अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सुख की चाह में


 एक
 
मेरे जीवन में, 
सुख का
भीषण अकाल पड़ा है, 
दूर तक
नज़र नहीं आती
राहत की
कोई बदली
दुख की भीषण
महा तप्त आँधियों ने
बिबाइयों की तरह
अनगिनत दरारें
पाड़ दी हैं
मेरे जीवन में। 
 
आकाश के
अन्तिम छोर पर बैठा
जगतपिता ईश्वर
फिर भी
अनवरत पीड़ाएँ
बरसा रहा है
मेरे जीवन में
और
मैं ‘पीव’
उसकी तथाकथित संतान
जाने क्यों? 
उसकी वसीयत
“सुख” से
अब तक बेदख़ल हूँ। 
 
 दो
  
असीम समृद्धिशाली जागीरें
मेरे जीवन की
बियाबान धरती से हटकर
जगत पिता परमेश्वर ने
अपनी अन्य संतानों में
असमान वितरित की हैं? 
जीवन की
इन सब जागीरों में
चंद लोगों ने
सुन्दरतम महल बनाकर
सुख के फाटक लगाये हैं
मेरे
ये तथाकथित पड़ोसी
अपने महल की
खिड़कियों से
रात गये बेईमान सुन्दरी को
काले लिबास का जामा पहनाकर
तिजौरियों में भरते हैं
और दिन के साफ़ उजाले में
वैभवता की शक्ल में
अपने कुचरित्र पर
ईमान का पानी चढ़ाते हैं। 
उनके जीवन में झूठ
हर पल सत्य बनकर
प्रखरित होता है
उनके महल में बिछा
ये रंगीन कालीन
ग़रीब बेकसों की
मजबूरियाँ है। 
जो उनका पेट काटकर
बिछायी गई है। 
गुम्बज में चमकता
ये विदेशी झूमर
युवाओं के सपनों को चुराकर
ज़ार ज़ार होते दिलों को मिलाकर
आने वाली उनकी
हर रोशन ज़िन्दगी की
ख़ूबसूरत रंगीन चमक से
चमकाया है। 
महल में जगह-जगह
लहराते ये रेशमी परदे
तुच्छ भेंट है
मजबूर लाचारों की। 
लम्बी क़तारों को
नज़रअंदाज़ कर
मामूली तोहफ़ों के रूप में
कुछ चिर-परिचित
लक्ष्मी भक्तों ने इन्हें दी है। 
जो फाइलों के ढेर में
अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद नहीं करते
और पलक झपकते ही
क़तारों में खड़े
तथाकथित लोगों के
क़ीमती वक़्त और भावी अरमानों को
धराशायी करके तुच्छ भेंटों से
अपना काम करवाती है। 
महल की शान बनी
ये चमचमाती रंगीन गाड़ियाँ
क़रीने से सजी
कई अमूल्य वस्तुएँ
सिफ़ारिश के
मज़बूत थाल में
रिश्वत के साथ सजाकर
व्यवहार कुशलता रूपी
कपड़े से ढककर
उन्हें ईमानदारी के साथ दी गई हैं। 
महलों में रहने वाले
इन पड़ोसियों ने
कई उपहारों को स्वीकार करके
अपने व बच्चों के
भावी जीवन के लिये
हर तरह के साधन जुटाये हैं। 
लेकिन उन्हें ज्ञात नहीं
उनकी इस आदत ने ‘‘पीव’
कई अनजान लोगों का
जीवन चौपट कर रखा है, 
और क‍इयों को जीते जी, 
आत्महत्या को विवश किया है। 
 
 तीन
 
गाँव के ग़रीब फजलू ने
जवान बेटियों की शादी
और अपने बुढ़ापे के लिये
अपनी पुश्तैनी ज़मीन
और घर के ज़ेवर बेचकर
अपने इकलौते बेटे की
नौकरी के लिये
परिवार के लिये ख़ुशियाँ
ख़रीदनी चाहीं
पर अफ़सोस। 
हाय री उसकी क़िस्मत
जीवन को बदरंग करके
उसने अपना सर्वस्य लुटाया
किन्तु नौकरी सुन्दरी ने
उसके बेटे को न अपनाया। 
एक से एक ख़ूबसूरत
नौकरी सुन्दरी
अय्याशी के लिये
साहब की सहचरी बनी है, 
जिनके गले में बाँहें डाले
साहब मौज कर रहे है, 
और ग़रीब फजलू
पैसा देकर आज भी
भटक रहा है
एक आशा लिये
आसमान ताक़ता
साहब कभी न कभी
दया करके
अपनी एक नौकरी सहचरी को
मेरे बेटे के साथ कर देगा
और उसका घर
ख़ुशियों से भर देगा। 
वर्षों से नौकरी सहचरी के पीछे भागते
मृगमरीचिका की तरह
फजलू की आँखें धँस गई हैं। 
असमय ही झुर्रियों ने
उसके शरीर में
अपना जाल बिछा दिया है
हाथ में बैसाखी थामे
धीरे धीरे मौत की ओर सरकता
वह ज़िन्दगी को
तलाश रहा है
इसके परिवार में
भुखमरी संगिनी बन गई है
जो घर में
बेहाल दमक रही है
और फजलू के
परिवार की लक्ष्मी
नौकरी सहचरी के रूप में
साहब के महल में चमक रही है। 
 
चार
 
मेरे पड़ोसी के
ख़ूबसूरत महल की नींव
अराजकता की
डाँटों/पत्थरों से भरी गई है
इस महल की
सारी ईंटें
भ्रष्टाचार की
मिट्टी से बनी हुई हैं
जिसमें अनीति की
रेत डालकर
कूटनीति की
सीमेंट का
मसाला मिलाया गया है। 
पानी की जगह
मसाला/गारा बनाने
का काम किया है
भूख से तड़पते
चीथड़ों में लिपटे
बेबस
मज़दूरन की
पीठ से बँधे
मासूम बिलखते
बच्चे के आँसू से। 
जिसे लिये
वह हरदम जुट जाती है
पूरी लगन से
पत्थर तोड़ने
ईंटें ढोने
और गारा/मसाला बनाने। 
वह भूल जाती है
गर्मी के थपेड़ों को
शीत के प्रकोप को
और मूसलाधार बारिश को
अपना गाँव छोड़कर
चल पड़ती है
बच्चे को
निवाला देने के लिये। 
मेरे
तथाकथित पड़ोसी ठेकेदार
ख़ुश है उसकी
कमाई खा-खा कर
और वह
अबला अनभिज्ञ है, 
पूरी मजूरी मिलने से। 
मेरा
पड़ोसी ठेकेदार
उसके लिये
माई-बाप और भगवान है। 
क्योंकि वह
पेट भरने को काम जो देता है? 
जाने कब
वह समय आयेगा
जब
उसके व बच्चों के
तन पर
उजले कपड़े होंगे। 
और ये ठेकेदार
उसके पसीने की
कमाई खाना
बंद करेगा? 
शायद तब
जब वह
अज्ञान रूपी अंधकार को
शिक्षा के प्रकाश से दूर करेगी। 
 
पाँच
 
महलों में रहने वाले
मेरे चन्द रईस पड़ोसी
रोज़ साँझ ढले शराब के गिलासों में
सभ्यता की बर्फ़ डालकर
शराफ़त के साथ
मजबूर कमसिन युवती के
गले में अपनी बाँहें डाल
अपने मृत झुर्रीदार जिस्म को
उसके गर्म ख़ून से
ज़िन्दा रखने की कोशिश करते हैं
उस बेबस युवती के मन में
इस रोग ग्रस्त समाज के प्रति
वीभत्स घृणा होती है
और चंद रुपयों के
खनकने की ख़ुशियों से
वह अपनी क्षुधा ग्रस्त संतान को
दूध ख़रीद कर पिला सकती है। 
और वृद्ध माँ-बाप को खिला सकती है निवाला
डिग्रियों की धज्जियाँ उड़ाकर ‘पीव’
मिटा सकती है बेरोज़गारी
ढक सकती है तन
और जुटा सकती है
बेरहम मौसम से
लड़ने की ताक़त। 
 
 छह
 
हे जगत पिता परमेश्वर
सुना है तेरे आँख
नाक कान नहीं होते
पर तू सब देख
सूँघ और सुन सकता है। 
फिर भी
तेरी ओर से
चली आती है
बीमारियाँ परेशानियाँ
और मजबूरी
जिन्हें जीने के लिये तूने
हम जैसों को चुनकर भेजा है। 
जो झेल रहे हैं
तेरी ही संतानों के
ज़ुल्म सितम
और तू
मूक दर्शक बना
देख रहा है
हम दबे हुए है
पीड़ाओं से सिर तक
हम मरकर भी
कोशिश करते है जीने की
हमारी जर्जर झोंपड़ी में
छेद है हज़ारों
जिससे छन-छन कर आती है
एक दो पल की ख़ुशी
हम तेरे
इस सौतेले व्यवहार को
जी रहे है मर-मर कर। 
हर दम मन में
ये धुकधुकी लगी हुई है
कहीं हमारी
झोंपड़ी न गिर जाए
अन्यथा ढेर हुए
सपाट मैदान में
मेरे पड़ोसियों के साथ
स्वर से स्वर मिलाकर
चिटकती धूप
और बहती हवा
ख़ूब जी भर कर
हँसेंगे गाएँगे, 
और ‘पीव’ मेरा मज़ाक़ उड़ायेंगे
तब अपनी बेबसी पर मैं
रो भी नहीं सकॅूगा? 
  
सात
 
हे जगत पिता परमेश्वर
जी चाहता है, 
ईमानदारी का
गला घोंटकर
अपने पड़ोसियों के
महल से चुरा लूँ
इस क्षणभंगुर जीवन के लिये
थोड़ी सी ख़ुशियाँ। 
जो उनकी इजाज़त के बिना
किसी ग़ैर के साथ
महल से बाहर, 
क़दम तक नहीं रखतीं। 
बरसों हो गये इंतज़ार . . . करते
सिद्धान्त पर चलते, 
आदर्श निभाते
कृशकाय
बूढ़ी नैतिकता को
उसूलों की पाबंदी से अपनाते। 
कभी मेरा जीवन भी
हरा भरा था
जिसकी डालों पर हरदम
चहका करता था एक पखेरू
सुख
पर शायद इसे
एहसास हो गया था
कि मेरे जीवन में
भीषण पतझड़
आने वाला है
इसलिये मुझे
मुँह बिराकर
वह मेरे पड़ोसी के
उपवन में चला गया। 
अब तू ही बोल—
जगत पिता परमेश्वर
मैं किन शब्दों में
आराधना करूँ
जिससे फिर मेरा जीवन
हरा-भरा हो जावे
और मेरा ‘पीव’
प्रिय पखेरू
सुख
हरदम मेरे आँगन में
चहकने लगे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक आलेख

कविता

साहित्यिक आलेख

आत्मकथा

चिन्तन

यात्रा वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य कविता

ऐतिहासिक

सामाजिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं