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शिव भस्म धारण से मिलता है कल्याण

 

शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण और अनंत शक्तियों को धारण किए हैं। जो मन, वचन, शरीर और धन से शिव भावना करके उनकी पूजा करते हैं, उन पर शिवजी की कृपा अवश्य होती है। शिवलिंग में, शिव की प्रतिमा में, शिव भक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिए पूजा का विधान है जो शरीर, मन, वाणी और धन से करते हैं भगवान शिव की विशेष कृपा पाते हैं और शिवलोक में निवास का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। जब आराधक को शिव साधना से तन्मात्राएँ वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदंबा सहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। प्रकृति, बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ आदि आठ तत्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है, अर्थात्‌ पृथ्वी के इन आठ बंधनों के कारण ही आत्मा को जीव की संज्ञा मिली है जिसमें देह से कर्म होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद ज्ञात होना चाहिए जिससे हम और आप अनभिज्ञ है।

सर्वज्ञता और तृप्ति शिव के ऐश्वर्य हैं। इन्हें पाकर मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। इसलिए शिव की भक्ति करने वाले शिवक्रिया, शिव तप, शिव मंत्र-जाप, शिव ज्ञान और शिव ध्यान प्रतिदिन प्रातः से रात को सोते समय तक, जन्म से मृत्यु तक संपन्न करते हुए शिव को उपलब्‍ध होते हैं। पंचाक्षर मंत्र को स्थूल लिंग कहा है। पृथ्वी पर पाँच लिंग हैं, पहला ‘स्वयंभू शिवलिंग’, दूसरा ‘बिंदुर्लिंग’, तीसरा ‘प्रतिष्ठित लिंग’, चौथा ‘चरलिंग’, और पाँचवाँ ‘गुरुलिंग’ है। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिए पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप में व्याप्त हुए भगवान शिव वृक्षों के अंकुर की भाँति भूमि को भेदकर स्वतः प्रकट होने के कारण ही इसका नाम ‘स्वयंभूलिंग’ है। इसकी आराधना करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। सोने-चाँदी, भूमि, वेदी पर हाथ से प्रणव मंत्र लिखकर भगवान शिव की प्रतिष्ठा और आह्वान करने के साथ सोलह उपचारों से उनकी पूजा की जाती है जिससे साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिए ‘पौरुष लिंग’ की स्थापना मंत्रों के उच्चारण द्वारा की है। यही ‘प्रतिष्ठित लिंग’ कहलाता है। किसी ब्राह्मण अथवा राजा द्वारा मंत्र पूर्वक स्थापित किया गया लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है, किन्तु वह ‘प्राकृत लिंग’ है। शक्तिशाली और नित्य होने वाला ‘पौरुष लिंग’ तथा दुर्बल और अनित्य होने वाला ‘प्राकृत लिंग’ कहलाता है। लिंग, नाभि, जीभ, हृदय और मस्तक में विराजमान आध्यात्मिक लिंग को ‘चरलिंग’ कहते हैं। पर्वत को ‘पौरुष लिंग’ और भूतल को विद्वान ‘प्राकृत लिंग’ मानते हैं। पौरुष लिंग समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाला है। प्राकृत लिंग धन प्रदान करने वाला है। ‘चरलिंग’ में सबसे प्रथम ‘रसलिंग’ ब्राह्मणों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। ‘सुवर्ण लिंग’ वैश्यों को धन, ‘बाणलिंग’ क्षत्रियों को राज्य, ‘सुंदर लिंग’ शूद्रों को महाशुद्धि प्रदान करने वाला है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे में स्फटिक शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करने वाला है।

विभूति लोकाग्निजनित, वेदाग्नि जनित और शिवाग्नि जनित तीन प्रकार की बतलाई गयी है जिसमें लोकाग्निजनित अर्थात्‌ लौकिक भस्म को शुद्धि के लिए रखा जाता है। मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की धान्य, तिल, वस्त्र आदि की भस्म से शुद्धि होती है। वेदों से जनित भस्म को वैदिक कर्मों के अंत में धारण करना चाहिए। मूर्तिधारी शिव का मंत्र पढ़कर बेल की लकड़ी जलाएँ। कपिला गाय के गोबर तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलताश और बेर की लकड़ियों से अग्नि जलाएँ, इसे शुद्ध भस्म माना जाता है। भगवान शिव ने अपने गले में विराजमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से सारतत्व को ग्रहण किया है। उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के सार रूप हैं। भगवान शिव ने अपने माथे के तिलक में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के सारतत्व को धारण किया है। सजल भस्म को धारण करके शिवजी की पूजा करने से सारा फल मिलता है। शिव मंत्र से भस्म धारण कर श्रेष्ठ आश्रमी होता है। शिव की पूजा अर्चना करने वाले को अपवित्रता और सूतक नहीं लगता। गुरु शिष्य के राजस, तामस और तमोगुण का नाश कर शिव का बोध कराता है। ऐसे गुरु के हाथ से भस्म धारण करनी चाहिए।

भस्म दो प्रकार की होती है-एक ‘महाभस्म’ और दूसरी ‘स्वल्प भस्म’। महा भस्म के भी अनेक भेद हैं: ’श्रोता’, ‘स्मार्थ’, और ‘लौकिक’। श्रोता और स्मार्थ भस्म केवल ब्राह्मणों के ही उपयोग की है तथा लौकिक भस्म का उपयोग सभी मनुष्य कर सकते हैं। ब्राह्मणों को वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए भस्म धारण करनी चाहिए तथा अन्य मनुष्य बिना मंत्रों के भस्म धारण कर सकते हैं। उपलों से सिद्ध की हुई भस्म ‘आग्नेय भस्म’ कहलाती है। यह त्रिपुण्ड का द्रव्य है। अन्य यज्ञ से प्रकट हुई भस्म भी त्रिपुण्ड थारण के काम आती है। ललाट अर्थात्‌ माथे पर भौंहों के मध्य भाग से भौंहों के अंत भाग जितना बड़ा त्रिपुण्ड ललाट में धारण करना चाहिए। मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएँ करके अँगूठे द्वारा बीच में सीधी रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। त्रिपुण्ड अत्यंत उत्तम तथा भोग और मोक्ष देने वाला है। त्रिपुण्ड की एक-एक रेखा में नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं। भस्म को बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में धारण करें। सिर माथा, दोनों कान, दोनों आँखें, नाक के दोनों नथुनों, दोनों हाथ, मुँह, कंठ, दोनों कोहनी, दोनों भुजदंड, हृदय, दोनों बग़ल, नाभि, दोनों अंडकोष, दोनों उरु, दोनों घुटनों, दोनों पिंडली, दोनों जाँघों और पाँव आदि बत्तीस अंगों में क्रमशः अग्नि, वायु, पृथ्वी, देश, दसों दिशाएँ, दर्सी दिग्पाल, आठों वसुंधरा, ध्रुव, सोम, आम, अनिल, प्रातःकाल इत्यादि का नाम लेकर भक्ति भाव से त्रिपुण्ड धारण करें अथवा एकाग्रचित्त हो सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड धारण करें। सिर, माथा, कण्ठ, दोनों को दोनों हाथों, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों, हृदय, नाभि, दोनों पसलियों एवं पीठ में त्रिपुण्ड लगाकर इन सोलह अंगों में धारण करें। देश तथा काल को ध्यान में रखकर भस्म को अभिमंत्रित कर जल में मिलाना चाहिए। त्रिनेत्रधारी, सभी गुणों के आधार तथा सभी देवताओं के जनक और ब्रह्मा एवं रुद्र की उत्पत्ति करने वाले परब्रह्म परमात्मा ‘शिव’ का ध्यान करते हुए ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र को बोलते हुए माथे एवं अंगों पर त्रिपुण्ड धारण कर भक्तों को कल्‍याण प्राप्‍त होता है और वे शिव की विशेष कृपा प्राप्त करते है।

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