स्वेच्छाचारिणी मायावी सूर्पणखा की जीवन मीमांसा
आलेख | सांस्कृतिक आलेख आत्माराम यादव ‘पीव’1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
सूर्पणखा का असली नाम बज्रमणि था। सूप की भाँति बड़े-बड़े नाखूनों के कारण इसे लोग सूर्पणखा कहते थे (वयंरक्षामः, सूर्पणखा खण्ड-54 देखें)। इसका विवाह कालखंजवंशी विद्युज्जित नामक राक्षस से हुआ था। (देखें अध्याय रा. 7/2/38-39)। ब्रह्माचक्र के अनुसार यह अपनी दो पुत्रियों के साथ लंका व किष्किन्धापुरी की सीमाओं की रक्षा करती थी। वाल्मीकि रामा/7/9/6-35 के मध्य आई कथा के अनुसार सुमाली नामक राक्षस की पुत्री कैकसी और विश्रवा मुनि से रावण, कुम्भकर्ण, सूर्पणखा व विभीषण का जन्म हुआ था। इस प्रकार सूर्पणखा रावण की सगी बहन हुई। दूसरी ओर विश्रामसागर रामायण खण्ड अध्याय एक के अनुसार सूर्पणखा के पिता तो विश्रवा मुनि थे परन्तु माता का नाम ‘माया’ था। इसके अतिरिक्त महाभारत, वनपर्व, अध्याय-275 के अन्तर्गत यह कथा प्राप्त होती है कि विश्रवा मुनि को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने तीन अत्यन्त सुन्दरी राक्षस कन्याओं क्रमशः पुष्पोत्कटा, राका व मालिनी को नियुक्त किया। विश्रवा मुनि जब इनकी सेवा से प्रसन्न हुए तो इन्हें महापराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया। तब पुष्पोत्कटा से रावण व कुम्भकर्ण तथा मालिनी से विभीषण जी व राका से खर व सूर्पणखा उत्पन्न हुए।
सूर्पणखा का पति एक युद्ध में भ्रमवश रावण द्वारा ही मारा गया तो सूर्पणखा बहुत रोयी। इस पर रावण ने खर-दूषण व विशिरा के साथ 14000 महापराक्रमी राक्षसी सेना प्रदान कर इसे दण्डकारण्य का राज्य दिया। यह स्वेच्छाचारिणी अपने स्वाधीन बल से सर्वत्र घूमती रहती थी। एक दिन सूर्पणखा ने पंचवटी के पास गौतमी नदी के किनारे श्रीराम जी के चरणों के चिह्न जिनमें कमल, वज्रादि अंकित थे, को बालू में बना हुआ देखा। ऐसे विचित्र चिह्नांकित चरण देखकर वह प्रभु के स्वरूप का आकलन कर मोहित हो गयी और उन्हीं चरण चिह्नों को देखते-देखते श्रीराम के आश्रम तक पहुँच गयी। देखें—अध्यात्म रामायण के निम्न श्लोक:
तस्मिन् काले महारण्ये राक्षसी कामरूपिणी।
विचचार महासत्त्वा जनस्थाननिवासिनी ॥
एकदा गौतमीतीरे पञ्चवट्यां समीपतः।
पद्मवज्राङ्कुशाङ्कानि पदानि जगतीपतेः॥
दृष्ट्वा कामपरीतात्मा पादसौन्दर्यमोहिता।
पश्यन्ती सा शनैरायाद्राघवस्य निवेशनम्॥(अध्यात्म रा. /3/5/1-3)
मानस पीयूष अरण्यकाण्ड में उल्लिखित एक कथा के अनुसार सूर्पणखा को विवाह के छठे दिन ही एक पुत्र हुआ। विद्युज्जिह्न को मारने के बाद रावण ने इस पुत्र को एक लोहे के पिंजड़े में बन्द कर दिया। एक बार जब पुष्प लेने गये लक्ष्मण जी पर यह राक्षस (सूर्पणखा का पुत्र) हँसा तो लक्ष्मण जी ने इसे अग्निबाण मारकर भस्म कर दिया। जब पुत्र के भस्म होने की सूचना नारद के माध्यम से सूर्पणखा को मिली, तो वह क्रोधित होकर श्रीराम के आश्रम पर गयी, परन्तु राघव का सौन्दर्य देखकर उन पर मोहित हो गयी। श्री रामचरितमानस में वर्णित कथा इन कथाओं से मेल भले ही न खाये परन्तु उसकी अलौकिकता अन्य सभी प्रसंगों में अत्यन्त सुन्दर है।
गोस्वामी जी इस विवाद में नहीं पड़े कि सूर्पणखा किसकी पुत्री है? किसकी पत्नी है अथवा किसकी माता है, क्योंकि स्त्री का परिचय, जन्म होने पर अमुक व्यक्ति की पुत्री है, बड़ी होने पर विवाहोपरान्त अमुक व्यक्ति की पत्नी है, पुत्र होने पर अमुक की माता है, यही दिया जाता है। जैसे पार्वती जी का परिचय क्रमबद्धता से सीता जी ने स्तुति करते समय सबसे पहले उनके पिता का नाम लेकर दिया ‘जय जय जय गिरिराज किसोरी।’ यहाँ पार्वती जी को पर्वतराज की पुत्री कहा गया, फिर ‘जय महेस मुखचन्द चकोरी’ भोलेनाथ की पत्नी होने का संकेत है, फिर ‘जय गजबदन षडानन माता’ कहकर पुत्रों से पार्वती का परिचय मिला। परन्तु गोस्वामी जी ने सूर्पणखा का परिचय इन सबसे न देकर एक नयी बात लिख दी कि जो स्वेच्छाचारिणी हो, जो किसी के प्रतिबन्ध में नहीं हो, जिस पर किसी का नियन्त्रण नहीं है यह किसी की पुत्री, पत्नी और माँ कैसे हो सकती है? पुत्री पिता के, पत्नी पति के, माँ बेटे के देख-रेख में रहती है परन्तु इस पर तो इनमें से किसी का भी नियन्त्रण नहीं है क्योंकि यह किसी का कहना नहीं मानती इसलिए यह कौन है? गोस्वामी जी लिखते हैं:
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥(मानस 3/16-3-4)
सूर्पणखा रावण की बहन है, इसलिए स्वभाव भी रावण के अनुसार ही होगा। रावण भी ‘देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥’ अर्थात् रावण ने भी अनेकों स्त्रियों को ज़बरदस्ती अपनी पटरानी बनाया था, इसी प्रकार यह सूर्पणखा भी है, जहाँ सुन्दरता देखी, वहीं रीझ गयी। इसका स्वभाव रावण की तरह ही है इसलिए यह रावण की बहन कही गयी। ‘पंचवटी सो गइ एक बारा’ पंचवटी कैसे पहुँची इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। सूर्पणखा जब प्रभु के पास गयी तो गोस्वामी जी लिखते हैं कि ‘देखि विकल भइ जुगल कुमारा’ अर्थात् राम-लक्ष्मण दोनों को देखकर मोहित हुई। कैसी विचित्र स्थिति है, एक समय में एक ही व्यक्ति पर आकर्षित होने की बात समझ में आती है परन्तु वह दोनों भाइयों पर एक साथ मोहित हो गयी, इसी कारण उसे ‘माया मिली न राम’ राम-लक्ष्मण में से कोई भी नहीं मिल सका।
आध्यात्मिक दृष्टि से भी व्यक्ति तब तक प्रभु तक नहीं पहुँच सकता, उन्हें नहीं पा सकता जब तक मायावी संसार के जीवों से उसका मोह भंग न हो जाय। सूर्पणखा जीवाचार्य लक्ष्मण को भी चाहती है, उन पर भी मुग्ध है और ब्रह्म श्रीराम पर भी। ब्रह्म की प्राप्ति के लिए जीव के प्रति आकर्षण समाप्त ही करना होगा। जब तक परमात्मा के प्रति स्थिर एकांगी स्नेह उत्पन्न नहीं होगा उसकी प्राप्ति असम्भव है। इसलिए पूर्ण समर्पण भाव से जब ‘मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई’ उस प्रभु का स्मरण करोगे तो ‘भजत कृपा करिहहिं रघुराई’। परमात्मा की प्राप्ति में जीव बाधक है, इसलिए सूर्पणखा का एक साथ दोनों (राम-लक्ष्मण) पर मोहित होना ही उसके लिए भारी पड़ा।
सूर्पणखा प्रभु के पास गयी भी तो नक़ली रूप लेकर। प्रभु को वेष नहीं, भाव चाहिए ‘भाव बस्य भगवान’। आप जानते हैं कि प्रभु के पास नक़ली रूप लेकर जानेवाले प्रत्येक पात्र को येन-केन-प्रकारेण दण्ड मिला। जयन्त की आँख फूटी तो मारीच के प्राण गये और सूर्पणखा की स्थिति क्या हुई? बताने की आवश्यकता नहीं, आप सब जानते हैं कि उसे भी नाक-कान कटवाना पड़ा, भला मायापति से किसी की माया चल सकती है क्या? प्रभु का उद्घोष है कि ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट-छल-छिद्र न भावा॥’ फिर प्रभु से छल करनेवाले की ख़ैर कैसे रहे। सूर्पणखा ने भी अपना रूप बदला और—रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥मानस-3/16/7) सूर्पणखा प्रभु के पास जाकर अनायास ही बहुत हँसती है, उसने अपनी मुस्कान से अपने हृदय की बात व्यक्त करने का प्रयास भी किया, फिर बोल ही पड़ी और कहा:
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी।
यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं।
देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥
ताते अब लगि रहिउँ कुमारी।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥(मानस-3/16/8-10)
सूर्पणखा ने कहा कि मैंने तीनों लोकों में खोज डाला परन्तु मेरे अनुरूप कोई पुरुष न दिखा इसीलिए मैं अभी तक कुँआरी ही रही, आज तुम्हें देखकर मेरा मन कुछ-कुछ तुम पर आसक्त हुआ है। सूर्पणखा का कहना है कि आज तक तीनों लोकों में मुझे ऐसा कोई भी नहीं मिला जिस पर मेरा किंचित् भी मन रमता, परन्तु तुम पर मेरा मन कुछ-कुछ आसक्त हो रहा है, इसलिए, अब कहाँ तक खोजती रहूँ? सोचती हूँ तुम्हीं से सम्बन्ध कर लूँ ‘मनु माना कछु तुम्हहि निहारी।’ जो ‘कोटि मनोज लजावनि हारे’ हैं, जिन्हें देखकर जनक जी का ब्रह्म सुख उनसे छूट गया ‘बरबस ब्रहा सुखहिं मन त्यागा’ और जिन्हें देखकर विश्वामित्र जी जैसे ‘मुनि बिरति बिसारी’ उनके लिए सूर्पणखा कहती है ‘मनु माना कछु तुम्हहि निहारी’ प्रभु पर एहसान लादना चाहती है।
श्रीराम तो सूर्पणखा के यह कहते ही कि ‘देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं’ यह समझ गये कि राक्षसों के अतिरिक्त इतनी शीघ्रता में तीनों लोकों का भ्रमण भला कौन करेगा? यद्यपि सूर्पणखा ने दोनों बातें असत्य कहीं, न तो वह तीनों लोकों में घूमी और न ही वह अविवाहित थी। वह तो विधवा थी, परन्तु इस झूठ के माध्यम से प्रभु को प्रसन्न करना चाहती है। सूर्पणखा की बात पर श्रीराम ने पहले तो सीताजी की ओर देखा कि तुम्हारा मन मेरे ऊपर आ गया है और मेरा मन तो सदैव इन्हीं (सीता जी) के पास रहता है ‘सो मन सदा रहत तोहि पाहीं’ (राम का सन्देश जो हनुमान जी ने सीता से कहा)। इसलिए प्रभु ने सीताजी की ओर देखकर यह संकेत किया कि तेरा मन भले ही इधर-उधर भटकता हो परन्तु मेरा मन तो इनके पास से कहीं जा ही नहीं सकता। दूसरी बात राघव ने यह भी संकेत किया कि मेरे पास तो मेरी स्त्री है, इसलिए मैं तो तुझे स्वीकार नहीं कर सकता। हाँ, यदि तू चाहे तो जाकर लक्ष्मण से पूछ ले क्योंकि वे भी तो कामदेव को लज्जित करनेवाली सुन्दरता के स्वामी हैं:
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥ (मानस-3/16/11)
सीता की ओर देखकर प्रभु ने सूर्पणखा को यह भी संकेत दिया कि तू माया के रूप से मायारूपिणी सीता के पति, अर्थात् मायापति को पाना चाहती है, प्रभु का संकेत यह भी है कि जिसके पति को तू पाना चाहती है। वह राक्षस वंश के नाश का मूल है। प्रभु ने तो सूर्पणखा को देखा तक नहीं, सूर्पणखा की बात सुनकर राघव सीता की ओर देखने लगे, मानों वे जानकी का भाव भी देखना चाहते हों। जब श्रीराम ने सूर्पणखा से यह कहा कि ‘अहइ कुआर मोर लघु भ्राता’ (कुछ प्रतियों में कुआर के स्थान पर ‘कुमार’ शब्द पाया जाता है) तो सूर्पणखा ने इसका यह अर्थ लगाया कि श्रीराम ने यह कहा कि मेरा छोटा भाई लक्ष्मण अविवाहित है, प्रायः यही भाव सामान्य पाठक भी लगा लेते हैं और फिर इस पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं कि श्रीराम ने झूठ बोला? परन्तु गोस्वामी जी की शैली व भाव तथा अर्थगाम्भीर्य को बिना सन्त व सत्संगति के नहीं जाना जा सकता।
ईश्वर ही सत्य है और सत्य ही ईश्वर है, राघव तो कभी झूठ बोले ही नहीं, वे झूठ बोलते भी क्यों? झूठ तो असमर्थ बोलते हैं सर्व समर्थ श्रीराम को झूठ बोलने की कभी आवश्यकता ही नहीं हुई। राजाओं के यहाँ पुत्रों को राजकुमार या कुमार विवाह के बाद भी कहा जाता है, यही नहीं, श्रीराम व लक्ष्मण को विवाह के बाद कई स्थानों पर ‘कुँअर’, ‘कुमार’ कहा गया है। जैसे—‘एहि बिधि सबही देह सुख्खु आए राज दुआर। मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार’ यहाँ विवाद के बाद श्रीराम व अन्य भाइयों को ‘कुमार’ कहा गया। यही नहीं, आगे भी देखें ‘तिन्ह पर कुँअरि कुअँर बैठारे’ (मा.-1/349/2) और भी देखें—यह शब्द तो राजा के पुत्रों के लिए प्रयुक्त ही किया जाता है। दूसरी बात प्रभु ने यह कहा कि जिसकी सुन्दरता से ‘मार’ (कामदेव) भी (कुकुत्सित) लज्जित हो जाय, ऐसा मेरा छोटा भाई है, उससे जाकर पूछ लो।
तीसरी बात प्रभु भी तो ‘शठे शाठ्यं समाचरेत’ की नीति अपना सकते हैं, क्षत्रिय हैं, नरलीला कर रहे हैं। जब सूर्पणखा विवाहित होकर अपने को कुआरी (कुँआरी) कह सकती है ‘सबके उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ’तो प्रभु ने यदि उसको उसी के अनुसार जवाब देकर लक्ष्मण को, (जिनके पास इस समय स्त्री नहीं है) कुँआरा कह दिया तो क्या ग़लत किया? प्रभु ने कहा जैसे तुम कुँआरी हो वैसे ही मेरा भाई भी कुँआरा है जाकर उससे पूछ लो। वे तो सब के हृदय की जानते हैं। जब सूर्पणखा ने देखा कि श्रीराम तो मेरी ओर देख तक नहीं रहे हैं और जो बात कह भी रहे हैं वह सीता की ओर देखकर रह रहे हैं तो उसने सोचा कि चलो इनकी इच्छा नहीं है तो न सही, छोटा भाई तो जैसा कि ये स्वयं कह रहे हैं कि कुँआरा है तो वह तो मान ही जायेगा।
सूर्पणखा को प्रभु ने लक्ष्मण के पास इसलिए भी भेजा कि तेरा चयन ग़लत है, तू दुष्ट हृदया है, तेरा हृदय सर्पिणी की तरह है ‘दारुन जसि अहिनी’ तो सर्पिणी की शोभा सर्प के ही पास है इसलिए मेरा भाई एक हज़ार फणवाला सर्प है (लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे) तू वहीं जा तेरा संयोग वहीं अच्छा रहेगा। राम की बात पर सूर्पणखा लक्ष्मण के पास गयी:
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा।
पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा।
जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥(मानस-3/16/12-14)
सूर्पणखा जब लक्ष्मण जी के पास गयी तो लक्ष्मण जी तो सूर्पणखा के व्यवहार से ही यह समझ गये कि यह किसी सभ्य घर की स्त्री नहीं हो सकती, यह निश्चित रूप से राक्षस की ही पत्नी होगी।
राक्षस प्रभु राम व लक्ष्मण के शत्रु हैं इसलिए लक्ष्मण ने सूर्पणखा को अपने शत्रु की बहन समझकर, बिना सूर्पणखा को देखे राघव की ओर देखते हुए ‘प्रभु बिलोकि’ लक्ष्मण जी बोले। श्रीराम की ओर देखने का कारण यह था कि, माया से बचना है तो प्रभु को देखते रहो। तुमसे प्रभु ही बचा सकते हैं। इसलिए लक्ष्मण जी श्रीराम की ओर देखकर सूर्पणखा से बोले, “सुन्दरी!” सूर्पणखा ने सोचा कि चलो इस छोटे कुमार ने मुझे सुन्दरी तो कहा। सूर्पणखा ‘सुन्दरि’ शब्द सुनकर प्रसन्न हुई। लक्ष्मण जी ने कहा—सुन्दरी! मैं तो प्रभु का दास हूँ, और तुम्हारा भाव दासी बनकर रहने का है नहीं, मेरे साथ तुम रानी या महारानी बनकर नहीं रह सकती। मैं तो प्रभु का दास हूँ अर्थात् सेवक हूँ, उनका नौकर हूँ इसलिए मेरे साथ संयोग बनाने से तुम्हें नौकरानी बनना पड़ेगा। मैं स्वयं प्रभु के अधीन हूँ और तुम स्वाधीन व स्वेच्छाचारिणी हो इसलिए हमारा तुम्हारा संयोग नहीं बन सकता। हाँ, प्रभु समर्थवान हैं वे जो चाहें कर सकते हैं। लक्ष्मण जी की यह बात सुनकर सूर्पणखा फिर प्रभु के पास गयी तो प्रभु ने उसे फिर लक्ष्मण के पास भेज दिया:
पुनि फिरि राम निकट सो आई।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥(मानस-3/16/17)
अब की बार तो लक्ष्मण जी ने सीधे-सीधे मना ही कर दिया और थोड़े स्पष्ट शब्दों में यह कह दिया कि:
लछिमन कहा तोहि सो बरई।
जो तृन तोरि लाज परिहरई॥(मानस-3/16/18)
इधर से उधर, उधर से इधर जा-जाकर सूर्पणखा का धैर्य टूट गया और उसे क्रोध आ गया, वह खिसिया गयी और अपने असली रूप में श्रीराम के पास पहुँची तथा भयंकर रूप रखकर सीता की ओर झपटी कि इसी के कारण राम ने मुझे वरण नहीं किया। जब यह नहीं रहेगी तब तो मुझे स्वीकारेंगे।
तब खिसिआनि राम पहिं गई।
रूप भयंकर प्रगटत भई॥(मानस-3/16/19)
श्रीराम ने सीता जी के लिए जो यह कह दिया कि यह मेरी भार्या है और इससे तुम्हें सौत का डाह होगा। यही सुनकर सूर्पणखा सीता को खाने के लिए दौड़ी। जब श्रीराम ने देखा कि यह तो हम दोनों की उपस्थिति में सीता पर आक्रमण कर रही है, इतनी निडर है तब:
‘सीतहि सभय देखी रघुराई।
कहा अनुज सन् सयन बुझाई॥’
सीता को भयभीत देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण जी को संकेत किया—क्या संकेत किया? इसका उल्लेख गोस्वामी जी ने बरवै रामायण में किया है:
वेद नाम कहि अँगुरिन खंडि अकास।
पठयो सूपनखहि नहर के पास॥(बरवे रामा/3/28)
अर्थात् श्रीराम ने चारों अंगुलियों को आकाश की ओर उठाया और फिर खण्डित करने का संकेत किया। अर्थात्—चार अंगुलियों से चार वेद (श्रुति) का संकेत करने पर लक्ष्मण ने श्रुति से कान (कान को श्रुत्येन्द्रिय या अणेन्द्रिय अभया श्रवण भी कहते हैं) की ओर संकेत है यह समझा, और जब प्रभु ने आकाश की ओर उँगली उठायी तो शरीर में आकाश (शून्य) नाक का संकेत होता है, अस्तु लक्ष्मण ने उसे दण्ड दिया, उसके भी नाक-कान काट लिये। नाक-कान कटे तो भागकर वह सीधे खर-दूषण के पास गयी।
खर-दूषण ने 14,000 राक्षसी सेना के साथ श्रीराम पर आक्रमण कर दिया। खर-दूषण को वरदान प्राप्त था कि तुम लोगों की मृत्यु आपस में लड़कर मरने से ही होगी, अन्यथा तुम्हें कोई भी मार नहीं सकेगा। मायापति श्रीराम ने उसकी सारी माया का जवाब माया से देकर खर-दूषण त्रिशिरा सहित 14,000 राक्षसी सेना को अकेले श्रीराम ने मृत्यु के मुँह में पहुँचा दिया। तब उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ राक्षसों को मरे देख राक्षस-राज रावण की बहिन शूर्पणखा दौड़ती हुई लंका में पहुँची और राजसभा में पहुँचकर रोती हुई रावणके पैरों के समीप पृथ्वी पर गिर पड़ी। अपनी बहिन को इस प्रकार भयभीत देखकर रावण बोला-॥३८-३९॥ “अरी वत्से! उठ, खड़ी हो। बता तो सही तुझे किसने विरूपा किया है! हे भद्रे। यह इन्द्र का काम है, अथवा यम, वरुण और कुबेर में से किसी ने किया है! बता, एक क्षण में ही मैं उसे भस्म कर डालूँगा।” तब राक्षसी शूर्पणखा ने उससे कहा, “तुम बड़े ही उन्मत्त और मंदबुद्धि हो॥४०-४१॥ तुम मद्यपान में आसक्त हो के वशीभूत और सब प्रकार नपुंसक-जैसे दिखायी पड़ते हो। इस प्रकार सूर्पणखा ने अपने भाई रावण को उकसाते हुए उसके समूल नाश की भूमिका तैयार कर ली। यह बात रावण जान चुका था कि ‘खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥’ रावण विचार करता है कि कहीं भगवान् का अवतार तो नहीं हो गया, क्योंकि मेरे ही समान बली खर-दूषन को भगवान् के अतिरिक्त कोई अन्य मार नहीं सकता था। फिर विचारता है कि यदि भगवान् ने अवतार लिया होगा तो उनके हाथों मरने में ही कल्याण है क्योंकि इस तामसी शरीर से भजन तो होगा ही नहीं और यदि वे सामान्य राजा होंगे तो सूर्पणखा के कहने के अनुसार उनके पास एक सुन्दर स्त्री भी है, तब मैं उनकी स्त्री का हरण कर दोनों (राम-लक्ष्मण) को रण में जीतकर लाऊँगा:
सुररंजन भंजन महि भारा। जाँ भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तो मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ।
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥
जाँ नररूप भूपसुत कोऊ हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥
इस प्रकार अपनी बहिन सूर्पणखा के सत्य को जानते हुए रावण अपने मोक्ष का रास्ता स्वयं तैयार कर दुनिया में अपयश का मार्ग चुन प्रभु के हाथों मोक्ष प्राप्त करता है।
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