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तुमसे बड़ी है, मेरी पूँछ? 

 

लिखना आजकल फ़ैशन है, लिखने के लिये पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती है। मैं मैट्रिक पास होने के बाद लिखने लगा और संवाददाता बन गया। संवाददाता बनने के लिये मैंने शहर के तीन-चार बड़े पत्रकार, जिनकी बड़ी पूँछ थी, उनकी पूँछ ख़ूब सहलायी और मैं पूँछ वाला बन गया। मैं सन्‌ 1986 से पत्रकार हूँ और मेरे मिलने वाले सभी इधर-उधर ख़ूब थूक उड़ाते कहते हैं कि इतने सालों में आपकेे लिखने का अन्दाज़ निराला हो गया है और आपकी लेखनी का कोई तोड़ नहीं है। बस यही बातें मुझे गुदगुदाती हैं और मैं—स्वयं की जड़ें परिपक्व लेखन में जम चुकी—मानकर अपने आप को दुनिया का एक बड़ा नामचीन पूँछ वाला समझने लगा हूँ। 

अचानक जनवरी महीने में ज़िला जनसम्पर्क अधिकारी ने मोबाइल लगाकर पूछा, “आप किस अख़बार के पत्रकार हो, तुम्हारी ख़बरें कहाँ किस जगह छपती हैं, मैंने आज तक पढ़ी नहीं।” 

मैं अवाक्‌, आश्चर्य से भरा कि रोज़ ख़बरों के लिंक उन्हें व्हाट्सएप पर पोस्ट कर रहा हूँ, जो सैकड़ों ख़बरों में गुम-सी हो जाती हैं, से मायूस हुआ सोचने को विवश था कि अब तक मैंने जो अपना कैरियर बनाया वह मेरे अहंकार के साथ ताश के पत्तों-सा चकनाचूर हो गया। विनम्रता से मैंने अधिकारी महोदय से कहा, “इतने वर्षोंं में अचानक मेरी कौन-सी भूमिका या ऊटपटाँग, झटकेदार बात से आप जागरूक हुए, जो यह वैधानिक ज्ञान का प्रश्न कर रहे हैं। हर साल मेरे संपादक आपको पत्र लिखकर सूचना देते हैं, जिसकी ख़बर आप रखते हो, मेरी ही नहीं सभी की रखते हो। अगर मेरे विषय में आप संदेह से भरे प्रश्न कर रहे हैं तो क्या मेरे संपादक वर्षोंं से ग़लत हैं, या मैं फ़र्ज़ी पत्रकार हूँ। नहीं तो क्या कारण है आपके मस्तिष्क में चाचा चौधरी- सी स्फूर्ति और चेतना इतने विलम्ब से स्वयं चेती या किसी ने चेताई।” अलबत्ता संपादक महोदय से चर्चा उपरांत, उन्होंने मुझे पत्रकार होने का प्रमाणपत्र जारी कर, ब्‍यूरो चीफ़ मान लिया। पर उनका प्रश्न सिस्टम के मुँह पर तमाचा है जो उसमें आलोचकों का गिंजाइयों की तरह घुसपैठ कर चुका है, जिसमें मेरी पूँछ का गुमान टूटने पर मुझे, मेरे पत्रकार होने का सबूत देने, यहाँ प्रयोगवादी होना पड़ा।

अधिकारी द्वारा सारा ऑफ़िस व्हाट्सएप पर चलाया जा रहा है। उसी पर ख़बर भेजना, सूचना भेजना सहित ईमेल का इस्तेमाल किया जाता है, जिसका रिकार्ड वे संधारित करते हैं। पत्रकार इन्हें ख़बरें मेल नहीं करता, उन्हीं की तर्ज़ पर व्हाट्सएप करता है। सरकार के पास प्रतिदिन अख़बारों को जनसंपर्क ऑफ़िस में ख़रीद कर भुगतान करने की व्यवस्था पर पत्रकार अनभिज्ञ है। उन्हें भुगतान होता है, वे ही अख़बार उनके कार्यालय में भेजते हैं। बिना अनुमति भुगतान के उनके कार्यालय में दर्जनों अख़बार नहीं पहुँचते हैं इन्हीं बातों की अकड़ लिये एजेन्सियों, चैनलों के लिंक का रिकॉर्ड व्हाट्सएप पर भेजा जाता है। अगर वे नहीं देख सके, तो किसी पर ग़लती आरोपित तो नहीं कर सकते। मुझसे सबूत माँगे जाने का प्रयोग कुछ कनफटे स्वयंभुओं की खोज थी। जिसमें वे सभी पूँछ वाले जो मेरी क़तार में मुझसे ऊँचे और बड़े हैं, उनको भी टारगेट बनाकर उनकी भी पूँछ काटने-कटवाने की भूमिका बनायी गयी। ताकि वे पढ़े-लिखे देहाती गँवारों के शहरी होने पर उनकी उपासना और स्तुति कर सकें। जिनकी अपनी कोई पूँछ नहीं है और दूसरों की पूँछ पचती नहीं और वे उनकी पूँछ पर पैर रखना चाहते हैं। वास्तव में वे सभी पूँछ के बीमार हैं जिनमें कुछ कँवारे, कुछ एकदम नये विवाहित, तो कुछ पुराने पत्नी पीड़ित, तो कुछ लटके-झटके उचक्केबाज़ों की गिनती में लोग उन्हें करते हैं, जिन्हें दुनिया के सामने अपनी बड़ी पूँछ दिखाने का भूत सवार है। इसके लिये वे उतना पसीना बहाते भी हैं। मेरी अपनी पूँछ सहित जो ऊँची पुरानी पूँछों के धनी हैं, उनका गुमान भी इन्हें कचोटता है, और वे सब मिलकर हमारी पूँछ काटने के लिये हर सम्भव प्रयास कर चुके हैं, कर रहे हैं, करते रहेंगे। 

मेरी ही नहीं दुनिया भर के सभी पतियों की पत्नियाँ बहुत समझदार, जागरूक और सतर्क होती हैं क्योंकि वे अपने पति की कमज़ोरी तलाशने में दिन–रात कोई मौक़ा नहीं गँवाना चाहती हैं, ताकि वे पतियों के पूँछ की बराबरी कर सकें, या काटकर अपनी योग्यता साबित कर सकें। पत्नियाँ यह सब अपने मायके व ससुराल में धाक जमा कर, अपने साज-सँवार वाले सारे शौक़ और अपनी निजी ज़रूरतों के लिये ही पतियों की पूँछ से ज़्यादा अपनी पूँछ रखना चाहती हैं। जबकि इनका उद्देश्य अपने पति का सम्मान बरक़रार रख उनकी पूँछ कमतर कर अपनी पूँछ बढ़ाना है। अपने बाबत मैं अपनी पत्नी का एक उदाहरण पेश कर रहा हूँ। मेरी पत्नी चाक-क़लम, काजल की सींक आदि को क़लम के रूप में इस्तेमाल कर मुझसे लोहा मनवाने का पक्का गणित जानती है। सच में देखा जाए तो वह पक्की गणितज्ञ है, जो अपने स्वास्थ्य अधिकार पाने की मंशा से अपनी फ़रमाइश पूरी कराती है। जब मेरी शादी हुई, तब से मेरे व्यक्तित्व में नया मोड़ आया और जो मैं काग़ज़ों पर लिखा करता था, वह ज़िम्मेदारी मेरी पत्नी ने मेरे घर में क़दम रखते ही अपने कन्धों पर ले ली। सुबह विवाह हुआ, दोपहर से उन्होंने ख़र्चा लिखना शुरू किया, तब से वे आज तक मेरे घर के पुराने शेड वाली दीवारों पर हर महीने रसोई-गैस टँकी, सब्जी-भाजी का पूरा ख़र्चा, दूध, बिजली, पेट्रोल ख़र्च, मोबाइल-टीवी रिचार्ज, कम्प्यूटर प्रिंटर आदि का ख़र्चा लिखकर मेरी फ़ुज़ूलख़र्ची रोक रही है। मैं उन दीवारों के हिसाब को आज तक नहीं पढ़ पाया और जब भी देखता हूँ तो किसी प्रागैतिहासिक गुफा या पहाड़ पर आदिमानव के अंकित आकृतियों जैसा लगता है। पर मेरी पत्नी की उकेरी वो लकीरों में किये जा रहे गणित के हिसाब से मैं आतंकी-सा आत्मसमर्पण कर देता हूँ। 

मुझे ख़ुद पर गुमान है कि मैं पूँछ वाला हूँ पर पत्नी के सामने समर्पित हूँ। हाँ, मेरे आसपास कुछेक और गिनती के लोग इन बातों की डींगें मारते हैं और लोगों के ज़ेहन को खाद बीज देकर हरा-भरा करते हैं, उनके दिमाग़ की खरपतवार को आग लगाते हैं, वे भी बड़े पूँछ वाले हैं। अलबत्ता मैं उनकी पूँछ से अपनी पूँछ की तुलना न्यूनतम पूँछ वालों में करता हूँ। बड़े-बूढ़े कह गये हैं कि भेड़-बकरियों की संगत में आदमी ख़ुद भेड़-बकरी हो जाता है और ख़ुद फूला नहीं समाता है। क्योंकि उसकी पकड़ में भेड़- बकरियों के पोंचे होने से वह ख़ुद को पहुँचा हुआ व्यक्ति समझता है। ज़िला जनसम्पर्क अधिकारी को मेरी पूँछ नहीं दिखी, वैसे ही उन्हें जो ज़्यादा पूँछवाले या बड़ी पूँछवाले हैं उनकी पूँछ भी नहीं दिखी। इसलिये वे उन सभी पत्रकारों से पूछने लगे कि तुम्हें जिन अख़बारों-चैनलों ने पूँछ दी है, उसका सबूत दो। क्या पता, क्यों यह अधिकारी महोदय किसके दबाव में लोगों की पूँछ देखने निकले हैं, जबकि उसकी पूँछ भी हम पत्रकारों के कारण है। जो ज़रा-सा टेढ़ी करले तो इनकी पूँछ ही नहीं रहेगी। कारण जो भी हो, पर मेरा गर्व चूर-चूर हो गया और लिखते-लिखते मेरी ख़ून की कमी से उँगलियाँ झुकने लगी थीं। वे इस जवाब को सह न सकी। हालाँकि यह मैं अकेला नहीं था, जिनसे प्रश्न किया गया और भी कई ऐसे वरिष्ठ पत्रकार थे जिनसे प्रश्न किया गया और उन्हें प्रमाणपत्र नहीं मिला और इसके बलबूते वे अधिमान्यता से वंचित हुए। 

स्मरण रखना चाहिये इतिहास जिनका बनता है, उनके कंधे पर बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। पूँछ भी दो प्रकार की है। एक पूँछ इंसान की मानी जाती है, जिसमें उसके अच्छे-बुरे कामों की सभी जगह पूँछ-परख होती है। यह पूछपरख उसे घर-परिवार, समाज, देश सभी जगह सम्मान दिलाती है। दूसरी पूँछ शेर, गाय, बन्दर सहित अनेक-अनेक जानवरों की होती है और पालतू कुत्ते की भी होती है। जिनका जानवरों से सम्बन्ध होता है वे पालतू कुत्तों को और उसकी पूँछ के महत्त्व को समझते हैं। कुत्ते की पूँछ को दुम भी कहा गया है, दुम इसलिए कि वह अनेक गुणी है जिसमें एक गुण उसका हमेशा टेढ़ा होना है। दूसरा कुत्ता जब भी अपनी दुम को पकड़ना चाहे तो उसे गोल-गोल घूमना होता है, तीसरा जब भी कोई उसे कुछ खिलाये तब उसकी दुम का निरंतर हिलना, चौथे ताक़तवर के सामने दुम दबाना और पाँचवाँ जो उससे कमज़ोर हो उसके सामने अकड़कर गुर्राना। वे लोग जो अपना शहर नहीं घूमे, ज़िला नहीं देखा, उसकी भौगोलिक राजनीतिक स्थिति-परिस्थितियों का ज्ञान नहीं वे अगर शौचालयों, बेडरूमोंं में बैठकर मोबाइल पर फैले कचरे को उठाकर अपनी क़लम चला अपनी पूँछ साबित करें, कोई ख़बर प्रेस नोट से, कोई भाईचारे से, कोई कॉपी-पेस्ट से लिखे तो समझदार कहेंगे कि ये तो ख़बरों का गला घोंटना है। पर क्या कीजियेगा जब उनकी यही शैली जिसमें सत्‍ता की चरण वंदना, पाद तालुका उवाच से वे सर्व सुरक्षित कवच पाकर सर्वाधिकार और सर्व प्रतिष्ठित हो गये, उनकी हर एक जगह इसी छिपे गुण से पूँछ परख है, उनकी पूँछ भी पूँछ है, जिसका मुक़ाबला दूसरे की पूँछ नहीं कर सकती है, बशर्ते कोई इस दुखती दुम पर पैर न रखे। 

दुम के बताये ये सभी गुण यहाँ अनेकों में दृश्यमान किये जा सकते हैं। दुम अर्थात्‌ पूँछ की बात चल रही है, तो बताये देता हूँ कि कुछ ज़्यादा समझदार लोग कुत्ते को पालने से पहले उसकी दुम काटकर उसे दुमकटा कर देते हैं, ताकि न उसके डॉगी की दुम होगी और न दुम की बात होगी। अधिकारी और पूँछ वालों की जुगलबंदी से उत्पन्न दुम की ऐंठन मैंने देखी, यह बात मेरे शहर की है, आपके शहर की भी हो सकती है। ज़्यादतियाँ सभी जगह सभी के साथ होती हैं, कोई छुपाता है, कोई छपाता है और मुझ जैसा व्यक्ति सभी तरह का रिस्‍क उठाकर इस बीमारी को समझकर उसका इलाज चाहता है। जैसे बीमारी पता होने पर डॉक्टर उसका इलाज करता है, मैं इसका इलाज चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि अब भविष्य में ऐसे कनखड़े अधिकारी न हों जो कानों में रात गये गीदड़ों के समूह की आवाज़ “हूँ-हाँ” को सुनें तो अपने शब्दकोशीय ज्ञान में इसे समारोह का नाम न दे, जैसा कि हाल ही में गीदड।ड़ की “हूँ-हाँ” को “हूँ, हाँ” की स्वीकारोक्ति देकर वे जंगली जानवर बनने की बीमारी में ख़ुद को शामिल कर बैठे। मैं इसे एक झुँझलाहट मानता हूँ। अधिकारी जब भी कुर्सी पर बैठे तो उसे पहले अपनी आँखों का मैल निकाल लेना चाहिये। कोई कान में आकर कहे कि अगड़म, बगड़म, सगड़म, तिगड़म तो इसका अर्थ समझना होगा, ज़िम्मेदारी जाननी होगी, कि ऐसा उच्चारण करने वालों का भूत और वर्तमान क्या है। अगर इनकी हाँ में हाँ मिलाई तो अपना भविष्य क्या होगा तथा उसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह भी समझना होगा तभी निष्पक्षता के साथ शुचिता स्थापित की जा सकेगी। 

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