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क्‍या नेता जी अभी फ़ुर्सत में हैं?

 

असल में मैं जिस बड़े नेता से बात कर रहा हूँ, वे बड़े घाघ हैं। एक दो चुनाव अपने पैसों से लड़े उसके बाद पार्टी और पूँजीपतियों के चंदे से चुनाव लड़ते आ रहे हैं, इसलिये उनकी जेब पर असर नहीं होने से वे प्रश्नों को टाल रहे हैं। थोड़ी देर पहले ही उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं का दरबार सजाया था तब वे जीत पर संशंकित थे। उन्हें अपनी हार का डर सता रहा था और जनता को रुलाने वाले वे ख़ुद रो रहे थे, पर मगरमच्छ जैसे उनके आँसू उनके मन की तरह डाँवाँडोल हैं, कब आना हैं, कब जाना हैं, इस पर नेता जी का पूरा नियंत्रण है। इस बार के ज़्यादा प्रतिशत मतदान ने उनकी नींद उड़ा दी है, वे प्रत्येक बूथ का रिकार्ड लेकर कई बार बूथ कार्यकर्ताओं के साथ अलग-अलग राय लेकर जनता द्वारा उनको औक़ात याद दिलाये जाने का एहसास कर अपने मन में अन्दर तक धँसकर अपने भविष्य को लेकर पूरा ग़ुस्सा निकाल चुके हैं। उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों पर ग़ुस्सा आता है। धोखेबाज़, बदमाश, नमकहराम, हम राजनीति में लाए, नेता बनाया, हमारे पैर छूते हुए उसकी कूबड़ निकल आयी, उसने हमें धोखा दिया और स्वामिभक्ति न निभाकर अपने सेवक होने के धर्म से गिर गया, साला अधर्मी कहीं का! 

अभी-अभी प्रदेश की जनता ने अपना फ़ैसला ईवीएम मशीन का बटन दबाकर दर्ज करा दिया। एक पखवाड़े बाद फ़ैसला आना है, फ़ैसला आने तक सारे के सारे नेता फ़ुर्सत में हैं। हमने अपने विधानसभा प्रत्याशी के न मिलने पर, एक बड़े नेता के चुनाव लड़ने पर उनका मन टटोलकर बात छेड़ दी, “मान्यवर इस समय आप फ़ुर्सत में हैं, क्या महसूस कर रहे हैं? वोटिंग से मतगणना के परिणाम आने तक के दिन तथा चुनाव जीतने के बाद चुनाव की घोषणा तक के दिन में, आप कौन से दिनों को अपने लिये सुखद एवं अनिश्चितता के दिन समझते हो?”

नेता ने घूरा, झुँझलाते हुए कहा, “तुम्हारा प्रश्न ही दिशाहीन एवं भ्रमित करने वाला है। अरे प्रश्न ऐसे करो जो राष्ट्रीय संदर्भ के हों, प्रदेश की प्रगति के हों। भारतीय संदर्भ में यह प्रश्न व्यक्तिगत प्रश्न है, हम राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं, संसद, विधानसभा हमारे लिये घर-आँगन जैसे हैं, एक बार के नहीं पाँच-छह बार के विधायक हैं, सांसद भी रहे हैं, केन्द्रीय मंत्री भी रहे हैं, पार्टी ने ज़रा सी ज़िम्मेदारी देकर विधानसभा चुनाव क्या लड़वाया, हमें फ़ुर्सत में कह रहे हो, अरे भाई हमें साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं है फिर जनसेवा और देश का विकास करना हमारी पहली प्राथमिकता एवं नैतिक ज़िम्मेदारी होने से हम क्यों कुछ महसूस करें? महसूस वे करें जिनकी क़िस्मत में विधानसभा का दरवाज़ा बंद रहता है। हमारा जीना, मरना, हँसना रोना सब सरोकार जनता से हैं। इसलिये हमारे समय को सदा एक-सा समझो और याद रखो जैसे दिल्ली के सभी मंत्रालय के दरवाज़े हमारे लिये खुले हैं, वैसे ही इस बार भी विधानसभा का दरवाज़ा हमारे लिए खुला है। हम अपनी जीत को लेकर निश्चित हैं इस लिये गुडफ़ील में हैं।” 

अरे ये क्या? कैसा चिंतन? नेता जी की मनोदशा तो ठीक है न? ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय?’ कहीं अपने विरोधी को लेकर राजनीतिक कुर्सी की चकाचौंध में आँखों के अंदाज़ में हाथी का आकार-प्रकार पहचानने में वे अपनी मूल उपदेशक की भूमिका को चुनावी माईकों सें शोरगुल कर खो तो नहीं चुके हैं? वेद-पुराण के ज्ञाता, ब्रह्म के जानकार भ्रम में कैसे? कहीं ब्रह्म नाम का अर्थ इन्होंने भ्रम तो नहीं समझ लिया? सम्भव जानकार तो यही चर्चा कर रहे थे कि इनके अहं का विस्फोट होने से यह सब हुआ। नेताजी जैसा अति धीर, गंभीर, धर्मपरायण सज्जन पूरे ज़िले में नहीं। उन्होंने राजनीति की थी, पर इस बार उन्होंने अपने चेहरे पर राजनीति का चेहरा पहन लिया। बस चेहरा असर करने लगा, मन की दशा और दिशा क़ाबू से बाहर हो गयी। कुर्सी का धर्म इतना प्रगाढ़ होने से आत्मा में बस गया, जिसमें सारी नैतिकता बाढ़ बनकर बह गयी। कुर्सी के लिए, फिर अपने लिये एक नए त्रिशंकु राज्य बनाने की ज़िद नेता जी के सिर पर तांडव करने लगी। उनके लिये कुर्सी ही ईमान, कुर्सी ही धर्म, कुर्सी ही सब कुछ होकर रह गयी। तभी भाई-भाई के प्रति चुनाव लड़कर रामायण के भ्रातधर्म के क़िस्से-कहानियाँ सुनाकर सबके दिलों पर राज करते थे, वे नैतिकता की चादर में भ्रातधर्म को लपेटकर राजघाट पर मुखाग्नि दे आए। फिर सेवक से स्वामी धर्म की आस करना दोहरे चरित्र की निशानी है और यही दोहरा चरित्र जिसमें सारे रिश्तों की बलि चढ़ा दी जाये आज की राजनीति है। जिसका एक ही धर्म हैं, वह है स्वार्थ। जहाँ सिर्फ़ अपना ही पेट भरना होता हैं, आईमीन अपना ही बाँध होता है जिससे अपनी ही प्रगति होती है। अपने ही लोग कमीशन, भ्रष्टाचार आदि मिलाकर इस बाँध की कुल लागत, कुल जमा पानी एकत्र करने, ख़र्च करने में भ्रम की भीड़ को प्रगति दिखाना होता है। तमाम जनता के बीच चल रही बिना सिर-पैर की इन बातों पर नेता जी फ़ुर्सत में चिंतन कर बेचैन हैं, परेशान हैं, उनकी रातों की नींद ग़ायब है। 

नेता जी मेरे प्रश्न का मनन कर सोच रहे हैं कि निश्चिंतता और परमसुख तो चुनाव जीतने के बाद ही हो सकेंगे। उन्होंने हर घर और हर गली-गाँव से उनके जीतने को लेकर फ़ीडबैक लिया। अपने घर के एकांत में वे स्वयं और अपने घर-परिवार तथा ख़ास शुभचिंतकों के साथ चिंतन किया कि इस बार मतदाता प्रजातंत्र की रक्षा करने वाले समर्पित मुझे या अन्य किसे ऐतिहासिक जीत दिलायेंगे? कहीं कार्यकर्ताओं की अंदरूनी खींच-तान, दलबदल से मिली टिकिट का मान-सम्मान और अपमान को, टिकिट से वंचित दावेदार व उनके शुभचिंतक भीड़ के रूप में जय-जयकार करके अपुन की तरह ख़ुद के चेहरे पर चेहरा लगाकर तो नहीं चल रहे हैं? अगर ऐसा हुआ तो हार के साथ ये मुँह काला किए बिना नहीं छोड़ेंगे! मतदान समाप्ति के बाद जिन्होंने बूथों के ठेके ले रखे थे, वे जीत के दावे ऐसे कर रहे हैं, जैसे वोटरों से पार्टियों ने वायदे किये थे। यह ख़्याल आते ही नेता जी का दिल बैठा जाता है। दवाइयों की पूछ-परख होती है। ख़ुद की आत्मा से प्रश्न करते हैं, जबाव मिलता है कि आप ही होशियार हैं और सारे वोटर मूर्ख समझ रखे हैं। जब नेता अपने को छँटा हुआ धूर्त बना ले, और सभी धूर्त मिलकर लड़ें तब वोटर धूर्तों को मूर्ख नहीं बना सकता है। इतनी अक़ल तो अब वोटरों में आ गयी है, जिसे सुनकर नेताजी सदमें में हैं। 

नेता जी के चमचे ने घुड़का, “तुम पत्रकार हो, फ़ुर्सत में हो, तुम्हारे पास ख़बर नहीं है, ख़बर पैदा करने के लिये तुम खामोखाँ हमारे नेता जी को फ़ुर्सत में समझने की भूल कर, उनका क़ीमती समय बर्बाद करने आ टपके, चलिये, जाइये।”

मैं नेता जी को उनके चमचों सहित उनके हाल पर छोड़कर घर लौट आया। अब कल फिर किसी फ़ुर्सत में बैठे नेता से मिलूँगा, ताकि पाठकों की सेवा कर सकूँ; भले नेता जी जीतने के बाद, राहु-केतु की महादशा की तरह मुझ पर छा जायें पर पाठकों के लिये मैं राहु-केतु और शनि की भी परवाह नहीं करूँगा। 

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