
हाय मैं दीवानी भूली, मास है अगहन।
सामना हो प्यारे से तो, दूर हो तड़पन॥
आप ही हो आगे-पीछे, भागती उलझन।
हौसला ले साथी मेरे, आप हो चहकन॥
ज़िन्दगी की ये रंगीनी, प्रेम की उपजन।
प्रेम ही है सोते-जागे, ले नई उठगन॥
मुश्किलें सांसारी जानूँ, खौलता अदहन।
ये न आती है एकाकी, साथ में पलटन॥
छोड़ के जाना ही होगा, मैल सी उतरन।
आदमी औक़ातें देखे, भूल चाल चलन॥
कर्म साधे जागे राहें, है सदा सुमिरन।
भाग्य रेखा आशीषेंगी, जोश में थिरकन॥
मौन भाषा जिज्ञासाएँ, आँख हो अनयन।
बुद्धिमानी अंकों छूते, जानता अपठन॥
मैं न जानूँ कैसे होता, साथ कौन करण।
नष्ट हो भी जाए तो क्या, बात है अमरण॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
गीत-नवगीत
लघुकथा
व्यक्ति चित्र
कहानी
बच्चों के मुख से
स्मृति लेख
सांस्कृतिक कथा
चिन्तन
सांस्कृतिक आलेख
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं