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ये कैसा इलाज था माँ

 

जब जब तुझको गर्म सरियों से दागा
सुन चीत्कार तेरी, मैं हुआ अभागा
जमी पर लिटा तेरे हाथ-पैर जकड़ते
नंगे बदन पर गर्म सरिया वे धरते
 
हाय कैसा इलाज, दर्द मर्ज़ बढ़ जाता
उठती नसों को, कैसे आग से बिठाता
माँ गरमा गर्म सरियों से तू दागी जाती
सुलगती आग से तेरी चमड़ी जल जाती
 
दादी, काकी और बुआ जी तब आती
कंबल में लपेटे तुझे फिर ज़मीं पर सुलाती। 
हाय कैसा था माँ, वह समय पुराना
जले ज़ख़्मों पर न दवा न मलहम लगाना
 
पुराने ज़माने के वे दक़ियानूसी गुनिये
‘पीव’ बीमार सोच वाले वे नासूरों के बुनिये
एक तू ही नहीं कई माताएँ इन्‍होंने दागी
अनगिनत घरों में थी, कई दर्द की अनुरागी!! 

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