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राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर स्वामी विवेकानंद के विचार

 

रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी विवेकानन्द का जन्म आज ही के दिन 12 जनवरी 1863 को विश्वनाथ दत्त एवं माता ज्ञानेश्वरी देवी के यहाँ कलकत्ता में हुआ, इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। नरेन्द्रनाथ अपनी धार्मिक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आये तब रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता में दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे। जिनकी हिन्दू धर्म में गहरी आस्था, ईश्वर प्राप्ति के निःस्वार्थ भक्तिभावना से प्रभावित होकर, नरेन्द्रनाथ दत्त उनके शिष्य बन गए और संन्यास ग्रहण कर लिया। 

खेतड़ी के महाराजा के सहयोग से वे सितम्बर 1893 में विश्वधर्म सम्मेलन में अमेरिका के शिकागो शहर गए जहाँ अपने भाषण में ‘प्रिय भाइयों और बहनों’ के सम्बोधन सेे भारतीय संस्कृति एवं धर्म की महत्ता को प्रभावशाली व्याख्यान प्रस्तुत कर, भारत की बौ‍द्धिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक समृद्धता का प्रमाण दिया। इस संबन्ध में अमेरिका के न्यूयार्क हैरल्ड ने शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानंद को सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति घोषित कर उनकी प्रशंसा की जिसे पढ़कर समूचा अमे‍रिका ही नहीं, पूरी दुनिया में इस बात का ढँका पिट गया। विवेकानंद के विचारों को सुनकर अंग्रेज़ी अख़बारों में लिखा कि भारत जैसे समुन्नत राष्ट्र में ईसाई प्रचारकों को भेजा जाना कितनी मूर्खता की बात है, जहाँ का एक युवा सन्‍यासी इतनी प्रखरता के साथ अपने देश का प्र‍तिनिधित्‍व करता है; तब इनके जैसे न जाने कितने युवा होंगे जिनका कोई जवाब नहीं है। विवेकानंद ने राष्ट्रीय परिपेक्ष में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार करते हुए 1896 में न्यूयार्क में वेदान्त सोसायटी की स्थापना की एवं 5 मई 1897 में वेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर अपने गुरु के नाम को आगे बढ़ाया। 

विवेकानन्द ने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त संकीर्णताओं एवं कुरीतियों का विरोध किया एवं जातीय भेदभावों का विरोध कर समानता की बात कर स्त्री पुनरुत्थान का मुद्दा उठाया और देश से निर्धनता व अज्ञानता को समाप्त करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जो उन्हीं के ख़र्च पर शिक्षा ग्रहरण करते हैं परन्तु उनकी परवाह नहीं करते। विवेकानन्द हिन्दू धर्म एवं दर्शन में गहन आस्था रखते थे एवं हिन्दू धर्म एवं सस्कृति की मौलिकता एवं उसकी विशेषताओं को लोगों के समक्ष रखकर कहते थे कि मनुष्य की आत्मा में ईश्वर का अंश है, इसलिये वे ईश्वर की आराधना का एक रूप दीन-दुखी दरिद्रों की सेवा मानते थे। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर उन्होंने रामकृष्ण मिशन में मानव सेवा को ईश्वर का सेवा माना और ‘नर सेवा नारायण सेवा’ को ध्येय बनाया। 

स्वामी विवेकानंद द्वारा जो राष्ट्रीयता की भावना के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रामकृष्ण मिशन के लिए तैयार किया गया, वह इस मिशन की सीमाओं को लाँघकर आज समूचे देश में युवाओं को आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना का विकास का प्रेरक बन गया है। स्वतंत्रता, समानता एवं स्वतंत्र चिंतन की बात कर वे युवाओं को दिशा प्रदान कर कहते—“उठो, जागो और तब तक विश्राम न करो जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” भारत के पिछड़ेपन, पतन एवं ग़रीबी से दुखी श्री विवेकानंद जी ने लोगों से पश्चिम के अंधानुकरण को तत्काल त्यागने का आह्वान किया ताकि अगर भारतीय लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो तो वे पहले मनुष्य बनें। शिक्षा और चरित्र निर्माण पर बल देते हुए स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को शक्तिमान एवं पौरुषयुक्त होकर साहस एवं वीरत्व को ग्रहण कर कुपथ त्यागने की प्रेरणा दी। उन्होंने खेतनी महाराजा को लिखा कि हर कार्य को तीन अवस्थाओं से गुज़रना होता है उपहास, विरोध ओर स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते हैं इसलिये विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं परन्तु अपने मन में यह निश्चय नहीं करते कि मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए तब ये सब लुप्त हो जाएँगे। आज भारत सरकार ही नहीं अपितु देश के हर प्रान्त में विवेकानंद के विचारों का क्रियान्वयन विवेकानंद को समर्पित युवा उत्सव के रूप में मनाने की सुखद शुरूआत हो चुकी है जिसमें योग दिवस के रूप में शरीर को स्वास्थ्य रखा जाकर युवाओं को अपने लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ाया जा रहा है। 

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