आँखें पगला गई हैं!
काव्य साहित्य | कविता आत्माराम यादव ‘पीव’15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
मेरे दुख की इंतिहा है, दर्द से भर आई आँखें
आँखों में डूब न जाना, चलो तैरना सिखा दूँ।
भाग्य के जड़े सितारों को, देखती रही आँखें
आँखें पगला गई है, चलो इलाज करा दूँ॥
नदी में झाँककर, ख़ुद नदी बन गई आँखें
समुद्र में मिलना चाहे, चलो समुद्र से मिला दूँ।
ख़ूबसूरत स्वप्न देखना, सीख गई कँवारी आँखें
बंदिशें सभी हटाकर, चलो सपने साकार करा दूँ।
ब्रह्मांड पिघल न जाये, यह अजूबा देखती हैं आँखें
शिव पाँवों में बाँधे धरती, चलो नृत्य आज रुकवा दूँ॥
दुखों की धर्मशाला है तन, यह सच जान चुकी आँखें
‘पीव’ पखेरू के उड़ जाते ही, चिरनिंदा में सोएँगी आँखें॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अधूरी तमन्ना
- अरी आत्मा तू जाये कहाँ रे
- आँखें पगला गई हैं!
- आज का कवि
- एक टीस अंतरमन में
- एक टीस उठी है . . .
- कितना ओछा है आदमी
- कौआ, कब कान्हा के हाथों रोटी छीनेगा
- क्षितिज के पार
- जाने क्यों मुझे देवता बनाते हैं?
- नयनों से बात
- नर्मदा मैय्या तू होले होले बहना
- निजत्व की ओर
- मातृ ऋण
- मुझको हँसना आता नहीं है
- मुझे अपने में समेट लो
- मेरे ही कफ़न का साया छिपाया है
- मैं एक और जनम चाहता हूँ
- मैं गीत नया गाता हूँ
- ये कैसा इलाज था माँ
- वह जब ईश्वर से रूठ जाती है
- सपनों का मर जाना
- सबसे अनूठी माँ
- समय तू चलता चल
- सुख की चाह में
- हे वीणापाणि आज इतना तो कीजिये
- होशंगशाह क़िले की व्यथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
- गिरिजा संग होली खेलत बाघम्बरधारी
- ब्रज की होली में झलकती है लोक संस्कृति की छटा
- भारतीय संस्कृति में मंगल का प्रतीक चिह्न स्वस्तिक
- मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा और विसर्जन का तात्विक अन्वेषण
- राम से मिलते हैं सुग्रीव हुए भय और संदेहों से मुक्त
- रामचरित मानस में स्वास्थ्य की अवधारणा
- रावण ने किया कौशल्या हरण, पश्चात दशरथ कौशल्या विवाह
- शिव भस्म धारण से मिलता है कल्याण
- स्वेच्छाचारिणी मायावी सूर्पणखा की जीवन मीमांसा
साहित्यिक आलेख
आत्मकथा
चिन्तन
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य कविता
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं