दिवाली पर लक्ष्मी जाती है, आती नहीं?
आलेख | सामाजिक आलेख आत्माराम यादव ‘पीव’15 Nov 2023 (अंक: 241, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
समुद्र मथने से लक्ष्मी समुद्र से निकली और बाहर आयी। बाहर का तात्पर्य ज़मीन पर नहीं क्षीरसागर में, जहाँ समुद्र में ही विष्णु ने वरण कर लिया। क्षीरसागर से निकली लक्ष्मी ज़मीन पर आई, ज़मीन पर लक्ष्मी से ज़्यादा चला नहीं जाता है इसलिये वह बैकुंठ में, देवलोक में, इन्द्रलोक में, सुरों और असुरों के पास पहुँची। बाद में बड़े-बड़े सम्राटों, राजाओं, महाराजाओं, धनपतियों कुबेरपतियों के हाथों से निकलकर अत्र तत्र सर्वत्र पहुँचने लगी। भारत में वे लोग जो लक्ष्मी को पाने के लिए कई पीढ़ी-दर-पीढ़ी दीवाली पर इंतज़ार करते चले गये, कुछ उनपर भी कृपालु हुई। पर जो लक्ष्मी की कृपा नहीं पा सके, निरा ग़रीब, मज़दूर, फटीचर, भिखमंगे बने रहे उन्हें नहीं मिली, जिनकी औलादें अँधेरे में आज भी लक्ष्मी के आने की संभावनाओं को तलाश रही हैं। पर लक्ष्मी भी ग़ज़ब है वह टाटा-बिड़ला, अम्बानी, अडानी, जिंदल, दमानी, मित्तल, कोटल जैसों के घर पर रुक गयी। वहीं जनता की सेवा को कर्त्तव्य समझने वाले, जनता को निज अधिकारों सहित सुविधा उपलब्ध कराने वाले, समाजसेवी सियारों का चोला पहने नेताओं सहित, तमाम रिश्वतख़ोर, घोटालेबाज़, भ्रष्ट बेइमानों की तिजौरी में काली लक्ष्मी अर्थात् ब्लैक मनी के रूप में क़ैद कर ली गयी।
उल्लू जगत का एकमात्र जीव है जो अँधेरे में देख सकता है, इसलिये चकाचौंध से भरी लक्ष्मी उल्लू पर विराजती है। लक्ष्मी कमल पर विराजती है, कमल को भाजपा ने हाईजैक कर लिया। बात अजीब लगती है कि लक्ष्मी स्वयं प्रकाशवान होते हुऐ उल्लू पर सवार हो तो अँधेरा कैसे रहेगा? लक्ष्मी की उपस्थिति में अँधेरा क्या प्रकाशमान नहीं होगा? होता होगा, हमें क्या? हमें आम खाने से मतलब है, गुठली गिनने से नहीं। तात्पर्य, जब लक्ष्मी को अपने घर पर लाने के लिये सभी में भगदड़ मची हो तो हम क्यों चूकें? हम तो लक्ष्मी को अपने घर पर लाकर रहेंगे, चाहे वह उल्लू पर आये, हाथी पर आए, शेर पर आए, किस पर आए, हमें इसका फ़र्क़ नहीं पड़ता है। हम ग़रीब जो ठहरे, फूल न मिले, फूल की ख़ुश्बू में संतुष्ट होना हमें आता है। ग़रीब का होना आमजन का होना है, ख़ास का नहीं। ग़रीब के घर तिजौरी नहीं होती है, किसी भी आले में, किचन के किसी भी दाल, चावल, अनाज के डिब्बे में, गुदड़ी में, या रद्दी अथवा कबेलुनुमा छत-घास के छत के अंदर अथवा बाहर के किसी भी जगह वह अपनी जमा पूँजी रखकर उसे ही तिजौरी समझता है। उसकी लक्ष्मी उसके मैले कुचैले घर में दबी रहती है।
कुछ ग़रीब-मध्यमवर्गीय ऐसे जीवित लोग हैं जिनकी जेबों, बटुए में लक्ष्मी नहीं विराजती है। ठीक उसी प्रकार जैसे आत्मा शरीर में विराजती है पर शरीर का नाता जेब से बटुए से होता है; आत्मा को जेब-बटुए से कोई सरोकार नहीं। जेब बटुए के आकार-प्रकार में लक्ष्मी के होने, न होने का मतलब होता है। जैसे आत्मा शरीर में विराजती है, ग़रीब की जेबों में नहीं; अगर आत्मा उनकी जेबों-बटुए में विराजने लगे तो वह ग़रीब का दर्द समझ सकती है। जो ख़ाली जेबों की, ख़ाली बटुए की तकलीफ़ है, वह वही महसूस करता है जिसके जीवन में काम-धंधे का ख़ालीपन है। वह लक्ष्मीविहीन जेबों-बटुए के ख़ालीपन के दर्द और पीड़ा को बेहतर अनुभव कर सकते हैं।
अब बात दीवाली त्योहार की ही ले लीजिये, जिसमें सदियों से आपके मन मस्तिष्क में यह विश्वास दिलाया गया है कि दीवाली की रात लक्ष्मी आपके घर आती है। मेरा अपना अनुभव है कि मैंने दीवाली की रात की तो बात छोड़िये उसके अगले और पिछले 15 दिनों में कभी भी लक्ष्मी को अपने घर आते नहीं देखा बल्कि जो मेरे घर में है, मेरी जेब में है, मेरे बैंक में है, उस लक्ष्मी को वहाँ से बाहर निकलकर सराफा बाज़ार में सोने चाँदी के व्यापारियों, दीये, मिठाई, रंग-रोगन, पटाखों के व्यापारियों की तिजौरियों में पहुँचाकर दीवाली की अगवानी के लिये अपने घर-मकान दुकान को रंगने, पोतने, साजसज्जा करने दीपों से झिलमिलाने आदि अनेक प्रकार की परम्परागत तैयारी में ख़र्चा करते देखा है। संभवतया आप भी मेरी ही तरह अपने घरों की जमा लक्ष्मी ख़र्च करके सुखसमृद्धि की आस में लक्ष्मी के स्वागत में पूर्ण समर्पण के साथ खड़े होंगे। हर ग़रीब, मध्यमवर्गीय और निम्न परिवारों द्वारा दीपावली पर मीठे तेल के जलाये दीये मुश्किल से आधे घंटे, एक घंटे बाद बुझ जाते हैं, मात्र लक्ष्मी और गणेश के चित्र, मूर्ति के सामने एक दीया रातभर जलाये रखकर हर गृहणी जागकर लक्ष्मी का इंतज़ार करती है। करोड़ों ग़रीबों के घरों में लक्ष्मी मैय्या की अगवानी के दीये बुझे होते है मात्र एक दीया जलाकर प्रतीक्षा में रात गुज़र जाती है, पर लक्ष्मी नहीं आती। हर किसी को उम्मीद थी आयेगी, ज़िन्दगी खप गयी, लक्ष्मी का इंतज़ार करते, कमाल है इस साल भी लक्ष्मी नहीं आई।
हर साल बच्चे लक्ष्मी की अगवानी में पटाखे ख़त्म कर देते हैं। बच्चे जिन्हें 15 दिन पहले से अपने पिताओं से उम्मीद रहती है, हर दिन टकटकी लगाये देखते हैं कि पिताजी आज पटाखे लायेंगे, और जब पिताजी को मज़दूरी मिलती है वे बच्चों के चहरे की ख़ुशी के लिए अपनी सामर्थ्य अनुसार पटाखे लाते हैं। बच्चे उनके ख़ून-पसीने की कमाई से ख़रीदे पटाखे लक्ष्मी की अगवानी में छोड़ते हैं। घरों में महिलाएँ पन्द्रह दिन पहले से शक्कर, तेल पूजा का सामान आदि लाने के लिये पति के पीछे पड़ी होती हैं ताकि गैस चूल्हे पर कढ़ाई चढ़े, कुछ मीठा-तीखा, नमकीन बन जाये। लक्ष्मी को घर का शुद्ध भोग लगाये, दीये जलाए जाएँ, पटाखे छूटें। दीवाली के दिन मोहल्लेवालों के सामने इज़्ज़त न गिरे, पत्नी को बनारसी, कांजीवरम की साड़ी, कमर में क़ीमती कमरबंध, झुमका, गले का हार मिले, और वे ख़ुद को लक्ष्मीस्वरूपा बनाकर सज-धजकर लक्ष्मी के इंतज़ार में खड़ी हो, पर लक्ष्मीपूजा के बाद लक्ष्मी उन लोगों का भी ध्यान नहीं रखती जो हाँड़ मांस को गला देने वाली मेहनत मज़दूरी करनेवाले ग़रीब मज़दूर अपने आसपड़ोस के समस्तरीय घरों के सामने अपनी मान-प्रतिष्ठा कम न हो, नीचा न देखना पड़े बच्चे, पत्नी हीन भावना से ग्रसित न हो, इसी उधेड़बुन में पूरी ताक़त और सामर्थ लगाकर उसकी अगवानी के लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर दीये जलाने, फटाखे फोड़ने घरेलू साज-सज्जा में कोई कमी नहीं रखता है।
मुझे अपने बचपन की दीवाली याद आती है जब हर घरों में गायों-बछड़ों बैलों को दीवाली पर स्नान कराकर शाम को पूजाघर में गूजरी पूजने से पहले, एक सूपे में मीठे चावल, लाई, बताशे, पूड़ी, पकवान, फल आदि सजाकर, एक दीपक ले जाकर गौशाला में गाय का शृंगार कर, पूजा के बाद भोग लगाकर, दीपक लगाकर, गूजरी और घुड़सवार को पूजने के बाद, घर के हर अँधेरे कोने में दीये रखते थे। फिर गजकुंडी में पुटाश भरकर धमाके करते थे। उन दिनों ये पटाखे अमीरों के बच्चे फोड़ते थे। तब हम बहुत ग़रीब थे और अपने आसपास पैसे वालों के आँगन में, गली सड़कों पर उनके द्वारा जलाये गये अनार, अधूरे जले या अनजले पटाखे बटारने को निकलते। उसमें से थोड़ी सीसा बारूद इकट्ठा कर, उस बारूद में माचिस या दिया दिखाकर ख़ुश होते। आज भी दीवाली पर यह दृश्य देखने निकलो तो निगाहें कम पड़ जायेंगी पर जले पटाखों से बारूद एकत्र करते नन्हे हाथों को गिन पाना मुश्किल होगा।
आज भी सब कुछ हर साल की तरह होता है लक्ष्मी आती नहीं—जाती है। हर रोज़ हर चीज़ पर महँगाई बढ़ती जाती है। सभी तरह के नये-टैक्स आते हैं, मज़दूरी नहीं मिलती, जो मिलती है वह टैक्स भरने में, महँगाई के मुँह में समा जाती है। हमारी सरकार के पास कोई चारा नहीं जो महँगाई कम कर सके, हर घर के पढ़े-लिखे युवाओं के हाथ को काम दे सके, युवा नौकरी की तलाश में मानसिक अवसाद में जीने को विवश हैं। धर्म-कर्म चरम पर है चंदा ख़ूब बटोरा जा रहा है, नौकरी, पैसा माँगने पर सभी आत्मोन्नति की सलाह देने तैयार हैं। सरकारें क़र्ज़ में डूबी हैं; हर एक नागरिक के सिर पर एक लाख से ज़्यादा क़र्ज़ा है। उसे पता नहीं कि भारत में जन्म लेने के बाद वह क़र्ज़दार पैदा हो रहा है, जिसके पैदा होने से पहले और बाद में देश की सरकार दूसरे देशों से क़र्ज़ ले चुकी है। अब लक्ष्मी उधार की आयेगी, ब्याज के रूप में जायेगी।
पूरे देश में चीनी माल बिकेगा, चीन की दीवाली होगी, देशवासियों का दीवाला निकलेगा लक्ष्मी आपके घर से निकलकर चीन जायेगी और आप चीनी रोशनी में दिवाली पर लक्ष्मी का इंतज़ार करते रह जायेंगे।
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