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माखनलाल चतुर्वेदी के बचपन की होली

 

रंगों का पर्व होली आपसी झगड़े, फ़साद, आपसी वैमनस्‍यता समाप्‍त कर एक दूसरे पर रंग गुलाल डालकर गले मिलने का अनूठा त्‍यौहार है। ब्रजमण्‍डल ही नहीं अपितु उत्तर मध्‍य भारत में प्रायः सभी वर्ग एवं संप्रदाय के लोग होली उत्‍सव को धूमधाम से मनाते हैं तथा एक विशेष वर्ग भी है जो ढोलक, मजीरे, मृदंग, खंजरी एवं ताल के साथ गाते हुए होलिकोत्‍सव के धार्मिक महत्‍व एवं ग्रंथों में उल्‍लेखित पौराणिक कथाओं आदि के तत्त्वदर्शन को सभी को नाचते-झूमते सुनाते हैं। मुझे बचपन में अपने संस्‍कृत के शिक्षक विनोद परसाई ने अपने बाल्‍यावस्‍था की होली का संस्‍मरण सुनाया था जो कहीं दर्ज नहीं किन्‍तु उसी तर्ज़ की एक शैतानी भरी होली की घटना पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी के बाल्‍यावस्‍था में घटी। श्री परसाई जी के बचपन में घटित होली के प्रसंग में जिन बच्‍चों को किसी से कोई ज्‍यादा दिक़्क़त या परेशानी होती और वे बच्‍चों की ख़ुशी में ख़लल डालते, तब बच्‍चे उसे होली के समय अपनी शरारत से सबक़ सिखाया करते थे। श्री परसाई के प्रसंग में होली के समय, गर्मी शुरू हो जाने पर लोग घरों के बाहर चारपाई पर सोते थे, तब वे व उनकी टीम जिनसे दिक़्क़त होती उन्‍हें चुपचाप चारपाई सहित उठाकर घर के आँगन से गली, सड़क या किसी पेड़ के नीचे या होली जलने के पूर्व होली के आसपास छोड़ आया करते और पकड़े जाने पर उनकी ख़ूब पिटाई हुआ करती थी। 

होली में लकड़ी की कमी होने पर घर के आसपास बने बाडे व खलिहानों से लकड़ी ले आते, नहीं मिलने पर बाड़े का फाटक ही होली की भेंट चढ़ा दिया करते थे। तब गाँव में एक दो होली जला करती थीं आज जैसे सैकड़ों की संख्‍या में होली जलाने की प्रतिस्‍पर्धा नहीं थी। श्री परसाई जी के प्रसंग से हटकर अब भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कवि, लेखक, साहित्यकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के बचपन की होली के प्रसंग पर ध्‍यान दिलाना चाहूँगा। माखनलाल चतुर्वेदी जब ग्राम छिदगाँव में थे तब होली पर घटित हुई घटना को पढ़ने का अवसर मिला। इस मधुर प्रसंग को मैं अपनी स्‍मृति से आपके समक्ष प्रस्‍तुत कर होलीकोत्‍सव आनंद को बाँटना चाहूँगा। श्रीलक्ष्‍मीचन्‍द जैन की एक पुस्‍तक 1960 को भारतीय ज्ञानपीठ ग्रंथमाला ने—माखनलाल चतुर्वेदी शैशव और कैशोर शीर्षक से प्रकाशित की जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी के बाल्‍यकाल में खेली गयी होली का ज़िक्र है। इसे इतिहास में स्‍थान तो मिल गया, किन्तु बहुत कम लोग इससे परिचित हैं इसलिए बालक माखनलाल चतुर्वेदी एवं उनके शैतान बच्‍चों के गिरोह की इस घटना पर लिखने को तत्‍पर हुआ हूँ। 

माखनलाल चतुर्वेदी के अनुसार उन्होंने बचपन में होली आने के एक महीने पहले ही होली का डंडा गाड़ दिया। सुबह शाम वे तथा उनके मित्र जंगल से लकड़ी तोड़कर लाते और उस डंडे के चारों ओर इकट्ठा कर देते थे। तब लोगों में होली को लेकर प्रतिस्पर्धा हुआ करती कि किसकी होली कितनी बड़ी है। ऐसे हालत में लकड़ी कम होने पर वे रात को लोगों के घरों में जाते और रात में उनके बाड़े, खले, व गौशालाओं में रखी लकड़ियाँ चुरा लाते। इस बार भी उन्होंने अपनी मित्र मंडली के साथ अन्य की अपेक्षा अपनी होली को विशाल रूप दे दिया। कुछ लड़कियाँ पंडित हरिदास के घर के पिछवाड़े बाड़े में रखी थी वह भी उठाकर उसमें शामिल कर दीं। पर यह क्‍या! हरिदास को इस बात का पता चल गया और उन्होंने अपनी बैलगाड़ी जोतकर, उनकी होली पर पहुँच कर सिर्फ़ अपने ही घर की नहीं अपितु होली में जितनी भी अन्य जगहों की लाई लकड़ियाँ थीं, वे गाड़ी में लादकर ले आए। चतुर्वेदी जी एवं उनके मित्रों के हाथ के तोते उड़ गए कि अब दो दिन बाद होली जलनी है तब उनकी होली किस प्रकार जलेगी? ऐसा करके हरिदास जी विजयी मुस्कान से बच्‍चों को चिढ़ाने लगे जो बच्‍चें के दिल में चुभ गयी। 

होली का डंडा अकेला रह गया जो बच्चों को पुकार पुकार कर अपने कर्त्तव्य की याद दिला रहा था कि उसे अकेला करने वाले को सबक़ सिखाओ और लकड़ी वापस लाओ। उसी रात माखनलाल अपने अन्य मित्रों के साथ मालगुजार के लड़के को अपनी सेना में शामिल कर कार्य-योजना में जुट गए। फागुन के महीने में तब सभी लोग गर्मियों के शुरू हो जाने के कारण अपने घरों के बाहर सोने लगे थे। हरिदास जी के घर के बग़ल से सड़क निकलती थी और सड़क के इधर मालगुजारी की गौशाला थी। और इसी गौशाला के सामने एक गोंदी का पेड़ था। इधर हरिदास के बाड़े में सड़क से लगा ऐसा बड़ा सा फाटक या, जिसको आड़े-तिरछे बाँसों को बाँधकर तैयार किया गया था और जिसमें खोलने के लिए तो एक तार का खाँचा था और दूसरी तरफ़ रस्सी से  एक खूँटे से बाँधकर रखा गया था। इस तैयारी में बालक माखनलाल की बाल टोली ने गाँव भर के सारे गधे एकत्र किए जिन्हें रात को आहिस्‍ता-आहिस्‍ता हरिदास जी के घर की ओर ले गए। 
 
हरिदास जी और उनके परिवार-जन अपने घर के सामने अलग-अलग चारपाई पर सो रहे थे। उन चारपाइयों के बीच में इतनी जगह अवश्य थी कि उनमें एक-एक गधा खड़ा किया जा सके। पहले तो चुपके से माखनलाल ने उनके बाड़े के दरवाज़े-का वह तार वाला खाँचा उठाकर खोला और चुपके-चुपके एक-एक गधे को उन चारपाइयों के बीच में ले जाकर खड़ा करना शुरू किया! मुश्किल से पाँच ही गधे वहाँ ले जाकर क़रीने से खड़े किये जा सके। क्योंकि एक तो और जगह न थी और दूसरे यह डर भी था कि कहीं वे कमबख़्त गधे चीखना-चिल्लाना शुरू न करें, अन्यथा सारी स्कीम के ठप होने का डर था। इसलिए बाक़ी गधों को भगा दिया। सारे बच्‍चे बाड़े में गोंदी के पेड़ पर बैठकर गधों के चिल्लाने की प्रतीक्षा करने लगे, कि आख़िर एक गधा ढेंचू-ढेंचू चिल्लाया और उसके साथ दूसरे गधे भो चिल्ला उठे। लेकिन गधा जब चिल्लाता है तो उसके साथ नाक की दिशा में भागता भी है! पर उनको भागने का रास्ता था ही कहाँ? वे चारपाइयों को ही अपने पैरों की दुलत्तियों से अस्त-व्यस्त कर सकते थे। पर इससे पहले ही हरिदास जी और उनका घर भर जाग गया। हावड़-ताबड़ में जो उन्होंने बाड़े का फाटक खोला तो फाटक खटाक से नीचे गिर पड़ा। उसके खुलते ही माखनलाल और उनके साथी ने पेड़ से कूद-कूद कर मालगुजार की गौशाला में फाँद कर भागने लगे। उन्हें भागते देखकर हरिदास जी भी सपरिवार डंडा लेकर पीछा करते हुए भागने लगे। सारे बच्चे पहले तो छिदगाँव से टिमरनी जाने वाली सड़क-पर भागते रहे फिर रेल की लाइनों को लाँघ कर तुअर के खेतों में घुस गये। 

मज़े की बात यह थी कि हरिदास जी के साथ उनकी पत्नी और उनके बच्चे भी इन बच्चों के पीछे भागे चले आ रहे थे। किन्तु माखनलाल व उनके सभी मित्र उस खेत में घुसकर छोटे-से रास्ते से तुरन्त वापस लौट आये और वापस आकर हरिदास की गाड़ी जोती और उसमें उनकी सारी लकड़ियों के ढेर, खेती वाला लकड़ी का सामान और जो भी लकड़ी का सामान हाथ लगा, फ़ौरन लादकर होली के डंडे के पास जाकर लगा दिया। यद्यपि होली में अभी एक दिन बाक़ी था, पर माखनलाल व उनकी टीम ने तो एक दिन पहले ही वह होली मनाई और उस सारे सामान में आग लगा दी! जब हरिदास जी अपने परिवार के साथ हारे-माँदे लौटे और उन्होंने अपने घर पर काफ़ी सामान ग़ायब पाया और साथ ही बैलगाड़ी और उसके बैल भी नहीं दिखे तो वे सभी दुबारा दौड़ लगाकर होली के पास पहुँच चुके थे। उस समय तक होलिका दहन में उनका तीन-चौथाई सामान जल चुका या। हरिदास जी माखनलाल के पिता के पास पहुँचे और कहा कि माखनलाल ने इस तरह की बदमाशी की है। उनके पिता ने बैंत उठाकर माखनलाल की जमकर मरम्‍मत की। किन्तु अपनी मरम्मत हो जाने के बाद माखनलाल बेंत से मिले दर्द को भूल गए क्‍योंकि उन्‍हें होली के जल जाने में ज़्यादा आनंद आया। हरिदास द्वारा पूर्व में, उनकी होली का डंडा छोड़ सारी लकड़ी उठाकर लाते समय जो विजयी मुस्कान उन्हें चुभी थी, वह हरिदास की बैलगाड़ी के ख़ाक हो जाने सहित उनकी अन्‍य लकड़ी के जल जाने पर, अपनी वही विजयी मुस्‍कान बालक माखनलाल और उनकी टीम के चेहरे पर तैर रही थी और वे होली जलाकर ख़ुश थे। 

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